[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: भारत की दलगत राजनीति में ऐसा बहुत कुछ होता रहता है, जिसे नीति के अंतर्गत समाहित कर पाना किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं। परिपक्व होते हुए भी वह बहुत कुछ समझ नहीं पाता। ऐसी स्थिति का एक और उदहारण पिछले दिनों पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह द्वारा नए जिले मलेरकोटला के गठन रूप में आया। बीते दस साल में देश में लगभग 125 नए जिले बने हैं। विकास के लिए इनका बनना आवश्यक पाया गया था, लेकिन जब नया जिला ईद के तोहफे के तौर पर परोसा जाएगा और वह पंजाब का सबसे अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाला जिला बनेगा तो जाहिर है कि इसमें विकास की बात ओझल हो ही जाएगी। अमरिंदर सिंह और कांग्रेस इसे भविष्य के लिए तुरुपचाल मानकर प्रसन्न होगी। इसे उन सारे प्रयासों से जोड़कर भी देखा जाएगा, जो केरल के मल्लापुरम को जून 1969 में अलग जिला बनाकर आगे बढ़ाए गए थे। केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए भारत के मुस्लिम समुदाय के सामूहीकरण की रणनीति पांच दशक तक केंद्र में सत्तारूढ़ रहे दल ने लगातार चलाई। सिर्फ वोट की खातिर उसने मुस्लिम समुदाय को एकजुट बनाए रखने के लिए अनगिनत परियोजनाएं बनाईं। इसी वजह से इतने वर्षों में इस समुदाय की शैक्षिक और र्आिथक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।

मद्रास उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय जिस पर नहीं हुई चर्चा 

मलेरकोटला को जिला बनाए जाने के आसपास ही मद्रास उच्च न्यायालय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय आया, जिस पर देश में कोई चर्चा नहीं हुई। तमिलनाडु के पेरांबलुर जिले के कलातुर गांव के तीन मंदिरों में हिंदू त्योहार 2011 तक मनाए जाते रहे। बाद के वर्षों में वहां के मुस्लिम समुदाय को यह खटकने लगा। अंतत: वह इसे उच्च न्यायालय तक ले गया। उसका कहना था कि चूंकि इस्लाम में मूर्ति पूजा अस्वीकार्य है, अत: मुस्लिम-बहुल इलाके में ये त्योहार पूरी तरह बंद किए जाएं। शुक्र है न्यायालय ने संविधान-सम्मत निर्णय दिया, मगर यदि वह इस विभाजनकारी सोच को स्वीकार कर लेता तो परिणाम क्या होता? यदि ऐसा ही वाद हिंदुओं ने दायर किया होता तो उन लोगों की नींद तुरंत टूट जाती, जो बहुसंख्यक समाज में सांप्रदायिकता ढूंढ़ने में ही सारा समय लगते रहते हैं। बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों से कलातुर जैसे सोच से जुड़ी घटनाएं लगातार हो रही हैं, लेकिन राज्य सरकार उनसे अनजान होने का दिखावा कर रही है। इसका विध्वंसक रूप सामने आएगा।

भारत की राजनीति मुस्लिम समुदाय को वोट के लिए एकजुट करने तक सिमट गई

भारत की वह प्राचीन संस्कृति, जो इस्लाम के आने के पहले से यहां विद्यमान थी, उसमें रचे-पगे अधिकांश लोग मूर्ति पूजक हैं, लेकिन वे यह मांग नहीं करते कि पांच वक्त की अजान से मेरे देवी-देवताओं का अपमान होता है, अत: इसे बंद किया जाए। पूर्वाग्रहों से बाहर न निकल पाने वाले विद्वानों से हटकर भी समाज के अपने उत्तरदायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। उसे लगातार ऐसी घटनाओं पर निगाह रखनी चहिए। जब मौलाना आजाद को मेवात क्षेत्र से 1957 में कांग्रेस ने चुनाव टिकट दिया तो उसकी आलोचना हुई थी। मौलाना राष्ट्रीय नेता थे। उन्हेंं मुस्लिम आबादी की उपस्थिति को ध्यान में रखकर चुनाव लड़ाना मूल्य-आधारित राजनीति नहीं थी। उसके बाद तो हर गांव-चौपाल से लेकर संसद तक हिंदू-मुस्लिम अलगाव के सुनियोजित प्रयास अपनी जड़ें जमाते गए। लिहाजा भारत की राजनीति मुस्लिम समुदाय को वोट के लिए एकजुट करने तक सिमट गई।

हिंदू-मुस्लिम समुदायों में बढ़ता हुआ अविश्वास और दूरियां

यदि हज के लिए सब्सिडी देना सेक्युलर माना जाएगा, इमामों को भत्ता देना मुस्लिम समाज की उन्नति का गैर-सांप्रदायिक नवाचार कहा जाएगा तो इस पर प्रतिक्रिया होगी। परिणामस्वरूप दोनों समुदायों के बीच दूरियां और अविश्वास बढ़ेगा। राजनीति करने के लिए किसी दल या वर्ग को लगातार सांप्रदायिक कहते रहने से सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकेगा। जब प्रधानमंत्री यह घोषणा करेंगे कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिम समुदाय का है तो अन्य समुदाय तो यही मानेंगे कि उनकी अनदेखी हो रही है। इस वक्तव्य से मुस्लिम समुदाय को कोई लाभ हुआ हो, ऐसा दिखाई नहीं देता, लेकिन दोनों बड़े समुदायों में बढ़ता हुआ अविश्वास और दूरियां सभी ने देखी हैं।

देश में सद्भाव बढ़ाने के लिए ईमानदारी से गैर-राजनीतिक प्रयास करने होंगे

स्वतंत्रता के बाद दोनों समुदायों के बीच नियोजित ढंग से बढ़ाए गए भेदभाव को मिटाने और देश में सद्भाव बढ़ाने के लिए ईमानदारी से गैर-राजनीतिक प्रयास करने होंगे। यदि कलातुर निर्णय पर मुस्लिम समुदाय के वरिष्ठ विद्वतजन आगे आकर अपना मत देते तो दोनों समुदायों के पारस्परिक संबंधों में सकारात्मकता अवश्य बढ़ती। यह निर्णय भी करना होगा कि देश का हर बच्चा शिक्षा के मूल अधिकार अधिनियम के अंतर्गत आए और इसमें अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का अंतर नहीं हो। साथ ही वह एक राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत पाठ्यक्रम अनिवार्य रूप से पढ़े। इसके अतिरिक्त वह धार्मिक या दीनी शिक्षा कहीं भी ले, मगर उसमें कोई भी ऐसा अंश नहीं हो, जो सभी पंथों की बराबरी के विरुद्ध हो। यह स्वीकार्य नहीं हो सकता कि मेरा मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है, अन्य सभी अंधेरे में भटक रहे हैं और मुझे अपनी श्रेष्ठता के कारण उनका उद्धार करना है।

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी इतिहास 

इजरायल में केरल की नर्स सौम्या संतोष की हमास के हमले में दुखद मौत पर एक बड़े नेता ने संवेदना संदेश इंटरनेट मीडिया में दिया, मगर बाद में इसे हटा लिया। यह कैसी मानसिकता है? देश में क्या केवल चुनाव ही जनतंत्र का पर्याय बन गए हैं? क्या सामाजिक सद्भाव को ठोस आधार देना अब राजनेताओं का उत्तरदायित्व नहीं रह गया है? रामधारी सिंह दिनकर यह लिखकर बहुत पहले रास्ता दिखा गए थे-जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी इतिहास।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )