[ संतोष त्रिवेदी ]: जनसेवक जी खचाखच भरी रैली से आ रहे थे। चेहरा मास्कविहीन था इसलिए सफलता के साथ शर्म भी नजर आ रही थी। मुझे देखते ही वह अतिरिक्त उत्साह से भर गए। उनके चेहरे से इतना आत्मविश्वास टपक रहा था कि वह ‘दो गज की दूरी’ की भी परवाह नहीं कर रहे थे। उनसे दो गज की दूरी बनाने में मुझे स्वयं पर शर्म आने लगी और देश में चहुं-दिसि छाए ‘पॉजिटिव’ माहौल को नकारात्मक नजरिये से देखने के लिए ख़ुद को जिम्मेदार समझने लगा। तभी जनसेवक जी ने मेरी दुविधा ताड़ ली। वह चुनाव-सिंचित वाणी में बोलने लगे, ‘मित्र! इसमें आपका दोष किंचित मात्र नहीं है।

जनसेवक का चेहरा मास्कविहीन, चुनावी रैली में ‘दो गज की दूरी’ की भी परवाह नहीं करते

हम तो कर्मवीर, वाणीवीर और भाग्यवीर ठहरे। अपना कर्म नियत तरीके से कर रहे हैं। केवल कर्म पर हमारा अधिकार है, यह गीता में भी कहा गया है। इसलिए कर्म करने में कैसी शर्म! यह समझिए कि जनता ने हमें चुना इसीलिए है कि हम चुन-चुनकर उसका उद्धार करें। चुनाव तो हमारे लिए ‘अश्वमेध-यज्ञ’ के समान है। आखिरी घोड़े की जीत से पहले हम विश्राम नहीं कर सकते। जाहिर है, इस ‘महायज्ञ’ में अनेक आहुतियां भी होंगी। हम उनके असीम बलिदान और योगदान को कभी नहीं भूलेंगे। हमने पहले भी बदलाव किए हैं, आगे भी करते रहेंगे। इसके लिए हम प्रतिबद्ध हैं। आप जरा सा चश्मा हटाकर देखें, मेरी ही लहर चल रही है।’

कोरोना की दूसरी लहर की चिंता, यह ज्यादा ही बड़े बदलाव कर रही

‘मगर मेरी तो चिंता दूसरी लहर के बारे में है। यह वाली कुछ ज्यादा ही बड़े बदलाव कर रही है। देश में एक ऐसी नासमझ भीड़ पैदा हो गई है, जो रैलियों और मेलों के बजाय अस्पतालों, स्टेशनों और श्मशानों में उमड़ रही है। चिताएं शवदाह-गृहों के बजाय सड़कों और खुले मैदानों में जल रही हैं। इससे चुनावी संभावनाएं तिरोहित होने का खतरा तो नहीं पैदा हो गया है?’ मैंने एक बेहद जरूरी सवाल पूछ लिया।

‘चुनावी रेले’ और आस्था के मेले में नई ऊर्जा देते जनसेवक 

‘देखिए, हम सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं। इसलिए यहां लोकतंत्र और आस्था का पर्व हम एक साथ मना सकते हैं। लोग अपनी-अपनी आस्था की रक्षा के लिए स्वतंत्र हैं। यह महामारी बेरोजगारी की तरह कहीं भागी नहीं जा रही हैं। हम बाद में भी निपट लेंगे। यह अब हम सबके साथ ही रहने वाली है। वैसे भी मृत्यु तो सबका आखिरी पड़ाव है। अंतिम लक्ष्य से कैसा डर। डर के आगे ही ‘जीत’ है। वह हमें जल्द मिलने वाली है। हकीकत यह है कि ‘चुनावी रेले’ और आस्था के मेले हमें नई ऊर्जा देते हैं। इसलिए हम जान पर खेलकर भी लोगों की आस्था की रक्षा करते हैं। अधिकांश लोगों की आस्था अस्पतालों के बजाय मंदिर-मस्जिद में ही है। यही वजह है कि लोगों का भरोसा सरकार से भी ज्यादा ऊपर वाले पर है। अब जनभावनाओं का सम्मान हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?’ जनसेवक जी बिना नजरें झुकाए एक सांस में सब कह गए।

‘तड़ातड़ हो रही मौतों का जवाब ताबड़तोड़ रैलियों से दे रहे

मैंने उनकी आगामी कार्ययोजना के बारे में जानना चाहा। उन्होंने आंखें मूंद लीं और भावशून्य होते हुए बोले, ‘तड़ातड़ हो रही मौतों का जवाब हम ताबड़तोड़ रैलियों से दे रहे हैं। हम न कभी झुके हैं, न झुकेंगे। बिना जनसहयोग के हम रोज नए रिकॉर्ड नहीं बना सकते थे। हम तो इतने उदार हैं कि इस ‘ऐतिहासिक उपलब्धि’ का श्रेय जनता को ही दे रहे हैं। हमारे लिए वही सर्वोपरि है। और कोई ‘कठिन सवाल’ बचा हो तो बताइए,अभी हल कर देते हैं।’ ‘नहीं, एक सरल सवाल बचा है, पर इसका उत्तर जरूरी नहीं है। यही कि दिन-रात टीके को कोसने वाले अब नए सिरे से कोसने की संभावनाएं तलाश रहे हैं। उनका मानना है कि ज्यादा टीके होते तो वे बेहतर ढंग से उनकी बर्बादी को कोसते। सरकार ने उन्हें यह मौका पूरी तरह क्यों नहीं दिया?’

कविताओं की दूसरी लहर कोरोना से भी तेज

जनसेवक कुछ कहते कि तभी कविश्री आते दिखाई दिए। फेसबुक से ताजा डुबकी लगाकर लौटे थे। उनकी कविताओं की दूसरी लहर कोरोना से भी तेज मारक साबित हो रही है। जनसेवक जी के आग्रह पर उन्होंने कविता पेश की:

‘परीक्षाओं से घबराते हैं बच्चे उन्हें देने होते हैं हल।

नेता बच्चे नहीं हैं वे केवल करते हैं चर्चा

और सवालों को देते हैं कुचल।’

ये पंक्तियां सुनते ही जनसेवक जी उछल पड़े।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]