नई दिल्ली [ गिरीश्वर मिश्र ]। भारत में शिक्षा को एक राम बाण औषधि के रूप में हर मर्ज की दवा मान लिया गया और उसके विस्तार की कोशिश शुरू हो गई बिना यह जाने-बूझे कि इसके अनियंत्रित विस्तार के क्या परिणाम होंगे? सामाजिक परिवर्तन की मुहिम शुरू हुई और भारतीय समाज की प्रकृति को देशज दृष्टि से देखे बिना हस्तक्षेप शुरू हो गए। दुर्भाग्य से ये हस्तक्षेप अंग्रेजी उपनिवेश के विस्तार ही साबित हुए हैं। स्मरणीय है कि भारत की इतिहास-पुष्ट नालंदा और तक्षशिला जैसी विश्वस्तरीय शैक्षिक संस्थाओं, गुरुकुलों, विद्यालयों और गांव-गांव में फैले स्कूलों की श्रृंखला वाली समाज-पोषित शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेजी शासन द्वारा विधिपूर्वक तहस-नहस किया गया। विकसित ज्ञान क्षेत्रों और उनके उपयोग की सारी व्यवस्था को अंग्रेजों ने अपने हित में परे धकेल कर अपने ही घर में विस्थापित कर दिया। उसमें से अपनी पसंद के रुचिकर ज्ञान को जीवन से काट जड़ बना इतिहास को समर्पित कर संग्रहालय की वस्तु बना दिया। यह भारत में शिक्षा के एक शून्य के निर्माण के लिए हुआ ताकि सिरे से शिक्षा का एक नया प्रासाद निर्मित हो। इस शून्य को अपने एजेंडे के अनुसार अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था से भरा गया ताकि शिक्षा का ऐसे नवनिर्माण हो कि अंग्रेजी विचार-पद्धति और ज्ञान भारतीय चिंतन और ज्ञान का स्थान ले ले। भारतीय मानस के कायाकल्प की उनकी योजना सफल भी हुई। अंग्रेजी उपनिवेश के दौरान शिक्षा का जो ढांचा लादा गया वह उपनिवेश उपरांत स्वतंत्र भारत में प्रश्नांकित होने की जगह ठीक ठहराया गया और उसे आंख मूंद कर आत्मसात कर लिया गया।

आधी-अधूरी समझ का नुक्सान

ऐसा भी नहीं था कि असंगतियों-विसंगतियों पर ध्यान नहीं दिया गया। इनकी समीक्षा के लिए विचार-विमर्श हुआ और राधाकृष्णन और कोठारी आयोगों और राममूर्ति समिति आदि के प्रतिवेदनों के माध्यम से बहुत संस्तुतियां भी हुईं। ऐसे विचार अभी भी जारी हैं पर अधिकांश ठंडे बस्ते में हैं। ज्ञान में पश्चिमी वर्चस्व बरकरार है। विभिन्न विषयों में सिद्धांत, अवधारणाएं और विचार पहले यूरोप और बाद में अमेरिका से थोक भाव में आयातित हुए और उन्हीं के खांचे में फिट कर हमने देखना शुरू किया। इस प्रक्रिया में हमारे द्वारा जिस सामाजिक यथार्थ का निर्माण हुआ वह केवल भ्रम का कारण बना और यथार्थ के साथ न्याय नहीं कर सका। देश और काल की सीमाओं को भुलाकर वैज्ञानिकता के घने आवरण में हमारी आधी-अधूरी समझ ने पश्चिमी ज्ञान को ही सार्वभौमिक ज्ञान का दर्जा दिया।

दर्शन, विज्ञान और साहित्य की सारी की सारी भारतीय उपलब्धियां अंधकार में लुप्त होने को अभिशप्त होती चली गईं। हालांकि सरकारी और औपचारिक ज्ञान की श्रेणी से बहिष्कृत होने पर भी लोक जीवन में टूटे, बिखरे और बदले रूपों में उसके अवशेष देखे सुने जा सकते हैं। योग, संगीत, चित्रकला, आयुर्वेद और आध्यात्मिक

ज्ञान के क्षेत्र में उनका बाजार जरूर कुछ चमक रहा है पर ज्ञान की स्वीकृत परिपाटी में उनकी कोई जगह नहीं है। उनकी स्वीकृति अभी भी दोयम या तीसरे दर्जे की ही है। कटु और कठोर वास्तविकता यह है कि ज्ञान-विज्ञान की अपनी परंपरा को अनावश्यक ठहरा कर व्यर्थ बना दिया गया है। वहीं विदेशों के चलन की नकल करते हुए नए-नए विषय शुरू किए जा रहे हैं। ज्ञान की अंधी और मंहगी दौड़ जारी है और गंतव्य का पता नहीं है। भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के जुमलों के बीच हमारी अपनी पहचान और अस्मिता का प्रश्न गौण हो चला है।

