एनके सिंह। गुरुवार को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी संसद में भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान की रिहाई का एलान किया। इससे पहले पाकिस्तान ने भारत के साथ सौदेबाजी की जो कोशिश की थी वह उसके मानसिक दिवालियेपन का ही परिचायक था। इसमें पाकिस्तान न सिर्फ जेनेवा कन्वेंशन की अनदेखी कर रहा था, बल्कि यह भी भूल रहा था कि 1971 में हमने कैसे उसके नब्बे हजार से अधिक सैनिक उसे सौंप दिए थे।

पुलवामा हमले के बाद भारत की जवाबी कार्रवाई पर पाकिस्तानी दुस्साहस के बाद सामने आए इस मामले के साथ ही सब कुछ सहज नहीं होने वाला। छल-कपट पाकिस्तान का चरित्र और स्वभाव है तो आतंक उसका उपकरण। बीते कई दशकों से वह भारत में आतंकी गतिविधियों को प्रायोजित करता आ रहा है। इससे निपटने में भारत का रवैया भी रक्षात्मक रहा है, लेकिन मोदी सरकार में यह रुख बदला है।

पहले उरी में सर्जिकल स्ट्राइक और अब बालाकोट में हवाई हमले के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि भारत के पास सभी विकल्प खुले हैं। सरकार का रवैया सैन्य मोर्चे पर ही आक्रामक नहीं, बल्कि उसकी सोच में भी परिवर्तन दिख रहा है। बालाकोट कार्रवाई के बाद विदेश मंत्रलय के बयान में यह जाहिर भी हुआ जब पहली बार ‘जिहादी’ शब्द का जिक्र किया गया, जबकि पूर्ववर्ती सरकार इसके उल्लेख से कन्नी काटती रहीं, क्योंकि इससे उन्हें एक तबके के कुपित होने की आशंका सताती थी।

ऐसे में पाकिस्तानी आतंकवाद को ‘नॉन स्टेट एक्टर’ जैसे आवरण से ढंकने का प्रयास होता था। मोदी सरकार ने यह परिपाटी तोड़ते हुए जो इच्छाशक्ति दिखाई है उससे पाकिस्तान आज हर मोर्चे पर असहाय दिखता है। मगर उसके चरित्र को देखते हुए नहीं लगता कि वह अपनी हरकतों से बाज आएगा। इसके लिए उसके असली स्वरूप को समझना बेहद जरूरी है।

मैं कई बार पाकिस्तान गया हूं। एक बार कराची में पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल ने मुङो रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। मुख्य द्वार से उनके बंगले की दूरी करीब एक किलोमीटर थी और बंगले की सजावट किसी महल के माफिक थी। ऐसे ठाट-बाट कहां से आते हैं? पाकिस्तानी सेना करीब तीन दर्जन से अधिक वाणिज्यिक गतिविधियां संचालित करती है और भ्रष्टाचार एवं अय्याशी का पर्याय बनी हुई है। जिहादी संगठनों को पालना उसके अस्तित्व और ‘चुनी हुई’ सरकार पर नियंत्रण के लिए जरूरी है।

पाकिस्तानी समाज को अशिक्षित, अतार्किक और विकासशून्यता की स्थिति में रखना उनकी नीति है ताकि धर्म के नाम पर एक विकृत मानसिकता कायम रख उसका दोहन किया जा सके। पाकिस्तान अपने जीडीपी का 3.8 प्रतिशत सेना पर ही खर्च करता है, जबकि जीडीपी के पैमाने पर भारत इसका आधा ही खर्च करता है, फिर भी पाकिस्तान सेना अपनी क्षमताओं से जगहंसाई ही कराती आई है।

इसमें चाहे भारत के साथ हुए युद्ध हों या हाल में बालाकोट हमला। स्पष्ट है कि सेना के संसाधनों को वहां फौजी हुक्मरान अपने ऐशो-आराम पर खर्च करते हैं और भारत से सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते तो आतंकवाद को पोषित करते हैं। यह भी एक विडंबना है कि पाकिस्तान खुद को आतंक पीड़ित देश बताकर इससे लड़ाई के नाम पर दुनिया से उगाही करता है। इससे मिली अधिकांश रकम को भी वह भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों में ही इस्तेमाल करता है।

एक उदाहरण से पाकिस्तान के इस ‘डीप स्टेट’ और उससे निपटने में जुटी भारतीय खुफिया एजेंसियों की तैयारी को समझ सकते हैं। यह 2008 के आसपास की बात है। खुफिया एजेंसी में मेरे परिचित अधिकारी अचानक मुझसे मिलने दफ्तर आए और पूछा कि पाकिस्तान से आया कोई अमुक व्यक्ति क्या आपके चैनल का मेहमान है? मैंने कहा कि हां और पाकिस्तान में उनकी मेहमाननवाजी का जिक्र भी किया कि वह एक पाकिस्तानी अखबार के संपादक हैं।

