गिरीश्वर मिश्र। करीब एक सदी बाद आई महामारी के अप्रत्याशित प्रकोप ने सबको हिलाकर रख दिया है। इसके पहले स्वास्थ्य की विपदाएं स्थानीय या क्षेत्रीय विस्तार तक सीमित रहती थीं, पर कोविड-19 महामारी से उपजी स्वास्थ्य की समस्या विश्वव्यापी है और उसकी दूसरी लहर पूरे भारत पर ज्यादा ही भारी पड़ रही है। इसके संक्रमण की विधाएं इतने भिन्न-भिन्न तरह की मिल रही हैं और उसके लक्षणों की विविधता इतने विलक्षण रूप से परिवर्तनशील है कि उसकी पहचान में अक्सर चूक की घटनाएं हो रही हैं और लोगों की जान पर आ बन रही है। चिकित्सा विज्ञान के ताजे अनुसंधान इस वायरस के स्वरूप में बदलाव की भी कई किस्मों को रेखांकित कर रहे हैं।

रोग के उपचार की कारगर दवा की तलाश अभी भी जारी है। जो उपचार चल रहा है, वह शरीर की व्यवस्था की कमियों के प्रबंधन की युक्ति पर निर्भर है। सावधानी के साथ कुशल स्वास्थ्य प्रबंधन समय पर मुहैया करना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। श्वास की प्रक्रिया में ही जीवन-तंतु बसता है और कोविड की खतरनाक चोट नाक, गले और फेफड़े जैसे संवेदनशील अवयवों पर असर डालती है। उसे रोकना और उसके असर से ससमय निपटना युद्धस्तर पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की अपेक्षा करता है। यदि समय रहते श्वसन तंत्र को सामान्य नहीं बनाया गया तो जीवन खतरे में पड़ने लगता है।

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन आपूर्ति की चुनौती विकराल हो गई। फाइल

कोरोना की दस्तक के बाद संक्रमण को कम करने के लिए सैनिटाइजेशन , मास्क और दो गज की दूरी बनाए रखने का प्रविधान किया गया और ताकीद की गई कि भीड़ न जुटे। टीकाकरण भी शुरू हुआ और धीरे-धीरे उसका दायरा बढ़ाया जाने लगा। मुश्किलों को ध्यान में रखकर विद्यालयों और अन्य संस्थानों में ऑनलाइन कार्य करने की व्यवस्था की गई। इन सबका असर भी दिखने लगा और जंग जीतने जैसी भावना बनने लगी। कई प्रदेशों में विधानसभा के चुनाव हुए, बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियों और रोड शो के जरिये चुनाव प्रचार में खूब भीड़ जुटी और रोना प्रविधानों की धज्जियां उड़ती रहीं और सभी बेखबर रहे। इस वर्ष के आरंभ में इस भरोसे कि अब कोरोनामुक्त अच्छे दिन आने वाले हैं, महानगरों से जो लोग अपने गांव वापस आए थे, वे अपने रोजगार और काम धंधे के लिए अपने-अपने मुकाम लौटने लगे। लगा सब कुछ पटरी पर आने वाला है, पर यह गफलत तब दूर हो गई जब संक्रमण की दूसरी लहर आई।

दूसरी लहर में महामारी जिस तीव्र वेग से अपने पांव पसार रही है और जिस तरह कई-कई लाख लोग प्रतिदिन इसकी चपेट में आ रहे हैं, उससे सभी सकते में आ गए हैं। महामारी के प्रसार और जीवन के तीव्र नाश की कहानी दिल दहलाने वाली होती जा रही है। इसके आगोश में युवा वर्ग भी आने लगा है और संक्रमण के वायु के माध्यम से होने की पुष्टि ने अज्ञात भय की मात्रा बढ़ा दी है। आम जनता में भ्रम और भय का माहौल बन रहा है। टीवी पर पुष्ट-अपुष्ट सूचनाओं की भरमार है और उन्हें देखकर मन को दिलासा दिलाने की जगह मौत के मंडराने का अहसास बढ़ता जा रहा है। इस माहौल में जिस धैर्य और संयम से स्वस्थ जीवन शैली अपनाने की जरूरत है, उसकी तरफ बहुत थोड़े टीवी चैनल ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में भय और दुविधा की मनोवृत्तियां हावी हो रही हैं। लोग दहशत में आ रहे हैं। जीवन की डोर कमजोर लगने लगी है।

भारत की आबादी, जनसंख्या का घनत्व, पर्यावरण-प्रदूषण और खाद्य सामग्री में मिलावट, स्वास्थ्य-सुविधाओं की उपेक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण जैसे बदलाव ने आम नागरिक के लिए स्वस्थ रहने की चुनौती को ज्यादा ही जटिल बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य की लंगड़ाती चलती सरकारी व्यवस्था और भी सिकुड़ती चली गई। स्वास्थ्य क्षेत्र में निजीकरण ने स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच को आम जनता से दूर करना शुरू कर दिया। निजी क्षेत्र में जन सेवा की जगह मुनाफा कमाना ही मुख्य लक्ष्य बन गया। दूसरी ओर इसका दबाव झेलती जनता के सामाजिक, नैतिक और र्आिथक आचरण में विसंगतियां भी आने लगीं। कोविड जैसी विकट त्रासदी ने सबकी पोल खोल दी है, लेकिन उसका ठीकरा हर कोई दूसरे के सिर पर फोड़ने को तत्पर है और जीवन मृत्यु के प्रश्न में भी सियासी फायदा ढूंढा जा रहा है।

फरवरी तक कोविड के असर में गिरावट दिखने से सबके नजरिये में ढिलाई आ गई। इतनी कि कहीं-कहीं जो स्वास्थ्य सुविधाएं कोविड के लिए शुरू हुई थीं, उनको बंद या स्थगित कर दिया गया। इसके साथ ही आम आदमी राहत की सांस लेने लगा। बाजारों और विभिन्न आयोजनों में भीड़ बढ़ने लगी और शारीरिक दूरी बनाए रखने और मास्क लगाने को नजरअंदाज किया जाने लगा, लेकिन मार्च में सब कुछ बदलने लगा। अचानक तेजी से कोरोना मरीजों की संख्या बढ़ी और फिर जो अफरातफरी मची, उसका किसी को अनुमान नहीं था। आज मरीज और अस्पताल सभी त्राहिमाम कर रहे हैं। दिल्ली, मुंबई से लेकर सभी बड़े शहरों में चिकित्सकीय ढांचा चरमराने लगा और अस्पताल में बेड, दवा और ऑक्सीजन की किल्लत शुरू हो गई। इनकी कालाबाजारी भी शुरू हो गई। नैतिकता और मानवीयता को दरकिनार कर बाजार में कई गुने महंगे मूल्य पर दवा और इंजेक्शन बिकने लगे।

आज की त्रासदी यह भी है कि सरकारी व्यवस्था ऐसी है कि लोग वहां जाने से घबरा रहे हैं। निजी अस्पताल सेवा की मनचाही कीमत मांगते हैं और हर तरह से मरीज को चूस रहे हैं। आज सब तरफ रोगियों का तांता लगा है और अस्पतालों के अंदर-बाहर लोग मदद को तरस रहे हैं। ऑक्सीजन की कमी जिस तरह बढ़ी और रोगियों के प्राण संकट में पड़ रहे, उससे सरकारी तैयारी और व्यवस्था प्रश्नांकित हो रही है। मुंबई के एक अस्पलाल में आग लगने से मरीज मरते हैं और नासिक में ऑक्सीजन लीक होने से। राजधानी दिल्ली की इस खबर ने कि सर गंगाराम जैसे बड़े अस्पताल में रोगियों ने ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ दिया, स्वास्थ्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय आपातकाल का ही उद्घोष कर दिया। हम सब इतने लाचार कैसे हो रहे हैं और कहां पहुंचेंगे, यह बड़ा प्रश्न है, लेकिन तत्काल जरूरत यह है कि महामारी से उपजी त्रासदी का सारे दुराग्रहों से मुक्त होकर सामना किया जाए। जीवन की रक्षा सर्वोपरि है। यदि जीवन बचा रहा तो सब कुछ फिर हो सकेगा। जीवन का कोई विकल्प नहीं है।

(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं)