नई दिल्ली। कानपुर प्रकरण के बाद अपराधी की जाति और धर्म को लेकर सोशल मीडिया में बड़ी चर्चा है। लेकिन सच यही है कि उसकी जाति भी होती है, और धर्म भी। उसकी जाति के नेता भी होते हैं और अफसर भी। सजातीय पुलिस वाले भी कई बार उनकी मदद करते हैं। भले ही अपराधी अपनी ही जाति के लोगों की हत्या क्यों न करे, लेकिन उसका समर्थन जारी रहता है। पुलिस और कुछ दूसरे लोग इसमें खाद पानी डालने का काम करते रहे हैं।

पहले डाकू समस्या के दौरान यह समस्या अलग रूप में थी। वह समाप्त हो गई तो शहरी या देहाती इलाके के सफेदपोश अपराधियों में यह उससे कहीं और वीभत्स रूप में दिख रही है। बुंदेलखंड और विंध्य इलाके में सबसे अधिक सक्रिय रहे डाकू ददुआ ने सबसे अधिक ब्राह्मणों की हत्या की। चंबल घाटी में तमाम डाकू जातीय गर्व के तौर पर आज भी जनमानस में मौजूद हैं।

आखिर क्या वजह है कि आज भी उत्तर प्रदेश के एक छोर पर मान सिंह का मंदिर कायम है, जिसके बेटे तहसीलदार सिंह भाजपा के टिकट पर मुलायम सिंह के खिलाफ चुनाव लड़े थे। क्या वजह है कि ददुआ का दूसरे छोर बुंदेलखंड में मंदिर है जिसके बेटे को समाजवादी पार्टी ने राजनीतिक ताकत दी।

समर्पण के बाद चंबल के कई डाकुओं ने कांग्रेस का भी प्रचार किया। यही नहीं, जब मुलायम सिंह ने फूलन देवी को टिकट दिया था, तब भी मिर्जापुर में जाति ही देखी थी। जाति और धर्म एक सच है। और हर राजनीतिक दल इसमें नंगा है। राष्ट्रीय दल थोड़ा बचे हुए हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के कई कई नेता दुर्दांत अपराधियों को कुलदीपक जैसा बताने से गुरेज नहीं करते रहे हैं। क्या कोई सरकार जातीय स्वाभिमान के प्रतीक डाकुओं के सम्मान में बने इन मंदिरों को बंद कराने का साहस कर पाई है।

अगर चंबल यमुना घाटी से लेकर नारायणी के बीहड़ों के डाकू गिरोहों के इतिहास को टटोलें तो पता चलता है कि दस्यु सरदार डोंगरी बटरी से लेकर मान सिंह, मोहर सिंह, माधो सिंह, पान सिंह तोमर, पुतलीबाई, मलखान सिंह, छविराम, विक्रम मल्लाह, फूलन देवी, ददुआ, ठोकिया, निर्भय गुज्जर से लेकर तमाम दुर्दांत डकैत गिरोहों को जातीय आधार पर राजनेताओं ने संरक्षण दिया।

अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री काल में मध्य प्रदेश में रमेश सिकरवार ने आत्मसमर्पण किया तो सिकरवारी इलाके की जेल का भी चयन खुद किया था जो राजपूतों की दबंगई के लिए जाना जाता है। डाकू गिरोह अपनी छवि को बनाए रखने के लिए इलाके में निवेश भी करते थे। लेकिन समय बदला तो सफेदपोश अपराधियों ने नए तरीके निकाल लिए। टिकट पाने से लेकर ठेका पाने तक।

कोई अपराधी बनता है तो उसके आसपास पहले यही तत्व सबसे आगे होते हैं। अगर नहीं होते हैं तो पुलिस उसके करीबी लोगों, घर-परिवार और सजातीय गांव वालों पर ऐसा ठप्पा लगा देती है कि वे न चाह कर भी उनके साथ खड़े होते हैं, जैसे नक्सलियों के साथ आदिवासी खड़े हो जाते हैं। पुलिस की हिस्ट्रीशीट में संरक्षण देने वाले सजातीय लोगों का विवरण और गांवों का भी विवरण होता है। एक दौर था जब अपराध में राजपूत, ब्राह्मण और मुसलमान आगे होते थे।  

चंबल घाटी में 1980 के बाद वे पीछे हो गए और पिछ़ड़ी जाति के गिरोह आगे हो गए। यह समस्या समाप्त हुई तो नई समस्या आ गई। इस नाते जरूरी है कि अगर कोई अपराधी पैदा हो रहा है तो पुलिस उसकी जाति के लोगों को उसका संरक्षक मान सताना बंद करे। अपराधियों को महिमा मंडित करना भी बंद होना चाहिए। और राजनीतिक दल उनको टिकट और शक्ति देना बंद करें। अपराधियों की मदद लेने के बजाय बेहतर होगा कि राजनीतिक दल ग्रामीण इलाकों में नया नेतृत्व पैदा करें और अपना संगठन मजबूत करें। (अरविंद कुमार सिंह की फेसबुक वॉल से संपादित अंश, साभार)  

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