[ सुरेंद्र किशोर ]: सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए एक अहम फैसला सुनाया है। उसने आदेश दिया है कि राजनीतिक दल जिस उम्मीदवार को टिकट देंगे, उसके आपराधिक रिकार्ड समेत सारा ब्योरा पार्टी की वेबसाइट, फेसबुक और ट्विटर पर डालेंगे। राजनीतिक दल यह भी बताएंगे कि उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को उम्मीदवार क्यों चुना? यह अहम फैसला है। देश में राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की समस्या को समझाने के लिए मैं एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा।

राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र का शर्मनाक पहलू

करीब दो दशक पहले मैंने बिहार के एक बाहुबली सांसद के बारे में लिखा था कि मौजूदा लोकतंत्र का यह शर्मनाक पहलू है कि 33 संगीन मुकदमों के आरोपी संसद में है और एक शालीन, कर्मठ और ईमानदार नेता सड़कों पर धूल फांक रहा है। इस पर उस बाहुबली की अजीबोगरीब शिकायत आई थी। उसने कहा कि आपने मेरे खिलाफ 33 मुकदमों की चर्चा की है। इस पर न तो मुझे कोई गम है, न गुस्सा।

चुनाव में बाहुबलियों के सामने स्वच्छ राजनीति करने वाले नेता टिकते नहीं हैं

आप 33 के बजाय 133 केस लिख देते, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, पर मुझे बुरा इस बात का लगा कि आपने मेरी तुलना एक अपाहिज नेता से क्यों कर दी? वह मेरे सामने क्या है? बाहुबली की उस टिप्पणी में दो बातेेंं निहित थीं। एक तो यह कि बाहुबलियों की अपने मतदाताओं में लोकप्रियता से उन मुकदमों का सीधा संबंध होता है और उससे उन्हें ताकत मिलती है। दूसरी बात यह कि जिस तथाकथित अपाहिज सांसद को उसने हराया वह स्वच्छ राजनीति के प्रतीक माने जाते थे। वैसी राजनीति को ही तो पराजित करके वह बाहुबली सांसद बना था। ऐसे में वह नहीं चाहता था कि स्वच्छ राजनीति को जनता फिर से पसंद करने लगे। देखा जाए तो वह बाहुबली देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की विफलता की उपज था। देश में ऐसी अनेक ‘उपज’ हैंं। वह अब जेल में है, पर ऐसे हर बाहुबली के मामले सबसे बड़ी अदालत तक पहुंच नहीं पाते। इसलिए उनके शमन के लिए संस्थागत व्यवस्था करनी होगी।

सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को आदेश दे कि वह दागी उम्मीदवारों के नामांकन पत्र स्वीकार न करें

अनुभव बताते हैं कि आपराधिक न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने का काम भी सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है। आज उम्मीदवारों की संपत्ति, शैक्षणिक योग्यता और आपराधिक रिकॉर्ड के बारे में जो सूचनाएं जनता को मिल पा रही हैं वह भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण ही संभव हुआ है। राजनीतिक दल तो पहले ऐसी जानकारियों को साझा करने तक को तैयार नहीं थे। बेहतर यह होता कि सुप्रीम कोर्ट दलों पर भरोसा करने के बदले चुनाव आयोग को यह आदेश देता कि वह उन उम्मीदवारों के नामांकन पत्र स्वीकार ही न करे जिनके खिलाफ कुछ संगीन धाराओं में मुकदमे दर्ज हों।

जब दागियों से संसद भर जाएगी तो फिर कानून का शासन कैसे रहेगा

वास्तव में देश में संविधान लागू हो रहा है या नहीं, यह देखना सुप्रीम कोर्ट की जिम्मदारी है। कानून का शासन संविधान के बुनियादी ढांचे का प्रमुख अंग है। सवाल है कि एक दिन जब दागियों से संसद भर जाएगी तो फिर कानून का शासन कैसे रहेगा? यदि राजनीति से अपराधियों को निकाल बाहर करना है तो समाज में उनकी लोकप्रियता के बढ़ने के कारण खोजने होंगे। जिस 33 मुकदमे वाले बाहुबली की चर्चा मैंने की वह एक खास समुदाय के उच्चस्तरीय संरक्षण प्राप्त अपराधियों से लड़ते हुए अपने समुदाय के मतदातआें के बीच लोकप्रिय हुआ था। जाहिर है कानून का शासन रहा होता तो दोनों पक्षों को आपस में जूझने की नौबत नहीं आती।

देश में अपराधियों को अदालती सजा का फीसद सिर्फ 46 है, जबकि यूएस में 93 फीसद है

सवाल है कि इस देश में कानून का शासन क्यों कमजोर है? सामान्य अपराधों में इस देश में अदालती सजा का प्रतिशत क्यों सिर्फ 46 है, जबकि यह आंकड़ा अमेरिका में 93 प्रतिशत और जापान में 99 प्रतिशत है? जवाब स्पष्ट है कि जब न्यायिक आपराधिक प्रक्रिया से अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती तभी पीड़ित व्यक्ति बाहुबलियों की शरण में जाता है। देश की अनेक जगहों पर अपने-अपने समुदायों के अपने अपने बाहुबली पैदा हो गए हैं। वे खास समूह में लोकप्रिय हैं। उन्हें राजनीतिक दल टिकट दे देते हैं। एक दल नहीं देगा, दूसरा दे देगा। कोई नहीं देगा तो वे निर्दलीय उम्मीदवार बन जाएंगे।

विधायिकाओं में बाहुबलियों की बाढ़ आ गई

अनेक नेता सवाल करते हैं कि हम बाघ के खिलाफ किसी बकरी को तो उम्मीदवार नहीं बना सकते? इसीलिए देश में विधायिकाओं में बाघों यानी बाहुबलियों की बाढ़ आ गई है। कई जगह उनके परिजनों की। इस तरह विधायिकाओं का स्वरूप बदलता जा रहा है। यह तय है कि राजनीतिक दल चुनाव हारने का कोई खतरा खुद मोल नहीं लेंगे।

चुनाव सुधार पर सुनवाई न होने से संसद में दागी सांसदों की संख्या 43 फीसद हो गई

राजनीति में अपराधियों एवं धन का प्रभाव 1967 के आसपास से ही बढ़ने लगा था। हालांकि तभी से इसके खिलाफ आवाजें भी उठती रही हैं, फिर भी मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की गई! चुनाव आयोग इस बीच समय-समय पर चुनाव सुधार से संबंधित 40 सुझाव भारत सरकार को भेज चुका है, पर अफसोस अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई। नतीजतन संसद में अब दागी सांसदों की संख्या 43 प्रतिशत हो गई है जो 2004 में 24 प्रतिशत थी। ऐसे में लोकसभा के अगले तीन-चार आम चुनावों के परिणामों का अनुमान लगा लीजिए। क्या सुप्रीम कोर्ट इसे ऐसे ही होने देगा?

पहले बाहुबली नेताओं को चुनाव जितवाते थे, बाद में वे खुद ही चुनाव लड़ने लगे

पहले लाठी और हथियार के बल पर बूथ कब्जा करके बाहुबली किस्म के लोग नेताओं को जितवाते थे। वे द्वितीयक भूमिका में होते थे, पर बाद में बाहुबली जहां-तहां खुद ही चुनाव लड़ने लगे, क्योंकि उन्होंने सोचा कि जब हम उनको जिता सकते हैं तो खुद भी जीत सकते हैं। फिर कई जगह बाहुबली पहले निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते। बाद में राजनीतिक दल भी बाहुबलियों को टिकट देने लगे।

राजनीति के अपराधीकरण पर नेताओं के घड़ियाली आंसू

हालांकि 1997 में संसद में सर्वसम्मत से प्रस्ताव पास कर राजनीति के अपराधीकरण पर चिंता प्रकट की गई थी और उसे रोकने की कोशिश का संकल्प लिया गया था, पर हुआ कुछ नहीं। दरअसल वे नेताओं के घड़ियाली आंसू थे।

चुनाव मैदान में उतरने वाले दागी उम्मीदवारों को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने की बेहतर पहल

सुप्रीम कोर्ट इस समस्या के समाधान के लिए समय-समय पर कारगर कदम उठाता रहा है। उसकी ताजा पहल भी सराहनीय है। हालांकि उसकी अभी तक की पहलों का सीमित असर ही हुआ है। देखना है कि उसकी ताजा पहल कितनी प्रभावी साबित होती है? इसकी आशंका है कि राजनीतिक दल दागी उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने के लिए छिद्रों की तलाश कर सकते हैं।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं )