[ अवधेश कुमार ]: अलीगढ़ के टप्पल में दो साल की बच्ची के साथ हुई हैवानियत से शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसका दिल न पसीजा हो। इस अमानवीय घटना से लोग बुरी तरह आक्रोशित हैं जिसकी अभिव्यक्ति सोशल मीडिया पर देखी जा सकती है। वहीं देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो अमूमन हर बात पर सक्रिय रहता है, लेकिन इस घटना पर शुरुआत में उसने चुप्पी साधे रखी। इसके लिए उन्हें जब आड़े हाथों लिया गया तभी जाकर उनमें से कुछ ने निंदा की औपचारिकता पूरी की। उसी तबके में कुछ लोग ऐसे हैं जो बच्ची के लिए इंसाफ की मुहिम चलाने वालों पर ही मामले को सांप्रदायिक तूल देने के बहाने सामाजिक तानाबाना बिगाड़ने का आरोप लगा रहे हैं। ऐसी उलट प्रतिक्रिया ने लोगों के गुस्से को और उबाल दिया। पुलिस ने कुछ अपराधियों को पकड़ लिया है। उन पर रासुका लगाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक विशेष जांच दल का गठन किया है। उम्मीद करनी चाहिए कि फास्ट ट्रैक अदालत में इन अपराधियों को जल्द ही सजा मिलेगी।

किंतु मामला यहीं खत्म नहीं होता। इसके कुछ पहलू हैं जो सरकार और समाज दोनों के लिए विचारणीय और भविष्य के लिए सचेत करने वाले हैं। इसमें सबसे पहले हमें स्थानीय पुलिस के व्यवहार को देखना होगा। बेशक, पुलिस की भूमिका अपराध के बाद आरंभ होती है, लेकिन वह भूमिका निभाए ही नहीं तो अपराधियों का हौसला बढ़ता है। बच्ची के परिवार की आर्थिक पृष्ठभूमि बहुत अच्छी नहीं है और पैसे लौटाने की बात पर ही यह विवाद शुरू हुआ था। इस पर आरोपी ने देख लेने की धमकी दी और उसने वाकई ऐसा वीभत्स अपराध अंजाम दिया जिसकी दु:स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती। बच्ची 30 मई को गायब हुई। परिवार थाने में रपट लिखवाने गया, लेकिन उन्हें मायूसी ही मिली। किसी तरह 31 मई को गुमशुदगी रिपोर्ट लिखी गई। अगर अपराधियों ने शव अपने घर के आसपास कूड़े में दबाने के बजाय 40-50 किलोमीटर दूर ठिकाने लगाया होता तब क्या होता?

बच्ची का शव मिलने के बाद भी जिस तरह पुलिस को सक्रिय होना चाहिए, वह नहीं हुई। लापरवाही के आरोप में अब इंस्पेक्टर समेत पांच पुलिसकर्मी निलंबित किए गए हैं। निलंबन पुलिस में सामान्य प्रक्रिया है। दो जून को बच्ची का शव आरोपी के घर के बाहर कूड़े के ढेर में मिला। महिला सफाईकर्मी ने कूड़े के ढेर से कपड़े के एक बंडल को कुत्तों को खींचते हुए देखा। उसने शोर मचाया तो लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। कपड़े की गठरी खोलकर देखी गई तो उसमें बच्ची का क्षत-विक्षत शव मिला। सूचना पर पहुंची टप्पल पुलिस शव को पोस्टमार्टम के लिए ले गई। इस रवैये से लोग और भड़क गए, क्योंकि उनका शक यकीन में बदल गया था कि यह किसकी करतूत है और इसके पीछे मानसिकता क्या है। गुस्साए लोग आरोपी जाहिद और उसके परिवार को गिरफ्तार करने की मांग कर रहे थे।

