नई दिल्ली, उदित राज। हाल में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार का एक प्रमुख कारण दलित और आदिवासी समाज की नाराजगी भी नजर आती है और पार्टी के लिए इसकी अनदेखी करना सही नहीं होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने विरोधियों के मुकाबले लगभग नौ फीसद की बढ़त मिली थी, जिसमें से लगभग 4.5 फीसद की बढ़त दलितों, आदिवासियों के कारण थी। तब भाजपा को अपेक्षा से अधिक सीटें मिलने का यह बहुत बड़ा कारण था। हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभाओं में भाजपा को उस अनुपात में दलित-आदिवासियों के वोट नहीं मिले। जाहिर है कि पार्टी से कहीं न कहीं चूक जरूर हुई, जिसकी वजह से दलितों ने उसका साथ छोड़ा।

2014 में उन्होंने कांग्रेस का साथ इसलिए छोड़ा था कि उन्हें लगा था कि उनकी उपेक्षा हो रही है और पार्टी उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही है। लिहाजा वे भाजपा के साथ जुड़े। उनके भाजपा से जुड़ने का एक अन्य कारण यह भी था कि नरेंद्र मोदी पिछड़े समाज से आते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि हाल के दिनों में दलितों और आदिवासियों में मान-सम्मान एवं सत्ता में भागीदारी को लेकर महत्वाकांक्षा बढ़ी है। यह केवल अधिकारों को लेकर ही नहीं बढ़ी है, बल्कि सामाजिक-राजनीति के स्तर पर नेतृत्व को लेकर भी है। ऐसे में अगर उन्हें लगता है कि उनका नेता उनके अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठा रहा है तो फिर उस नेता और उस पार्टी से उनकी विरक्ति भी हो जाती है। अब दलितों के घर पर भोजन करना और उनके महापुरुषों के स्मारक इत्यादि बनाना ही काफी नहीं रह गया है। वे केवल इतने से ही संतुष्ट नहीं होने वाले। उन्हें पर्याप्त मान-सम्मान और वास्तविक भागीदारी भी देनी होगी। अब राजनीतिक दलों को अपने मन से यह गलतफहमी निकाल देनी चाहिए कि दलितों को आसानी से लुभाया जा सकता है। कई पार्टियों का नेतृत्व मात्र मंत्रिमंडल या अन्य पदों पर दलित समाज के नेता को भागीदारी देकर यह मान लेता है कि इससे दलित संतुष्ट हो जाएंगे। यह सही नहीं। प्रतीकात्मक भागीदारी से दलित संतुष्ट नहीं होने वाले। यही बात समाज के अन्य वंचित एवं पिछड़े तबकों पर लागू होती है। ये सब अपने-अपने समाज के नेताओं की सत्ता में प्रभावी भागीदारी चाहते हैं।

राजनीतिक दल विशेष से नाराजगी की स्थिति में दलितों का वोट निर्णायक हो जाता है। राजस्थान में पिछले विधानसभा चुनाव में 36 में से 32 सीटों पर भाजपा के दलित उम्मीदवार जीते थे और इस बार केवल 11 पर इनकी जीत हासिल हुई। इसी तरह इस बार 25 में से 9 आदिवासी जीते हैं, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में 18 आदिवासी उम्मीदवार जीते थे। राजस्थान के हिंदौन में जहां पर भारत बंद के दूसरे दिन हिंसक टकराव हुआ था, वहां पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इसके अलावा अलवर में भाजपा को 10 में से केवल दो सीटें भाजपा को मिली हैं। यहां गोलीकांड हुआ था। भाजपा को बाड़मेर और जैसलमेर में भी हार का सामना देखना पड़ा, क्योंकि यहां पर भी हिंसक टकराव हुआ था।

मध्य प्रदेश में भी राजस्थान जैसी स्थिति रही। यहां बहुजन समाज पार्टी को दस से ज्यादा विधानसभा सीटों पर दस हजार से ज्यादा वोट मिले। 2013 में भाजपा को छत्तीसगढ़ में दलित बहुल 13 सीटों में से 8 सीटें मिली थीं, जबकि इस बार कांग्रेस को 8 मिलीं। साफ है कि भाजपा को दलितों और आदिवासियों की नाराजगी को पराजय के एक बड़े कारण के तौर पर देखना होगा। अभी तक जितने भी बड़े आंदोलन हुए उनमें आंदोलनकारियों का टकराव सरकार से होता रहा है, लेकिन पिछली बार दलित और अन्य जातियों के बीच संघर्ष हुआ। दो अप्रैल के भारत बंद में शामिल लोगों के ऊपर मुकदमे लादे गए, लेकिन जब दूसरे समाज के लोगों ने इससे भी ज्यादा उग्र आंदोलन किया तो उनके साथ इतनी सख्ती नहीं बरती गई।

रोहित वेमुला, ऊना, सहारनपुर और भीमा-कोरेगांव की घटनाओं के मामले में यदि पार्टी का दलित नेतृत्व हस्तक्षेप करता तो शायद हालात कुछ और होते। यह भी ध्यान रहे कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दलितों और आदिवासियों की अच्छी-खासी है और वे वोट भी जमकर देते हैं। इसी कारण चुनावों में उनकी भूमिका निर्णायक हो जाती है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से कई जगहों पर पिछड़े और मुस्लिम समाज का वोट निर्णायक होता है। स्पष्ट है कि अन्य जातियों की नाराजगी से अधिक दलितों और आदिवासियों की नाराजगी की परवाह करने की जरूरत है।

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(लेखक भाजपा के लोकसभा सदस्य हैं)