डॉ. भरत झुनझुनवाला

आजादी की 70वीं सालगिरह मनाने के साथ ही जिस एक प्रश्न विचार करने का समय आ गया है वह यह है कि हम भूमंडलीकरण की ताकतों के आगे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कर पाएंगे या नहीं? बीते दो दशकों से हमारी तमाम नीतियां विदेशी ताकतों द्वारा तय की जा रही हैं। जैसे विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ द्वारा तय किया गया कि भारत सरकार सोलर पैनल खरीद में घरेलू उत्पादकों को प्राथमिकता नहीं दे सकती। भारत सरकार सोलर पैनल किससे खरीदेगी, यह डब्लूटीओ के मठाधीशों द्वारा तय किया जा रहा है। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय आदि द्वारा हमारी घरेलू नीतियों को निर्धारित किया जा रहा है। मेरी समझ से यह भय निराधार है कि इससे धीरे-धीरे हमारी स्वतंत्रता-स्वायत्तता स्वाहा होती दिख रही है।
अपने 400 वर्ष पुराने इतिहास का ही स्मरण करें। भारत पर मुगलों का शासन था। अरब सागर के समुद्री डाकुओं द्वारा हमारे जहाजों को लूटा जा रहा था। ऐसे में ब्रिटिश व्यापारियों ने मुगल शासकों को प्रस्ताव दिया कि यदि उन्हे भारत में खुलकर व्यापार करने की छूट दी जाए तो शुल्क के रूप में वे भारतीय जहाजों को समुद्री सुरक्षा उपलब्ध करा देंगे। ब्रिटिश व्यापारियों की नौसेना हमारी तुलना में ताकतवर थी और वे समुद्री डाकुओं के सामने झुकते नहीं थे। हमारे मुगल शासकों ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बस भारत का भूमंडलीकरण हो गया। ब्रिटिश व्यापारियों ने अपने पैर पसारे। समय क्रम में हमारे तमाम राजाओं ने स्वेच्छा से ब्रिटिश लोगों को अपनी संप्रभुता दे दी। उन्होंने आकलन किया कि ब्रिटिश शासन के नीचे दोयम दर्जे का भागीदार बने रहना उनके लिए लाभदायक रहेगा। कमोबेश देश की जनता ने भी ब्रिटिश शासकों का स्वागत किया। राजस्थान में डूंगरपुर के आदिवासियों ने बताया कि घरेलू राजाओं के आतताई व्यवहार से बचने को वे अजमेर ब्रिटिश प्रेजिडेंसी की शरण में जाते थे।
आज डब्ल्यूटीओ द्वारा उसी प्रकार भूमंडलीकरण लागू किया जा रहा है जैसे कभी ब्रिटिश शासकों ने भारत में लागू किया था। ब्रिटिश माल को भारत में न्यून आयात कर पर प्रवेश करने की छूट दी गई थी जैसा वर्तमान में डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत चीन के माल को भारत में न्यून आयात कर पर प्रवेश करने की छूट है। ब्रिटिश कंपनियों ने भारत में निवेश किया जैसा कि आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। भारत के घरेलू कानूनों को ब्रिटिश कानूनों के अनुसार बदला गया जैसे आज हमने अपने पेटेंट कानूनों को डब्ल्यूटीओ के अनुरूप बदल लिया है। समय क्रम में भारतीयों ने पाया कि उनके द्वारा स्वेच्छा से ब्रिटिश शासकों को हस्तांतरित की गई स्वतंत्रता का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। तब देश ने लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी के नेतृत्व में उस भूमंडलीकरण को चुनौती दी। पूरे देश में स्वतंत्रता का आंदोलन छिड़ गया। हमारे राजाओं द्वारा ब्रिटिश शासकों के साथ की गई संधियों का कोई अर्थ नही रह गया। अंत में भारत भूमंडलीकरण के फंदे से बाहर निकला जिसे हमारे शासकों ने स्वेच्छा से अपने गले मे हीरे का हार समझ कर डाल लिया था। इसी प्रकार के भूमंडलीकरण की वापसी आज पूरी दुनिया में हो रही है। आज डब्ल्यूटीओ को लकवा सा मार गया है। तमाम देश अपने पड़ोसियों के साथ ही क्षेत्रीय समझौते कर रहे हैं जैसे अमेरिका, कनाडा और मेक्सिको ने नाफ्टा नाम से मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाया है। पूर्वी एशियाई देशों ने आसियान बनाया है और भारत का प्रयास है कि दक्षेस या बिम्सटेक की छतरी तले दक्षिण एशिया के देशों का मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाया जाए। 1995 से 2005 तक डब्ल्यूटीओ में मंत्री स्तरीय सभाओं पर देश में विस्तृत चर्चा होती थी। आज पता भी नही चलता कि सभा कब हुई। इन घटनाओं से संकेत मिलता है कि भूमंडलीकरण स्थाई व्यवस्था नहीं है। जब किसी देश के नागरिकों के लिए भूमंडलीकरण नुकसानदेह हो जाता है तो वे पीछे हट जाते हैं। भूमंडलीकरण उसी तरह ‘स्थाई’ अथवा ‘सतत’ नहीं हो सकता है जैसे भारत में मुगल एवं ब्रिटिश साम्राज्य स्थाई नही हो सके थे। कहे अनकहे किसी भी देश की संप्रभुता आखिरकार उस देश के लोगों के पास होती है। जनता की संप्रभुता को हथियारों के बल पर कुछ समय तक दबाया जा सकता है, परंतु अतत: जनता ही निर्णय करेगी कि भूमंडलीकरण उपयुक्त है या नहीं?
पूर्व में हुए भूमंडलीकरण और मौजूदा दौर के भूमंडलीकरण में अंतर उसकी रफ्तार का है। जब ब्रिटेन ने भारत का भूमंडलीकरण किया था तो भारत से इंग्लैंड पहुंचने में कई हफ्ते लग जाते थे, लेकिन आज आठ घंटों में ही पहुंचा जा सकता है। ढुलाई का खर्च कम हो जाने से माल का आयात और निर्यात दोनों ही ज्यादा हो रहा है। तमाम सेवाओं का आयात एवं निर्यात कंप्यूटर के एक क्लिक से हो रहा है, लेकिन रफ्तार की इस वृद्धि से भूमंडलीकरण पर निर्णय लेने की जनता की क्षमता का ह्रास नहीं होता है। जैसे मान लीजिए गांव को अधिकार है कि वह बाहर से आने वाले व्यक्ति के प्रवेश को रोक सकता है। वह व्यक्ति तांगे से आ रहा है या कार से-इससे गांव के अधिकार पर प्रभाव नहीं पड़ता है।
भूमंडलीकरण आखिरकार तब तक टिकता है जब तक किसी देश के लोगों को यह फायदेमंद लगे। जब शासक जनता के हितों के खिलाफ भूमंडलीकरण को अपनाते हैं तो जनता उस देश के शासकों को उखाड़ फेंकती है जैसे हमारे शासकों द्वारा ब्रिटिश शासकों को सौंपी गई संप्रभुता को हमारी जनता ने ही उखाड़ फेंका था। हर हाल में अंतिम संप्रभुता जनता की होती है। अत: भूमंडलीकरण से डरने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि शासकों द्वारा लागू किए गए भूमंडलीकरण के नफा-नुकसान का स्वतंत्र आकलन करके जनता को बताया जाए। जिस प्रकार लाजपत राय ने ब्रिटिश शासन के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे प्रभाव का आकलन कर जनता को जागृत किया उसी प्रकार देश के बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी बनती है कि भूमंडलीकरण के फायदे और नुकसान की सही तस्वीर जनता को दिखाएं। मिसाल के तौर पर आज हमारी सरकार चीन से आयातित माल के विरुद्ध कदम उठाने को तैयार नहीं है, किंतु जनता कहने लगी है कि इसे रोका जाना चाहिए। देश के बुद्धिजीवी सतर्क रहेंगे तो जरूरत पड़ने पर हम भूमंडलीकरण से पीछे हट सकते हंै जैसे आज तमाम देश डब्ल्यूटीओ से पीछे हट रहे हैं। यदि बुद्धिजीवी सुप्त रहते हैं जैसे मुगल काल मे थे तो फिर स्वतंत्रता संग्र्राम जैसे कष्टप्रद आंदोलन के बाद ही परिणाम हासिल होता है। हमारी संप्रभुता तो बनी रहेगी, केवल यह तय होना बाकी है कि कार्यान्वयन का कष्ट कम होगा या अधिक? भूमंडलीकरण से डरने के बजाय उसका निष्पक्ष आकलन करना चाहिए।
मेरा आकलन है कि आने वाले समय में हम भूमंडलीकरण से पीछे हटेंगे, क्योंकि इससे आम आदमी के रोजगार का हनन हो रहा है। उसे चीन में बना सस्ता माल उपलब्ध है, किंतु उसे खरीदने के लिए जेब में पैसा नही है। भूमंडलीकरण का लाभ आज हमारी बड़ी कंपनियों और मध्यम वर्ग मात्र को हो रहा है। जैसे जैसे जनता को यह वास्तविकता समझ में आएगी, हमारे नेताओ को भूमंडलीकरण से पीछे हटना ही होगा।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री और आइआइएम बेंगलुरु में प्रोफेसर रहे हैं ]