यह संयोग नहीं कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से किसी चर्चित शोध, अध्ययन, आविष्कार या लेखन संबंधी कोई समाचार सुनने को नहीं मिलता। साहित्य, कला, खेलकूद, रंगमंच या नीति, कूटनीति निर्माण में भी वहां से कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं मिला। यहां तक कि वहां से कोई जानी-मानी शोध पत्रिका या सामान्य विद्वत पत्रिका तक प्रकाशित नहीं हो सकी जिसे कोई अध्येता पढऩा आवश्यक समझे। यह स्थिति तब है जब वह देश भर में केंद्र सरकार से प्रति छात्र और प्रति अध्यापक सर्वाधिक अनुदान पाने वाला विश्वविद्यालय है। कितनी शर्मनाक बात है कि कुछ पहले एक बार जब एक संवाददाता ने जेएनयू की चार दशक की उपलब्धियों के बारे में पूछा तो वहां के बड़े अधिकारी का उत्तर था कि अब तक सिविल सर्विस में इतने छात्र वहां से चुने गए। वे कोई और उपलब्धि नहीं गिना पाए। क्या इसीलिए वह विश्वविद्यालय बना था कि वहां सिविल सर्विस की तैयारी या विभाजक और तरह-तरह की रेडिकल राजनीतिबाजी के आरामदेह अड्डे बनें।

वस्तुत: यह दोनों बातें ज्ञान-चिंतन में योगदान का अभाव और राजनीतिबाजी एक दूसरे की पूरक हैं। दोनों मिलकर एक दुष्चक्र बनाते हैं। जेएनयू में राजनीतिक एक्टिविज्म कक्षा से बाहर नहीं, समाज विज्ञान और मानविकी विषयों के सिलेबस और पाठ्यसूची में भी है। यही कारण है कि वहां हर तरह के रेडिकलिज्म को फौरन जमीन मिल जाती है। संसद पर हमला करने वाले जिहादी आतंकवादी को हीरो बनाना उसी परंपरा की नवीनतम कड़ी है। इससे पहले लोकसभा चुनाव दौरान समाचार आए थे कि जेएनयू से छात्र और प्रोफेसर दल बनाकर बनारस में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध प्रचार करने गए थे। यह किस प्रकार की शैक्षिक गतिविधि है जिस पर भारतीय जनता के टैक्स का करोड़ों रुपया प्रति वर्ष बर्बाद किया जाता है।

एक ओर जेएनयू में हर तरह के देशी-विदेशी भारत निंदकों को सम्मानपूर्वक मंच मिलता है, किंतु दूसरी ओर देश के गृहमंत्री (पी. चिदंबरम) को बोलने नहीं दिया जाता। यहां तक कि उन के आगमन के विरुद्ध आंदोलन होता है। यह कोई नई बात नहीं। पैंतीस वर्ष पहले वहां देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी बोलने नहीं दिया गया, जबकि लेनिन, स्टालिन, माओ और यासिर अराफात के लिए प्रोफेसर और छात्र मिलकर आहें भरते थे। जिन्होंने इंदिरा गांधी को जेएनयू कैंपस आने से सफलतापूर्वक रोका उनमें कई आज वहां प्रोफेसर नियुक्त हैं। अत: जेएनयू में भारत विरोधी, हिंदू विरोधी राजनीति कोई अभिव्यक्ति स्वंतत्रता का मामला नहीं, क्योंकि वहां देशभक्त स्वरों को वही अभिव्यक्ति अधिकार नहीं मिलते। न ही उनकी नियुक्ति होने दी जाती है। यह एक संगठित अकादमिक-राजनीतिक षड्यंत्र है, जो दशकों से जारी रहकर ऐसी जड़ जमा चुका है कि सरसरी तौर पहचाना नहीं जा सकता। सारी जबर्दस्ती अकादमिक लबादे में होती है। यदि वहां चलती रही गतिविधियों की जांच हो तब पता चलेगा कि क्यों इसी विशेष कैंपस में हर प्रकार की घातक राजनीति को पनाह मिली है।