अंग्रेजी के वर्चस्व में मौलिकता से दूर

देशज ज्ञान-परंपराओं को संदिग्ध की श्रेणी में डालकर पश्चिमी ज्ञान को प्रासंगिकता और आधुनिकता के कवच से सजाया गया। उसके वर्चस्व को अभेद्य और सुरक्षित बनाया। फलत: यहां का शिक्षा-तरु जड़ों से कटता हुआ सूखने लगा। उसकी जगह जो नया पौधा रोपा गया उसने यहां का जो भी सहज और स्वाभाविक था उसे खारिज कर दिया। अध्ययन की एक नई चाल में ढली पद्धति को आगे बढ़ाया गया जिसमें ज्ञान, मूल्य, चरित्र और संस्कृति जैसे केंद्रीय सरोकारों को संबोधित करने की जगह सारी शैक्षिक प्रक्रिया सतही विमर्श तक सिमटती चली गई। ज्ञान के माध्यम का प्रश्न भी गंभीरता से नहीं लिया गया। आज अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण ज्ञान-सृजन में हम पिछड़ते जा रहे हैं, मौलिकता हमसे दूर जा रही है। ज्ञान की दृष्टि से सरकारी नीति में सिर्फ विज्ञान और प्रौद्योगिकी की चिंता ही प्रमुख है। उसी के लिए सुविधाएं जुटाने का संकल्प होता है। समाज के मानस, संस्कृति और जीवन का दायरा बड़ा है और मानविकी, समाज विज्ञान और कलाओं पर ध्यान ही नहीं जा पाता। प्राच्य विद्या और भाषा आदि तो इस क्रम में कहीं आते ही नहीं। ये सब ‘साफ्ट’ विषय हैं और इनका महत्व सिर्फ सजावट के लिए ही होता है।

उच्च शिक्षा की हमारी दिशाहीन कवायद का घातक परिणाम यथास्थितिवाद, अनुकरण और सृजनात्मकता के भीषण ह्रास के रूप में दिख रहा है। इससे निकले छात्र-छात्राओं की लंबी जमात की कुंठाएं जगजाहिर हैं। उनमें से बहुसंख्यक ज्ञान और प्रशिक्षण की दृष्टि से अपरिपक्व हैं और पात्रता नहीं रखते। जीविका के अवसर भी इतने कम हैं कि उसके लिए मारा- मारी मची है। सारी व्यवस्था को शर्मसार करती आज की स्थिति यह है कि योग्यता से निम्न स्तर के पद के लिए भी हजारों हजार कहीं अधिक योग्य प्रत्याशियों की भीड़ लगी है। दूसरी ओर तमाम पद खाली भी पड़े हैं, क्योंकि उनके लिए योग्य अभ्यर्थी ही नहीं मिल रहे हैं। उच्च शिक्षा में शामिल हो रही भीड़ का अधिकांश तो सिर्फ जीवन का कुछ समय व्यतीत करता है। शिक्षा उनके लिए ‘टाइम पास’ होती है। उनकी मूल रुचि शिक्षा में होती ही नहीं पर विकल्प के अभाव में वे उच्च शिक्षा संस्थानों में जितने दिन हो सकता है, बने रहते हैं।

ज्ञान की गुणवत्ता में हो रहा समझौता

व्यवस्था की दृष्टि से आज उच्च शिक्षा संस्थाओं की स्थिति दयनीय होती जा रही है। इक्के-दुक्के संस्थानों को छोड़ दें तो राजनीति के अखाड़े बनते जा रहे शैक्षिक संस्थान अपनी स्वायत्तता खो रहे हैं। राज्याश्रय के कारण वे सरकारी कार्यालय में तब्दील होते जा रहे हैं। चूंकि शिक्षा का मसला शासन की वरीयता में नहीं है इसलिए उनकी समस्याओं को लेकर उदासीनता बनी हुई है और समस्याएं विकराल होती जा रही है। अध्यापकों का टोटा पड़ा है और निहित स्वार्थ वाले विश्वविद्यालयों को कार्य ही नहीं करने देते। बड़े-छोटे अनेक विश्वविद्यालयों में स्थायी कुलपति ही नहीं हैं और कामचलाऊ व्यवस्था जारी है। विश्वविद्यालयों की गरिमा घटती जा रही है जिसमें निरंतर प्रायोजित होते आयोजनों के चलते अध्ययन-अध्यापन बाधित होता है। छुट्टियों के भी इतने प्रकार हैं कि लोग उनका अनुचित लाभ लेकर कार्य में कोताही बरतते हैं। विधिसम्मत छुट्टियों के बाद पढ़ने के अपेक्षित कार्य दिवस ही नहीं बचते। निरंतर उपेक्षा के चलते विश्वविद्यालयों के स्वभाव और उनकी जरूरतों को समझकर जरूरी कदम उठाने में सालों-साल लग रहे हैं। आज ज्ञान के केंद्रों में थकावट आ रही है, सन्नाटा पसर रहा है या फिर अर्थहीन कोलाहल की धूम मच रही है। उनके मानक घट रहे हैं और उनकी गुणवत्ता के साथ समझौता हो रहा है। विश्वस्तरीय शिक्षा का स्वप्न देखने के साथ जमीनी सच्चाई का आकलन कर सुधार भी बेहद जरूरी हो गया है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीर्य हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)