[ डॉ. एके वर्मा ]: संसद का मानसून सत्र शुरू होने के पहले राजनीतिक दलों के बीच तू तू-मैैं-मैैं के सिलसिले में तेजी पर हैरानी नहीं। हमारे नेता अब आए दिन सामाजिक संस्कारों और मूल्यों को शर्मसार करते रहते हैं। लगता है कि राजनीतिक स्पर्धा में वे यह भूल ही जाते हैं कि विचार, भाषा और अभिव्यक्ति की लक्ष्मणरेखा क्या हो? ग्रामीण-शहरी, गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री-पुरुष इन सभी की राजनीति में गहरी आस्था है, इसलिए राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों के अवांछनीय कार्य, कथन और चिंतन लोगों की आस्था को चोट पहुंचाते हैं।

कांग्रेस सांसद शशि थरूर का हालिया आरोप कि 2019 में भाजपा के दोबारा सत्ता में आने पर लोकतांत्रिक संविधान नहीं बचेगा, मुसलमानों के लिए समानता खत्म हो जाएगी, संविधान हिंदू राष्ट्र का सिद्धांत अपना लेगा और भारत एक 'हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा, इसकी एक ताजा बानगी है। ऐसे मिथ्या, भ्रामक और भयादोहन करने वाले आरोप हमारे लोकतंत्र को किधर ले जाएंगे? ऐसा बयान कांग्रेस पार्टी से आया जिस पार्टी ने लंबे समय तक शासन किया और अब भाजपा के शासन करने पर उसे विस्थापित करने को छटपटा रही है।

यह भारतीय लोकतांत्रिक-संस्कृति में गंभीर गिरावट का संकेत है, लेकिन प्रश्न केवल आज का नहीं, भविष्य का है। यदि सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो अगले 50 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र और राजनीति का क्या स्वरूप होगा? आने वाली पीढ़ी को हम कैसा समाज और संस्कार दे कर जाएंगे? लोकतांत्रिक-राजनीति सामाजिक व्यवस्था के संचालन की पद्धति है। यदि उससे अपेक्षित परिणाम नहीं आए तो लोगों को किसी बेहतर विकल्प पर विचार करने को मजबूर होना पड़ेगा। आज के राजनीतिक व्यवहार पर एक प्रश्नचिन्ह लगा है। उसमें परिवर्तन जरूरी है, लेकिन वह परिवर्तन क्या हो और कैसे आए?

किसी समाज का राजनीतिक व्यवहार उसके राजनीतिक ज्ञान पर निर्भर होता है और वह ज्ञान उस समाज की राजनीतिक शिक्षा पर। आज देश में जो राजनीतिक शिक्षा और ज्ञान विभिन्न विचारधाराओं जैसे उदारवाद, वामपंथ और दक्षिणपंथ के रूप में उपलब्ध है वह यूरोप से आयातित है, लेकिन जैसा कि ब्रिटिश विद्वान ईएच कार ने लिखा है, ‘कोई भी देश इससे असहमत नहीं कि प्रत्येक बच्चे को अपने देश की राष्ट्रीय विचारधारा में शिक्षित होना चाहिए।’

आखिर वह क्या है जिसे हम भारत में ‘आइडिया ऑफइंडिया’ के रूप में जानते हैं? क्या ‘अनेकता में एकता’ की अवधारणा उसे व्यक्त करती है? या फिर कोई और गंभीर आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अवधारणा उसे परिभाषित करती है? वास्तव में भारत के विचार को यानी ‘आइडिया-ऑफ-इंडिया’ को समझने के लिए जो प्रारंभिक बिंदु है वहां तक हम जाना नहीं चाहते। वह बिंदु ‘वसुधैव-कुटुंबकम’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का भारतीय दर्शन है। पश्चिम का कोई भी विचारक इन बिंदुओं तक नहीं पहुंचा। हां इंग्लैंड के विचारक बेंथम ने जरूर ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ की परिकल्पना की थी।

भारत का लंबा राजनीतिक इतिहास है जिसमें राजनीतिक व्यवहार के दर्शन, सिद्धांतों, मूल्यों और व्यावहारिक सूत्रों का उल्लेख है। पश्चिम में राजनीति के अभ्युदय से बहुत पहले भारत में राजनीति के लोकतांत्रिक सिद्धांतों का निर्माण हो चुका था। ईसा से 400 वर्ष पूर्व महाभारत और धर्मशास्त्रों में राजनीति का विस्तृत ज्ञान भरा पड़ा है, छठी और सातवीं शताब्दी में पुराणों में राजनीति की विस्तृत विवेचना है। जैन विद्वान सोमदेव सूरी द्वारा ‘नितिवाक्यमृत’ दसवीं शताब्दी में लिखा गया अनमोल राजनीतिक ग्रंथ है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र, भृगु, बृहस्पति, जैमिनी, शुक्र, गौतम, नारद, मनु और असंख्य विद्वानों की रचनाएं हमारे राजनीतिक ज्ञान का अपार स्नोत हैं। विडंबना यह है कि हमारी राजनीति की पाठशाला यूनान के प्लेटो से शुरू होकर इंग्लैैंड के जॉन स्टुअर्ट मिल पर खत्म होती है। क्या आज किसी को इसका अहसास है कि ईसा से 500 वर्ष पूर्व लिच्छिवी गणराज्य के संविधान में नागरिकों को स्वतंत्रता देने में हम मिल से आगे थे? स्वयं यूनानी विद्वान मेगस्थनीज ने 325 वर्ष ईसा पूर्व भारतीय ‘गणतंत्रों’ का उल्लेख किया जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचित राजा और द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की चर्चा है।

हमें अरस्तू के संवैधानिक वर्गीकरण का तो पता है, लेकिन भारतीय विद्वानों द्वारा संविधान के वर्गीकरण-भौज्य, स्वराज्य, वैराग्य, राष्ट्रि, द्वैराज्य और अराजक-का कोई ज्ञान नहीं। जब तक हम विदेशी पाठशाला से निकल कर देसी पाठशाला की ओर उन्मुख नहीं होते तब तक वह राजनीतिक ज्ञान अर्जन संभव नहीं जो भारतीय राजनीतिक व्यवहार परंपरा की आधारशिला रही है और जब तक वह संभव नहीं होता तब तक हमारा राजनीतिक व्यवहार कैसे सुधरेगा?

आज लोकतांत्रिक संस्कृति पतन की पराकाष्ठा पर है। राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों को उस विचारधारा का कोई ज्ञान ही नहीं जिससे वे प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं। जिनको है भी, वे उसके अनुरूप आचरण नहीं करते। वे विचारधारा के अनुरूप व्यवहार करने वाले भी उसके सिद्धांतों और मूल्यों को लेकर गफलत में रहते हैं। इसी कारण विचारधारा और राजनीतिक व्यवहार में एक अंतर्विरोध आ गया है और उसने राजनीतिक संस्कृति को प्रदूषित किया है। दूसरी गिरावट भाषाई है। आज राजनीति में भाषा का जैसा दुरुपयोग हो रहा है वैसा पहले कभी नहीं हुआ।

सोनिया गांधी द्वारा ‘मौत-का-सौदागर’, मणिशंकर अय्यर का ‘चाय-वाला’ और ‘नीच’ तथा थरूर का 'हिंदू पाकिस्तान’ जैसे जुमले इसी भाषाई प्रदूषण के संकेत हैं। वह भाषा कहां गई जो विरोधियों और आलोचकों को भी आदर देने पर विवश कर सके? वह भाव कहां गया जिसमें ‘असहमत होने पर सौहार्दपूर्ण सहमति’ बनाने की क्षमता हो? आज हम अपनी बात ऊपर रखने में लगे हैं, मगर लोकतांत्रिक राजनीति तर्क से नहीं, विमर्श से चलती है जिसमें परस्पर संवाद और श्रेष्ठ विचारों को स्वीकार करने की मर्यादा होती है।

आज जब पारिवारिक-सामाजिक संबंधों को सहेजने की बहुत जरूरत है तब राजनीतिक क्षेत्र में संबंधों को खोकर तर्कों से विजय प्राप्त करने से बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है? जिस तरह संसद एवं विधानसभाओं और टीवी की बहसों में गिरावट आई है उसका मूल्य देश को नफरत, वैमनस्यता और शिष्टाचार में भारी गिरावट के रूप में चुकाना पड़ रहा है। ऐसी लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति वर्तमान और भावी पीढ़ी कैसे निष्ठा बनाए रख सकती है? हम लोकतंत्र के सशक्त हथियार आलोचना को आरोपों में बदल रहे हैं।

आलोचना से लोकतंत्र सशक्त, परंतु आरोपों से कमजोर होता है। आलोचना का जवाब दिया जा सकता है, आरोपों का नहीं जैसा कि थरूर के मामले से स्पष्ट है। सभी नागरिकों, दलों और नेताओं को सोचना होगा कि देश की राजनीतिक संस्कृति में गुणात्मक परिवर्तन हेतु विदेशी सिद्धांतों की बैसाखी ही चलेगी या हमें अपनी जड़ों की ओर भी देखने की जरूरत है?

[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]