पुराने वामपंथी प्रोफेसरों ने वहां राजनीतिक प्रोपेगंडा को अकादमिक योगदान में बदल कर रख दिया। देश भर से आने वाले भोले-भाले, अबोध युवा यह नहीं समझ पाते। वे समाज विभाजक, देश विरोधी प्रोपेगंडा से सजे सिलेबस, साहित्य आदि को उच्च शिक्षा मानकर आत्मसात कर लेते हैं। यह है वहां विषबेल फैलने का एक रहस्य। पुराने वामपंथी प्रोफेसरों का रिकॉर्ड भी इसे दर्शाता है। सच तो यह है कि जेएनयू में सिविल सर्विस आकांक्षियों को मिलने वाली लाजबाव सुविधाएं और रेडिकलिज्म के फैशन से कड़वी सच्चाई छिपी रही है कि उपलब्धि के नाम पर उन नामी प्रोफेसरों के पास भी कहने के लिए कुछ नहीं। अभी-अभी पुरातत्ववेत्ता केके मुहम्मद की आत्मकथा से भी पुष्टि हुई है कि जेएनयू के माक्र्सवादी इतिहास प्रोफेसरों ने देश की कितनी गहरी हानि की। हमारे देश के स्वार्थी, अज्ञानी नेताओं की गैर-जिम्मेदारी के कारण यह सब छिपा रहा है, क्योंकि सेक्युलरिज्म के नाम पर वे हर तरह की देशद्रोही, हिंदू विरोधी सक्रियता को सहयोगी बना लेते हैं। इसीलिए जेएनयू कभी जांच-पड़ताल का विषय नहीं बनता, जबकि समाज विज्ञान और मानविकी विषयों के मद में वहां होने वाला अतुलनीय खर्च अधिकांश नकली या हानिकारक कार्यों में जाता है। अधिकांश प्रोफेसर अपने शोधार्थियों के नकली काम को इसलिए तरजीह देते हैं कि वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं या उनके विचारों वाले एक्टिस्ट हैं। उस निरर्थकता को प्रोफेसर जान-बूझकर नजरअंदाज करते हैं ताकि कथित शोधार्थियों को साल दर साल हॉस्टल की सुविधा मिलती रहे। इस प्रकार प्रति छात्र जो लाखों रुपये शोध अध्ययन करने के नाम पर खर्च हुए वह सीधे पानी में जाते हैं। अधिकांश प्रोफेसरों की हालत भी लगभग समानांतर है। कई तो राजनीतिक सरगर्मियों में ही अधिक समय देते हैं। कुछ अन्य खानापूरी करते हैं। जेएनयू के सबसे प्रसिद्ध इतिहास प्रोफेसर ही इसके अच्छे उदाहरण हैं। उनके संपूर्ण लेखन का सार-संक्षेप दो-चार पृष्ठों में लिखा जा सकता है, क्योंकि उनमें किसी ज्ञान, शोध के बजाय राजनीतिक संदेश की केंद्रीयता रही है जो अत्यंत सीमित है।

यह विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा की आड़ में युवाओं के लिए मुख्यत: नौकरी की खोज या वामपंथी राजनीति में कॅरियर बनाने वालों का अड्डा भर रहा है। नौकरी की खोज यहां का प्रमुख सेक्युलर कार्य है तो हिंदू विरोधी राजनीति प्रमुख मजहबी कार्य। इन्हीं दो कार्यों को वहां पारंपरिक ढांचागत समर्थन मिलता है। हिंदू विरोधी, सरकार विरोधी और प्राय: देश विरोधी राजनीति का समर्थन। विडंबना यह कि यह सब करने के लिए सारा धन उसी हिंदू जनता, सरकार और देश से लिया जाता है। इस प्रकार सर्वाधिक संसाधन युक्त इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षा पूरी तरह दिखावटी काम में बदल कर रह गई है। यह भी एक स्कैम है, एक अपराध। जिस उद्देश्य से जेएनयू की स्थापना हुई थी वह बहुत पहले कहीं छूट गया। बल्कि उस उद्देश्य से वहां कार्य का आरंभ ही नहीं हुआ। इसीलिए जब भी जेएनयू की चर्चा होती है तो गलत कारणों से।

[लेखक एस. शंकर, बड़ौदा के महाराजा सायाजी राव विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं]