नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। हम शहरों में क्यों रहते हैं? कोरोना महामारी से पहले हमने खुद यह सवाल कभी नहीं पूछा। दौड़ती भागती जिंदगी में कभी यह सवाल जेहन में कौंधा ही नहीं। अधिकांश लोगों के लिए गांव और दूरदराज के इलाकों का मतलब शारीरिक संघर्ष है।

सुबह जल्दी उठना, इधर उधर कहीं जाना हो तो पैदल या साइकिल पर जाना, खुद पानी भरना, दूर जाकर सामान खरीदने से पहले यह हिसाब भी लगाना कि कंधे पर कितना बोझ संभाला जाएगा, कितने झोलों की जरूरत पड़ेगी। आटे के लिए गेंहू पहले धोकर सुखाना, फिर उन्हें पिसवाने के लिए चक्की का चक्कर। ये गांवों की जिंदगी में आम है।

गांव में रहते हुए अधिकांश लोग अखबारों की कतरनों और टीवी पर आरामदायक शहर देखा करते हैं। गांव वालों के लिए शहर, मुश्किल जिंदगी से निजात दिलाने वाला बसेरा होते हैं। शहर, जहां बिजली की कटौती कम होती हो, जहां बीमार होने पर फौरन अच्छे अस्पताल पहुंचा जा सके।

बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजा जा सके। वहां शाम ढलते ही घर लौटने के लिए गाड़ी नहीं खोजनी पड़ती है। दुकानें देर शाम तक खुली रहती हैं और वहां तमाम तरह की चीजें मिलती हैं। शहर में नौकरी करने पर तनख्वाह भी समय से मिल जाती है।

सोच पर कोरोना का असर : जीवन में पहली बार हमने एक अभूतपूर्व संकट को पसरते हुए देखा।

बेतरतीब जीवनशैली से भरे शहर अचानक डराने लगे। किसी भी चीज को छूने में हम असहज होने लगे। लगने लगा कि इस भीड़ में न जाने कौन कोरोना से पीड़ित हो। आम जिंदगी करीब दो महीने ठप हो गई। लेकिन लॉकडाउन ने हमें अहसास करा दिया कि हमारा पूरा सिस्टम और हमारे शहर एक मृगमरीचिका जैसे हैं।

इस दौर में हमने प्रवासी कामगारों को गिरते पड़ते गांव लौटते हुए देखा। क

ई दृश्य बेहद मार्मिक थे। फफकते लोगों के साथ हम भी महसूस करने लगे कि मुसीबत में आखिरकार गांव की छांव याद आती है। गांव की मिट्टी एक गजब की मानसिक सुरक्षा देती है। हमेशा लगता है कि जीवन में बड़ी विपत्ति भी आ जाए तो जमीन पर गुजारे के लायक कुछ उगा लेंगे।

उपहार के बदले उपहास : 

इस कदर सहारा देने वाले गांवों की हम सब शहरियों ने क्या हालत की है, यह किसी से छुपा नहीं हैं। हमारी नजर में ग्रामीण पिछड़े लोग हैं, जिन्हें न तो कपड़े पहनने का सलीका है और ना ही बातचीत करने का। किसान या किसान से मजदूर बने शख्स के पसीने की गंध हम शहरियों को दुर्गंध लगती है। लेकिन इसके बावजूद इन दिनों हमें ऑर्गेनिक खाने की तलाश है। हम चाहते हैं कि गांवों से बिना रसायनों वाली साग सब्जी हम तक पहुंचे। हम चाहते हैं कि हमारे एशो आराम में खलल न पड़े। लेकिन अगर गांव इसी तरह खाली रहे तो हमारे मायावी शहरों का क्या होगा?

कोरोना ने दिया भूल सुधार का मौका :

कोरोना महामारी ने दिखा दिया है कि आज एक ठीक ठाक इंटरनेट कनेक्शन के साथ दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठकर कई काम किए जा सकते हैं और किए भी जा रहे हैं। स्कूल बंद हैं और ऑनलाइन क्लासेज हो रही हैं। रही बात रोजगार की तो इंटरनेट इसे भी बदल रहा है। अब कई लोगों के सामने दो विकल्प हैं, दूषित हवा और बीमार जीवनशैली वाले शहर की नौकरी या इंटरनेट के सहारे किसी सुकून भरे कोने में रहते हुए जिंदगी का जायका।

आजादी के बाद से लेकर अब तक हमने गांवों को नकारा है। उन्हें बेहतर बनाने के बजाय हमने वहां से पलायन किया है। लेकिन कोरोना महामारी ने दिखा दिया है कि गांव का आंचल कितना विशाल है। हमें गांवों और शहरों को अजनबी नहीं, बल्कि दोस्त बनाना होगा। ऐसे दोस्त जो पृष्ठभूमि, संप्रदाय और भाषाई अंतर को दरकिनार कर एक दूसरे को सहारा दे सकें। (डीडब्ल्यू से संपादित अंश, साभार)