[ धीरज शर्मा ]: कुछ दिन पहले ‘तान्हाजी’ फिल्म देखी। उसे देखकर लगा कि ‘भगवान’ ने बॉलीवुड की धारा में फिर से दस्तक दी है। इसमें दिखाया गया कि दुर्ग पर धावा बोलने से पहले तान्हाजी मंदिर में पूजा करते हैं। ऐसे दौर में जब लगा कि बॉलीवुड ने भगवान को लगभग भुला ही दिया, वहां रुपहले पर्दे पर भगवान यकायक प्रकट हुए। प्रख्यात दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने 135 साल पहले दावा किया था कि ‘गॉड इज डेड’ यानी ईश्वर मृतप्राय हो गया है। उनकी दलील थी कि दुनिया को अब ईश्वर की जरूरत नहीं रह गई है और विज्ञान मानव जाति को सब कुछ उपलब्ध कराने में सक्षम है।

साहस, हौसला और आकांक्षा ही व्यक्ति को बेहतर बनाता है

नीत्शे का कहना था कि साहस, हौसला और आकांक्षा ही किसी व्यक्ति को बेहतर बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। तब अमेरिकी समाज पर नीत्शे के प्रभाव का अनुमान लगाया गया। हालांकि साक्ष्य इसके उलट रहे। बीते एक दशक के कई सर्वेक्षण पुष्टि करते हैं कि दुनिया में सबसे आधुनिक देश माने जाने वाले अमेरिका में धार्मिक आस्था खासी मजबूत बनी हुई है। करीब 60 से 85 फीसद अमेरिकी धर्म को बहुत महत्व देते हैं। यह नीत्शे के अनुमान के एकदम उलट है।

अमेरिकी फिल्मों में देश की धार्मिक आस्था प्रतिबिंबित होती है

ऐसे में किसी को हैरानी हो सकती है कि दुनिया के सबसे आधुनिक देश को भी आखिर धर्म का सहारा क्यों चाहिए? भारत में भी कुछ यही रुझान दिखता है। तमाम लोग मानते हैं कि आर्थिक विकास के साथ धर्म की आभा फीकी पड़ती है। हालांकि अमेरिका के मामले में ऐसा नहीं लगता। अमेरिकी फिल्मों में भी देश की धार्मिक आस्था प्रतिबिंबित होती है। अतीत में हुए तमाम शोध-अध्ययन बताते हैं कि फिल्में अमेरिकी संस्कृति का एक प्रभावी पहलू हैं। हाल में देखा गया है कि ईसाई धर्म पर आधारित फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर भी भारी कमाई की। इससे यही जाहिर होता है कि या तो वहां प्रभावी धर्म यानी ईसाइयत के माध्यम से सामाजिक मूल्यों के प्रवर्तन में दिलचस्पी बढ़ी है या फिर सामान्य लोगों की ईसाइयत को लेकर अभिरुचि में वृद्धि हुई है।

सबसे पहले मैं एक ईसाई हूं, फिर परंपरावादी और आखिर में रिपब्लिकन

अधिकांश अमेरिकी मानते हैं कि वे अपने समाज में धर्म को उचित स्थान दिलाएं। जब माइक पेंस अमेरिकी उपराष्ट्रपति बने तो उनके एक बयान ने सुर्खियां बटोरीं जिसमें धर्म की अहमियत स्पष्ट रूप से दिखती है। पेंस ने कहा था, ‘सबसे पहले मैं एक ईसाई हूं, फिर परंपरावादी और आखिर में रिपब्लिकन।’ पहले से प्रभावी धर्म के रूप में ईसाइयत अमेरिकियों के जीवन में अहम है जो हमें हॉलीवुड फिल्मों में दिखता भी है।

बॉलीवुड पर हिंदू धर्म की छाप

इसे देखते हुए भारत में पहले से प्रभावी धर्म (हिंदू) के भारतीय समाज और बॉलीवुड पर उसकी छाप की पड़ताल खासी दिलचस्प होगी। इसके लिए तमाम पुरानी फिल्मों को याद किया जा सकता है जिनमें दर्शकों की आस्था को चुनौती देने के साथ ही भगवान की शरण में जाने वाले दृश्य भी थे। ऐसी फिल्मों का अंत अमूमन आस्था और अच्छे मूल्यों की पुनर्स्थापना के साथ होता। इसमें ‘दीवार’ फिल्म में ईश्वर के साथ अमिताभ बच्चन के संवाद का यादगार दृश्य हो या फिर तमाम फिल्मों में अदालती कार्यवाही के दौरान गीता पर हाथ रखकर गवाही देने वाते दृश्य याद आते हैं।

बॉलीवुड फिल्मों में हिंदू धर्म की गिरावट

बहरहाल इसकी व्यापक पड़ताल के लिए मैंने और मेरी शोध टीम ने 1960, 1970, 1980, 1990, 2000 और 2010 के दशक की पचास-पचास फिल्में चुनीं। इसमें सामने आया कि 1960 के दशक की शीर्ष फिल्मों में से तकरीबन 68 प्रतिशत में भगवान से जुड़ा कोई न कोई संदर्भ अवश्य रहा। इनमें या तो भगवान से मनुहार की गई या फिर उनसे रोष व्यक्त किया गया। 1970 में 62 प्रतिशत के साथ यह आंकड़ा लगभग स्थिर रहा। फिर 1980 के दशक में यह 60 प्रतिशत पर पहुंचा, लेकिन 1990 के दशक में इसमें बहुत तेजी से गिरावट आई और यह 42 प्रतिशत पर आ गया। फिर 2000 के दशक में यह और गिरकर 20 प्रतिशत हो गया और 2010 के दशक में तो महज 12 प्रतिशत पर आकर ठिठक गया। साथ ही साथ इस दौरान बॉलीवुड फिल्मों में हिंदू धर्म की कड़ी आलोचना भी की गई।

क्या बॉलीवुड भारतीय समाज में धर्म के महत्व की जानबूझकर अनदेखी करता है

तब यह समाज को कैसे प्रभावित करता है? इसके समाज पर प्रभाव की पड़ताल के लिए हमने एक प्रयोग किया। यह प्रयोग सौ एकाएक चुने गए विषयों को लेकर 21 से 25 वर्ष आयुवर्ग को आधार बनाकर किया गया। हमने किसी खास बॉलीवुड फिल्म को देखने से पहले और देखने के बाद लोगों की धार्मिकता का जायजा लिया। हमने पाया कि इसमें लोगों की धार्मिकता के स्तर में वृद्धि या कमी देखने को मिली। इस परिप्रेक्ष्य में रणनीतिक स्तर पर हमें 1960 और 1970 के दशक में तमिल फिल्मों के प्रभाव की पड़ताल भी अवश्य करनी चाहिए जिन्होंने भाषा, राष्ट्र और समाज के बारे में तमिलों के नजरिये को आकार देने में अहम भूमिका निभाई। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इस बात पर हैरानी ही होती है कि क्या बॉलीवुड भारतीय समाज में धर्म के महत्व की जानबूझकर अनदेखी करता है।

भारतीय समाज की सामर्थ्य एवं सफलता आस्था के इर्दगिर्द घूमती है

भारतीय समाज की सामर्थ्य एवं सफलता आस्था के इर्दगिर्द घूमती है। मिसाल के तौर पर क्या हमें लगता है कि हमारे पास कानून एवं व्यवस्था का अचूक तंत्र या त्वरित न्याय करने वाली प्रणाली है? अगर इसका जवाब ‘नहीं’ है तब हमारी इतनी बड़ी आबादी व्यापक रूप से शांतिप्रिय और नैतिकता से ओतप्रोत कैसे है? यह संभवत: उन मूल्यों के कारण ही है जो भारतीयों में मजबूत आध्यात्मिक जड़ों से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जो शायद कानून की किताब और आइपीसी जैसी जटिल चीजों को नहीं समझते, परंतु अपने दृढ़ मूल्यों के कारण उपद्रव या कुटिलता से बचते हैं।

बॉलीवुड अतीत की तुलना में आस्था को अब उतना महत्व नहीं देता

हालांकि बॉलीवुड अतीत की तुलना में आस्था को अब उतना महत्व नहीं देता, बल्कि उसका उपहास ही अधिक उड़ाता है। इससे भारत में आस्था की विकृत व्याख्या का जोखिम बढ़ा है और तमाम स्वयंभू इसका फायदा उठाते हैं। इस तरह हम शायद उस स्थिति से परे जा चुके हैं जिसमें धर्म का ऐसा महिमामंडन होता जो हमारे मूल्यों को संरक्षित करता था। उसके उलट अब ऐसी स्थितियों से दो-चार हो रहे हैं जहां धर्म को नुकसान पहुंचाकर हमारी उन पोषित परंपराओं को कमजोर किया जा रहा है जिनके महत्व की भारतीय समाज में व्यापक स्वीकृति रही। इस दौर में हमें धर्मांधता से बचते हुए धर्म के शाश्वत मूल्यों और उसकी भली परंपराओं का लाभ उठाना चाहिए।

( लेखक भारतीय प्रबंध संस्थान, रोहतक के निदेशक हैं )