मैंने बताया कि हम चाहते हैं कि वह हमारे स्टूडियो में पाकिस्तान से जुड़े मसलों पर चर्चा करें। इस जवाब से उक्त अधिकारी के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान तैर गई। हैरानी के साथ मैंने पूछा कि आखिर क्या बात है? उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘यह साहब दोबारा कभी भारत आएं तो इन्हें अपना मेहमान मत बनाइएगा।’

मैंने लगभग घबराते हुए पूछा कि क्या गड़बड़ हुई? इस पर उन्होंने कहा, ‘जब यह जनाब कराची से चले थे तो आइएसआइ मुख्यालय में इनकी चार घंटे ब्रीफिंग हुई और अमुक नंबर की कार से इन्हें कराची हवाई अड्डे छोड़ा गया था।’ मैंने उत्सुकतावश पूछा कि क्या भारतीय एजेंसियों की पाकिस्तान में इस स्तर तक पहुंच हो गई है कि ऐसी जानकारियां जुटाई जा सकती हैं? इस पर अधिकारी ने हंसते हुए कहा, ‘हमें तो यह भी मालूम है कि वह आइएसआइ का कौन-सा संदेश किस-किस के लिए लाया है और हम उसके मंसूबे सफल नहीं होने देंगे।’

मुझे हमारी एजेंसियों की पेशेवर दक्षता पर गर्व हुआ। असल में जब आपका शत्रु पाकिस्तान जैसा ढीठ देश हो तो ऐसी सजगता बेहद जरूरी हो जाती है। यह हमारी खुफिया एजेंसियों के अलावा इजरायल और अमेरिका जैसे देशों के सहयोग का ही कमाल था कि बालाकोट में जैश के ठिकानों की इतनी सटीक जानकारी मिल सकी। उन्हें मालूम है कि आतंकी रंगरूटों की भर्ती के लिहाज के पाकिस्तान के कौन-कौन से इलाके कितने संवेदनशील हैं।

धर्म की आड़ में उन्हें बरगलाकर विश्वास दिलाया जाता है कि वे सौभाग्यशाली हैं जो अल्लाह ने अपने काम के लिए उन्हें चुना है। करीब दो साल की कड़ी प्रक्रिया के दौरान उन्हें सख्त शारीरिक प्रशिक्षण के साथ ही हथियार चलाने और बम बनाना सिखाया जाता है। पाकिस्तान में आतंक एक कुटीर उद्योग बन चुका है। यहीं से आत्मघाती हमलावर निकलते हैं।

ऐसे में जब दुश्मन छुपकर वार करने वाला हो तो उसकी हर एक गतिविधि पर नजर रखना अपरिहार्य हो जाता है और हमारी खुफिया एजेंसियां इसी मकसद में लगी हैं। जो लोग खुफिया तंत्र की कार्यप्रणाली से वाकिफ नहीं वे सवाल उठा सकते हैं कि यदि इतनी जानकारी थी तो मुंबई और पुलवामा जैसे हमलों को क्यों नहीं रोका गया। इसके दो कारण हैं।

एक यही कि खुफिया जानकारी चाहे कितनी भी पुख्ता हो, अगर दुश्मन हमला करना चाहे तो रास्ता निकाल लेता है। दूसरा यही कि जब दुश्मन देश की एक बड़ी आबादी का ब्रेनवॉश कर उन्हें फिदायीन बना दे तो यह और भी मुश्किल हो जाता है। भारत की लंबी सीमा रेखा से भी यह चुनौती बढ़ जाती है। तीसरी दिक्कत कश्मीर जैसी जगह पर दुश्मन को मिलने वाली मदद भी है, क्योंकि स्थानीय वर्ग मजहबी आधार या आर्थिक लोभ में उनकी मदद करता है या फिर आतंकी भयादोहन से अपने हित साधते हैं।

भारत ही नहीं आज पूरा विश्व आतंक से परेशान है और इस आतंक का सबसे बड़ा स्नोत पाकिस्तान है। भारत दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकत है। वैश्विक मंचों पर उसकी आवाज सुनी और मानी जा रही है। ऐसे में यह सही समय है कि वैश्विक समुदाय को साथ लेकर पाकिस्तान में आतंक के फन पर निर्णायक हमला किया जाए ताकि वह फिर से सिर न उठा पाए।

 

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)