नई दिल्ली (सुरेंद्र किशोर)। इस देश में अब तक हुए अधिकतर चुनावों का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही रहा है। मुद्दे और भी रहे, किंतु कई बार निर्णायक मुद्दा भ्रष्टाचार-विरोध ही रहा। लोकसभा के अगले चुनाव में भी भ्रष्टाचार ही मुख्य मुद्दा हो सकता है। निसंदेह राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की अखंडता जैसे मुद्दे भी रहेंगे, परंतु भ्रष्टाचार तो जन-जन को सीधे स्पर्श करने वाला मुद्दा है। भले किसी अमीर देश का भ्रष्टाचार वहां के लोगों की सुख-सुविधा में थोड़ी सी ही कटौती करता हो, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचार तो भुखमरी भी पैदा करता है। भ्रष्टाचार को लेकर इस देश में हमेशा दो तरह की शक्तियां काम करती रही हैं। एक शक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति अपनाती है या अपनाने की कोशिश करती है। वह कभी सफल होती है तो कभी विफल। दूसरी शक्ति के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं है। न दोनों तरह की शक्तियां दोनों गठबंधनों में हैं परंतु एक में ज्यादा हैं तो दूसरे में कम। इन्हीं दो शक्तियों के बीच 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा। याद रहे कि अगले आम चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और दोनों तरफ से तैयारियां जोरों पर हैं। लोकसभा चुनाव के पहले कुछ राज्यों में विधानसभाओं के भी चुनाव होने हैं, लेकिन उनके परिणाम कुछ ही पूर्वाभास दे सकेंगे, क्योंकि प्रांतीय चुनाव के मुद्दे भी अलग होंगे और नेता भी।

लोकसभा चुनावों में नेताओं के लिए मुद्दे जो भी रहे हों, अधिकतर मतदाताओं के लिए भ्रष्टाचार का मुद्दा ही सवरेपरि रहा। हालांकि कुछ अवसरों पर मंदिर और मंडल जैसे मुद्दे भी छाए रहे, लेकिन वैसे अवसर कम ही आए। भ्रष्टाचार विरोध के मामले में जो राजनीतिक दल और नेता जनता को जब भी प्रामाणिक लगे, मतदाताओं ने उन्हें ही सत्ता में पहुंचाया। जिन नेताओं और दलों की मंशा ठीक लगी और उनकी कोशिश को प्रामाणिक माना गया उन्हें दोबारा भी सत्ता मिली। यदि नहीं माना तो वे सत्ता से बाहर कर दिए गए। मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अनेक कदम उठाए हैं। मंत्रिमंडल स्तर पर भ्रष्टाचार की खबरें न के बराबर हैं। ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है, फिर भी सरकार के अन्य स्तरों पर भ्रष्टाचार कायम है या उसमें मामूली कमी ही आई है। ऐसी खबरें आती रहती हैं कि वहां से भी भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश जारी है, लेकिन इस रास्ते में कुछ कठिनायां हैं। यदि मतदाताओं को मौजूदा सरकार की दलील और मंशा सही लगेगी तो 2014 दोहराया जा सकता है। भ्रष्टाचार की छोटी-मोटी झलक लोग-बाग आजादी के बाद से ही देखने लगे थे परंतु पहली बार 1963 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष संजीवैया ने एक जनसभा में इस समस्या को गंभीर संकट बता दिया था। इंदौर के अपने भाषण में उन्होंने यह स्वीकार किया, ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे आज करोड़पति बन बैठे हैं। झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले रखा है।’ इस स्वीकारोक्ति के बावजूद कुछ नहीं बदला और उलटे समय के साथ हालात बिगड़ते गए। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया, ‘हम दिल्ली से सौ पैसे भेजते हैं, पर गांवों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे पहुंच पाते हैं।’ विडंबना यह रही कि ऐसा कहने वाले राजीव गांधी के शासनकाल में भी घोटाले हुए। इनमें बोफोर्स घोटाला प्रमुख रहा। देश की रक्षा से जुड़े इस घोटाले ने लोगों को झकझोर दिया। 1989 के लोकसभा चुनाव में बोफोर्स घोटाला ही चर्चित रहा। एक तरह से इस घोटाले ने ही कांग्रेस से सत्ता छीन ली। इसके पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे के साथ अधिकतर लोगों का दिल जीत लिया था। परिणामस्वरूप वह 1971 का लोकसभा चुनाव जीत गई थीं। ‘गरीबी हटाओ’ नारे के पीछे यह संदेश छिपा था कि इंदिरा के राजनीतिक विरोधी भ्रष्ट लोगों के समर्थक हैं और वे गरीबी हटाने के खिलाफ हैं। इंदिरा सरकार ने 1969 में 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और राजाओं को दिए जाने वाले अनुदान यानी प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार समाप्त किए। यह और बात है कि आम लोगों को अंतत: धोखा ही मिला।

देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहला बड़ा अभियान 1966-67 में प्रतिपक्षी दलों ने चलाया था। बिहार में तब केबी सहाय के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ। संजीवैया के बयान की पृष्ठभूमि में 1967 में हुए आम चुनाव में भी भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा रहा। नतीजतन नौ राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और लोकसभा में भी उसका बहुमत पहले की अपेक्षा घट गया। 1977 का लोकसभा चुनाव जय प्रकाश आंदोलन और आपातकाल की पृष्ठभूमि में हुआ। उसमें न सिर्फ खुद इंदिरा और संजय गांधी अपनी सीटें हार गए, केंद्र की सत्ता से कांग्रेस पहली बार बाहर भी हो गई।

1957 में केरल में पहली बार गैर कांग्रेस सरकार जरूर बनी थी, लेकिन 1967 से राज्यों और 1977 से केंद्र में गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें बनने का सिलसिला कायम हुआ। एक तरह से लगभग सारे राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता का स्वाद चखने लगे, लेकिन राजनीति में गिरावट जारी रही। भ्रष्टाचार या सदाचार पर किसी एक दल का एकाधिकार नहीं रहा। आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार पहले भी एक बड़ा मुद्दा था और आज भी है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो मतदाता यह देखते हैं कि कौन राजनीतिक दल भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएगा अथवा लगाने के प्रति अधिक प्रतिबद्ध है। सत्ताधारी लोगों में से कुछ लोग जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रामाणिकता के साथ कार्रवाई करते हैं तो कुछ अन्य भ्रष्टाचार के मुद्दे को महत्व ही नहीं देते। अगले चुनाव में मतदाताओं को इसी प्रवृत्ति वाले दोनों तरह के नेताओं के बीच चयन करना है। हालांकि पिछला इतिहास यही बताता है कि अधिकतर मतदाता भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार मंशा वाले लोगों को पसंद करते हैं, लेकिन आज के दौर में किसी राजनीतिक दल या नेता के लिए ईमानदार मंशा वाला होना भर उसकी जीत की गारंटी नहीं। आखिर सकी अनदेखी कैसे की जा सकती है कि ईमानदार मंशा के बावजूद 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार चुनाव हार गई थी। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि चुनाव से पहले लोजपा, डीएमके और चैटाला की पार्टी राजग से अलग हो गई थी। यदि इनमें से केवल लोजपा ही राजग के साथ रह गई होती तो शायद 2004 का चुनाव नतीजा अलग होता।

आजादी के तत्काल बाद से ही सरकारों में भ्रष्टाचार की छिटपुट खबरें आने लगी थीं परंतु सत्ता में आए स्वतंत्रता सेनानियों के पास पुण्य की पूंजी अपेक्षाकृत बड़ी थी इसलिए वे लगातार तीन चुनाव जीतते चले गए, लेकिन 1967 आते-आते जब भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया तो प्रतिपक्षी दलों ने आपसी एकता बढ़ाई और सीमित सफलता पाई। वर्तमान में दोनों प्रमुख गठबंधनों में ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दल शामिल हैं। नमें से कुछ पालाबदल करते रहते हैं। अगला लोकसभा चुनाव आते-आते ऐसे राजनीतिक दलों का रुख कैसा रहता है, एक हद तक इस पर भी नतीजे निर्भर करेंगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)