[ आलोक पुराणिक ]: मैं पिछले साल ही डर रहा था, क्योंकि कोविड नामक महामारी का नाम ‘क’ से शुरू होता है। तमाम धारावाहिकों से हमने यह सीखा है ‘क’ अक्षर से शुरू होने वाला सीरियल जल्द समाप्त नहीं होता। ‘कुमकुम भाग्य’, ‘कहानी घर-घर की’ से लेकर ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ तक यह सिलसिला कायम रहा। अब कोरोना सीजन टू शुरू हो गया है। लगता है कि एकता कपूर के धारावाहिकों से कोरोना ने विकट शिक्षा ले ली है कि जल्दी मत निपटाओ। फंसाए रहो। लहरें गिनी जा रही हैं, दिल्ली में एक और लहर आ गई है। सरकारों की कमाई कम हो रही है। एक बार फिर शराबियों का आसरा है। खूब पियें और कर संग्रह बढ़ाएं। शराबी टैक्सपेयर और खोटा सिक्का कभी न कभी काम आ जाता है। शराबियों से उम्मीदें ही उम्मीदें हैं। कहीं दोबारा लॉकडाउन न लग जाए, इस आशंका में कई शराबियों ने स्टॉक जमा करना शुरू कर दिया है। शराबी अपने स्टॉक को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। पिछले साल जब लॉकडाउन शुरू हुआ था, तब मैं परेशान था कि आटे का दस-पंद्रह किलो का स्टॉक घर में है या नहीं? पड़ोस के वरिष्ठ शराबी चिंतित थे कि दो महीने का स्टॉक है या नहीं? शराबियों के लेवल अलग होते हैं। आम आदमी आटे की चिंता में घुलता है, पर शराबी इस सबसे ऊपर उठ जाता है।

कोरोना पर फिल्म बनाने का प्लान

सीजन टू सामने है। एक फिल्मकार कह रहे थे कि कोरोना पर फिल्म बनाने का प्लान है, पर क्या पता कि फिल्म आते-आते कोरोना खत्म हो जाए। बात में दम है। बंदा इन्वेस्ट करे और रिजल्ट आने से पहले ही कोरोना चला जाए। कोरोना गया नहीं, जम गया है। क्या करें, इम्युनिटी बढ़ाते-बढ़ाते एक साल हो गया। काढ़ा कब तक पीना है, यह सवाल उसी तरह का हो गया है कि गरीबी कब हट जाएगी। कम इम्युनिटी वाला बंदा घर में चुपचाप पड़ा रहता है। इम्युनिटी बहुत बढ़ जाए तो बंदा कई तरह की खुराफातें करने लग जाता है। एक दादाजी की इम्युनिटी बहुतै मजबूत हो गई तो उन्होंने मुसीबत खड़ी कर दी। वह रोज डपटने लगे-फ्रिज में वह वाला दूध तीन दिन से रखा है और वह वाली दाल चार दिन से रखी है-टाइप बयान जारी करने लगे। कोरोना ने पहले ही आफत कर रखी है। वर्क फ्रॉम होम में दिन भर पति और पत्नी को एक दूसरे को झेलने का अभ्यास करना पड़ा है।

कोरोना काल की ऑनलाइन पढ़ाई

कोरोना ने बहुत तरह की आफत कर दी है। सिनेमाहॉल की जगह मोबाइल और घर के टीवी-लैपटॉप ने ले ली है। उस पर आने वाली सामग्री में भयंकर गाली-गलौज होती है। अब नए सीरियलों में तभी काम मिलता है, जब बंदा प्रति मिनट पचास गालियां मुंह से निकाल सके। क्या-क्या दिन देखने पड़ रहे हैं। साधु संतों के रोल करने वाले अभिनेता गालियों का रियाज कर रहे हैं। गालियां भी बहुत रचनात्मक टाइप की। वहीं नए दौर के अध्यापक कोरोना काल की ऑनलाइन पढ़ाई से एडजस्ट कर रहे हैं, मगर पुराने मास्टरों के जेहन में एक सवाल तैरता रहता है। तीन दशक पहले रिटायर हुए एक मास्टरजी ने पूछा-ऑनलाइन पढ़ाई में क्या खाक पढ़ाई होती है? जब तक बच्चे के कान न उमेठो तो क्या खाक पढ़ाया? ऑनलाइन कान उमेठो या ऑनलाइन चपत लगाने का सॉफ्टवेयर अभी न आया। अच्छा हुआ ये मास्टरजी पहले ही रिटायर हो लिए, वरना अब बड़ी दिक्कत में होते। इधर वैक्सीन अभियान भी शुरू हो गया है। वैक्सीन लगवाइए। पहली डोज, दूसरी डोज और अभी तीसरी बूस्टर डोज की भी चर्चा है। ऐसा रहा तो चौथी-पांचवीं बूस्टर डोज भी आ ही जाएगी।

गरीबी हटाओ की तरह कोरोना हटाओ का नारा

खबरों में फिर कोरोना है। कोरोना यूं ही लंबा चल जाए, तो फिर स्पेशलिस्ट किस्म के बाबा भी कोरोना में डील करने लग जाएंगे। अभी बाबा फेसबुक झाड़ने के लेवल पर तो आ गए हैं। बंदा या बंदी दिन-रात फेसबुक में फंसे रहें तो उनके सिर से फेसबुक का भूत झाड़ने वाले बाबा हैं, लेकिन अभी तक कोरोना के स्पेशलिस्ट बाबा न आ पाए हैं। बाबा आएंगे। बाबा दरअसल नेताओं की तरह होते हैं। कर कुछ भी न पाएं, हल कुछ भी न दे पाएं, पर हल का वादा दे जाते हैं। कोरोना अगर नेताओं के वादे से सॉल्व होना होता तो गरीबी हटाओ की तरह कोरोना हटाओ का नारा ही चल रहा होता। उत्तर भारतीय कोरोना बनाम महाराष्ट्रीय कोरोना-टाइप बवाल मच रहे होते।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]