डा. अजय खेमरिया : इस समय देश में सरकारी कार्मिकों के लिए पुरानी पेंशन का मुद्दा खूब छाया हुआ है। गले तक कर्ज में डूबे पंजाब ने अपने 1.60 लाख कार्मिकों के लिए राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली यानी एनपीएस के स्थान पर पुरानी पेंशन बहाली के लिए कदम बढ़ाए हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड पहले ही एनपीएस को अपने यहां बंद कर 1972 की पेंशन योजना को बहाल करने की घोषणा कर चुके हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी वित्त विभाग को इस मामले का परीक्षण करने के लिए कहा है। गुजरात में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अपने वादों में इसे दोहरा रही हैं। स्पष्ट है पुरानी पेंशन का मुद्दा एक चुनावी हथकंडा बन गया है और इसकी बहाली में राजनीतिक दल सत्ता की चाबी देख रहे हैं। वे यह जानते-समझते हुए भी ऐसा कर रहे हैं कि पुरानी पेंशन देना आर्थिक रूप से एक जोखिमपूर्ण नीति है। यह भी एक तरह की ‘रेवड़ी संस्कृति’ ही है, जिसका सामाजिक न्याय या सुरक्षा के साथ कोई तार्किक संबंध नहीं है।

2004 में वाजपेयी सरकार ने 1972 के पेंशन उपबंधों के स्थान पर भागीदारी केंद्रित एनपीएस योजना को आकार दिया था, जिसे बाद में संप्रग सरकार ने भी सशक्त बनाया। बंगाल को छोड़कर सभी राज्यों ने इसे अपने यहां लागू किया और आज भी सभी राज्यों एवं केंद्र के कार्मिकों के लिए यह लागू है। पुरानी पेंशन असल में पिछली सदी के आठवें दशक की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की मांग पर निर्भर थी। यह सेवानिवृत्ति के समय अंतिम वेतन पर 50 प्रतिशत रकम को पेंशन के रूप में निर्धारित करती थी।

यह वह दौर था, जब वेतन आज की तरह ऊंचे नहीं थे। औसत आयु भी कम थी। इसमें कर्मचारियों को सीधे कुछ भी नहीं देना होता था, जबकि एनपीएस में उन्हें 10 प्रतिशत का अंशदान देना होता है। सरकार भी 14 प्रतिशत जमा करके पेंशन फंड में अपना योगदान देती है। इस एनपीएस के स्थान पर कर्मचारियों द्वारा पुरानी पेंशन को बहाल करने के लिए संगठित रूप से देश भर में दबाव बनाया जा रहा है। सरकार में बैठे और सत्ता में आने को आतुर राजनीतिक दलों को लगता है कि कर्मचारियों के थोक वोट बैंक से उनकी किस्मत खुल सकती है, इसलिए वे इस योजना के दुष्परिणामों से वाकिफ होने के बावजूद आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि हर राजनीतिक दल को लगता है कि उसकी घोषणा से उसके राज्य में तत्काल आर्थिक संकट खड़ा नहीं होगा। इस स्थिति में 10 से 15 वर्ष लगेंगे।

वस्तुतः पुरानी पेंशन उस समाजवादी सोच की उपज रही, जिसने राज्य की अवधारणा में नागरिकों को राज्य पर आश्रित बनाकर रखना चाहा। आज भारत समाजवाद से आगे वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में अपनी जगह बना रहा है। 1991 के बाद से जिन आर्थिक नीतियों पर देश आगे बढ़ा है, वहां पुरानी पेंशन जैसे प्रकल्प स्वीकार नहीं हैं। ऐसे में पुरानी पेंशन का बोझ करदाताओं के साथ अन्याय तो है ही, साथ ही इससे लोकधन के समावेशी वितरण पर भी सवाल उठता है।

सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनमी के मुताबिक राज्यों के अपने राजस्व में पेंशन खर्च का हिस्सा तेजी से बढ़ रहा है। यह 1990 तक 8.7 प्रतिशत था और 2020-21 तक बढ़कर करीब 26 प्रतिशत पर आ चुका था। चुनावी लिहाज से अगर राज्य पुरानी पेंशन पर वापस आते हैं तो परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। यह राज्यों की खस्ताहाल वित्तीय स्थिति को और जर्जर कर देगा।

एसबीआइ रिसर्च के आंकड़ों को देखें तो अधिकतर राज्य अपने कुल राजस्व संग्रहण का अधिकांश हिस्सा अपने कार्मिकों के वेतन-भत्तों और पेंशन पर खर्च कर रहे हैं। बिहार कुल राजस्व का 58.9 प्रतिशत, उत्तराखंड 58.3 प्रतिशत, झारखंड 31.5 प्रतिशत और बंगाल 32.8 प्रतिशत हिस्सा सरकारी कार्मिकों पर खर्च कर रहे हैं। जिस राजस्थान ने एनपीएस को खत्म करने का निर्णय लिया है, वहां हालत यह है कि कुल राजस्व के 58 हजार करोड़ रुपये में से 48 हजार करोड़ रुपये वेतन-भत्तों और 19 हजार करोड़ रुपये पेंशन पर खर्च करने पड़ रहे हैं। पंजाब में पिछले पांच वर्ष में 44 प्रतिशत कर्ज बढ़ा है और वह अपने डेढ़ लाख करोड़ रुपये के बजट में से करीब 61 हजार करोड़ रुपये कर्मचारियों के वेतन एवं पेंशन पर खर्च कर रहा है। मध्य प्रदेश में भी करीब 52 प्रतिशत बजट की राशि इसी मद में व्यय की जा रही है। कुल मिलाकर सभी राज्यों की कहानी एक सी ही है। बुनियादी सवाल यह है कि क्या यह सामाजिक-आर्थिक न्याय के नजरिये से उचित है?

देश में करीब 12 करोड़ लोग 60 वर्ष से अधिक आयु के हैं, जिनमें से 90 प्रतिशत को किसी प्रकार की संस्थागत पेंशन नहीं मिलती है। देश में साढ़े पांच करोड़ विधवा महिलाएं हैं, जो अफ्रीका और तंजानिया की कुल आबादी से अधिक हैं। इनमें से अधिकतर आर्थिक सुरक्षा कवच से बाहर हैं। दुरूह सरकारी तंत्र की दया पर इनमें से कुछ को ही 300 से 600 रुपये मासिक पेंशन मिलती है। देश में करीब तीन करोड़ दिव्यांग भी हैं, जिन्हें कमोबेश इसी राशि के समतुल्य पेंशन नसीब होती है। अकेले सरकारी कार्मिकों का 78,60,657 करोड़ रुपये एनपीएस में जमा हैं, जो जीडीपी का करीब 2.4 प्रतिशत है।

चुनावी मुहाने पर खड़े राज्यों को लगता है कि वे पुरानी पेंशन बहाली करने का वादा करके चुनाव जीत सकते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के ताजा उदाहरण सामने हैं, जहां भाजपा को विपक्षी दल इस वादे के बावजूद हरा नहीं पाए। बेहतर होगा केंद्र सरकार की तरह सभी राज्य सरकारें भी इस मांग को राष्ट्रीय हितों के साथ विश्लेषित करने का साहस दिखाएं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि विपक्षी दल इसे एक चुनावी हथियार के रूप में प्रयुक्त करें। राज्यों को यह भी सोचना होगा कि उन्होंने 2004 में इस एनपीएस को अपनाया ही क्यों था? देश में वास्तविक जरूरतमंदों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का कवच कैसे उपलब्ध हो? इस दिशा में चुनावी नहीं, एक सर्वस्पर्शी और समावेशी दृष्टि की आवश्यकता है। यह समझने की जरूरत है कि इस आवश्यकता की पूर्ति पुरानी पेंशन बहाल करने जैसे कदमों से नहीं होने वाली।

(लेखक लोक नीति विश्लेषक हैं)