हारकर एसएसपी व अन्य अधिकारियों को डॉग स्क्वॉड के साथ आना पड़ा। खोजी कुत्ता सूंघते हुए कोट मोहल्ला निवासी जाहिद के घर तक पहुंचा। इसके बाद पुलिस ने जाहिद को हिरासत में लिया। उससे पूछताछ के बाद अपराध में उसके भागीदार असलम को गिरफ्तार किया गया। राज्य सरकार को इस पर सोचना होगा कि आखिर इतने कड़े निर्देशों के बावजूद पुलिस का रवैया बदल क्यों नहीं रहा? छोटी बच्चियों के साथ जघन्य अपराधों की घटनाएं लगातार सामने आने के बावजूद उसने इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया? शव मिलने के साथ ही अपराधियों तक पहुंचने के लिए डॉग स्क्वॉड की मदद क्यों नहीं ली? लोग दबाव नहीं डालते तो हो सकता है कि अभी तक अपराधी पकड़ में ही नहीं आते। निलंबन के कोई मायने नहीं है। इन पुलिस कर्मियों के खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए।

अब दूसरे पहलू की बात करते हैं। आखिर इन अपराधियों ने बच्ची को ही बदले के लिए क्यों चुना और उसके साथ ऐसा निर्मम व्यवहार क्यों किया? पुलिस का कहना है कि बदले की भावना से जाहिद ने असलम के साथ मिलकर साजिश रची। शव की हालत इतनी खराब थी कि पोस्टमार्टम करने वाले तीन डॉक्टरों के पैनल के सामने समस्या थी कि वे पोस्टमार्टम कैसे करें? पैनल की राय पर गौर करें तो शव के गलने की स्थिति से उसकी हत्या के साक्ष्य विलुप्त हो चुके थे।

चूंकि मामला देशव्यापी हो गया है तो उसकी हकीकत सामने आनी ही थी। रासुका लगाने का निर्णय भी ऐसे ही नहीं हुआ। स्थानीय लोगों को पता चला कि दोनों ने सांप्रदायिक उन्माद की मानसिकता से ग्रस्त होकर इतनी हैवानियत की। अगर यह सच है तो फिर समस्या इस सोच की है। इस सोच का मुकाबला कैसे किया जाए। इस पर पुलिस-प्रशासन, नेताओं के साथ ही हर समुदाय के विवेकशील लोगों को इस पर विचार करना होगा। ऐसी मानसिकता से अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है।

दुर्भाग्य से जहां बहुसंख्यक समुदाय आरोपी होता है वहां तो देश में खूब हंगामा होता है और पुलिस भी आरंभिक स्तर पर सक्रिय हो जाती है। जहां अल्पसंख्यक समुदाय आरोपी होता है वहां बहुत कुछ स्पष्ट होने के बावजूद न पुलिस जल्दी सक्रिय होती है न स्वयं को सेक्युलर ब्रिगेड का सदस्य मानने वाले एक्टिविस्ट। इस मामले में यह साफ दिख रहा है। हां, आम लोग अवश्य विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, सड़कों पर उतर रहे हैं। मुख्यधारा के मीडिया ने सोशल मीडिया पर आक्रोश और आम जनता के सड़कों पर उतरने के बाद इसका संज्ञान लिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। क्या अपराध का विरोध मजहब देखकर किया जाएगा? ऐसा करके हम भविष्य के लिए कैसे समाज का बीजारोपण कर रहे हैं? इस पर विचार करना होगा।

अगर यह माहौल नहीं होता तो शायद पुलिस भी आरंभ में सक्रिय हो जाती। पुलिस पर भी मनोवैज्ञानिक दबाव होता है कि किसी अल्पसंख्यक को उठाकर पूछताछ की और वह अपराधी नहीं निकला तो देश भर के ये एक्टिविस्ट समस्या पैदा कर देंगे। हो सकता है कुछ नामी वकील सीधे उच्चतम न्यायालय चले जाएं। यह स्थिति भी अपराधियों की मदद करती है। खैर इन एक्टिविस्टों से परे समाज के हर तबके ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है।

कुछ ही घंटे में 70 हजार ट्वीट हो गए और उसके लाखों रीट्वीट होने लगे तो अलीगढ़ पुलिस को पूरी स्थिति साफ करनी पड़ी। उम्मीद है समाज की यह जागरूकता बनी रहेगी। यह अब तक के एकपक्षीय दोहरे चरित्र के एक्टिविज्म से अलग धारा होगी जो न्यायपूर्ण और औचित्यपूर्ण होगी। किंतु घटना घटित होने के बाद की जागरूकता के साथ स्थानीय स्तर पर सर्वत्र सतर्कता और जागरूकता की अधिक आवश्यकता है। इस सोच को खत्म करने के लिए समाज के बीच सक्रियता से काम करना होगा।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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