[ प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ]: एक विषाणु यानी कोरोना वायरस ने एटमी हथियारों से लैस दुनिया में खलबली मचा दी है। विकसित राष्ट्रों में भय और संत्रास से बाहर निकलकर र्आिथक गतिविधियां शुरू करने की मांग सुनाई दे रही है। इस मांग के समानांतर कुछ अहम प्रश्न भी हैं। जैसे कि विज्ञान और तकनीक के शीर्ष पर पहुंचे हुए राष्ट्र आखिर स्वास्थ्य सुविधाओं और जीवन रक्षक उपकरणों के अभाव से क्यों जूझ रहे हैं? लंदन, रोम, पेरिस और इन सबसे बढ़कर न्यूयॉर्क इस महामारी के सबसे अधिक चपेट में आने वाले नगर क्यों साबित हुए? आर्थिक गतिविधियों का तात्पर्य न तो कृषि है और न ही कृषि आधारित ऐसे उत्पाद जो मनुष्य के लिए अपरिहार्य हैं।

जिनकी मेहनत के बल पर शहरों में चकाचौंध है उनको गांव स्वीकार करने के लिए खड़ा है

भारतीय संदर्भों में सभ्यता की दृष्टि से दो महत्वपूर्ण स्थितियां हैं। एक इस विपत्ति के समय नगरीय जीवन उनको सहेजने और संभालने के लिए तैयार नहीं है, जिनकी मेहनत के बल पर संसार के जीवन की चकाचौंध है तो गांव उनको स्वीकार करने के लिए खड़ा है जिसे उन्होंने कुछ अधिक सुविधाओं और सुख के लिए छोड़ दिया था। भारत में दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलुरु ये सब समाज जीवन के क्षेत्र में डार्विन के उस सिद्धांत के सशक्त उदाहरण बनकर उभरे हैं जिसमें निर्बल के जीवन के लिए कोई मतलब नहीं है। 

गांधी ने कहा था कि रेलगाड़ी महामारी फैलाती है, इसलिए बंद होनी चाहिए

महामारी के इस कालखंड के बाद भौतिकवादी लालच और उदारवादी अहंकार के बीच का प्रत्यक्ष युद्ध भी आसन्न है। ऐसे में कोरोना के बाद का जीवन कैसा होगा, इसको लेकर दुनियाभर के नीतिकार, राजनीति विज्ञानी, समाजशास्त्री और मनोविज्ञानी विचार-मंथन कर रहे हैं, पर जिस एक बात की सबने उपेक्षा की वह यह कि उत्पादकता और उपभोग की उत्तर आधुनिक सभ्यता ने मनुष्य को ऐंद्रिक आस्वाद का किस कदर गुलाम बनाया है। भारत जैसे पारंपरिक देश में शराब की दुकानों के सामने लगने वाली लंबी कतारें इसका सुबूत हैं। इसलिए आज समकालीन सभ्यता पर एक मौलिक विमर्श होना वक्त की मांग है जैसे गांधी ने 1909 में हिंद स्वराज पुस्तक के माध्यम से खड़ा किया था। 1909 में हवाई जहाज नहीं थे। रेलगाड़ियां थीं तो बीमारी धीरे फैलती थी। फिर भी गांधी ने कहा कि रेलगाड़ी महामारी फैलाती है, इसलिए बंद होनी चाहिए। कोरोना वायरस से उपजी महामारी हवाई जहाजों के जरिये फैली।

कोरोना फैलाने वाले लोग विमानों से ही चल रहे थे

चीन से प्रारंभ होकर पूरी दुनिया के दो सौ देशों में कोरोना फैलाने वाले लोग विमानों से ही चल रहे थे और उनमें न कोई अशिक्षित था न कोई अशक्त। महामारियां तो हर सौ-डेढ़ सौ साल में फैली हैं, पर दुनिया के इतने अधिक देशों को ग्रसने वाली महामारी पहली बार आई है। इसलिए पहली बार यह महसूस किया जा रहा है कि विकसित

होना, समृद्ध होना और सामरिक रूप से ताकतवर होना किसी भी राष्ट्र या समाज के सुखमय जीवन की गारंटी नहीं है, बल्कि अपने मूल के साथ जुड़े रहना, धरती के हजारों साल के अनुभव से विकसित जीवन प्रणाली को स्वीकार करना और स्वआश्रित समाज का निर्माण ही संपोष्य सभ्यता के आधार हैं।

महामारी के बाद की दुनिया और अधिक अमानवीय होगी

कोरोना ने एक और सवाल खड़ा किया है। ग्लोबल विलेज की अवधारणा मनुष्यों के मुक्त अंतरण, मुक्त व्यापार और वैश्विक आर्थिक गतिविधियों से नहीं मूर्त होगी, अपितु तब मूर्त होगी जब स्वाधीनता को मूल्य मिलेगा। प्रवजन पर आधारित समाज व्यवस्था के स्थान पर स्थाई और स्थिर समाज व्यवस्था का निर्माण करना होगा, अन्यथा इस महामारी के बाद की दुनिया और अधिक अमानवीय होगी। इसके लिए राष्ट्रों को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। अपने नागरिकों को ऐंद्रिक सुख के जीवन के स्थान पर वास्तविक जीवन सुख की प्राप्ति की विधि का प्रशिक्षण देना होगा।

गांधी ने कहा था- देश का सच्चा स्वराज भारत के लिए ही नहीं, अपितु पूरी दुनिया के लिए जरूरी है

भारतीय संदर्भों में तो यह कहा जा सकता है कि परंपरागत भारतीय जीवन का ढांचा फिर से खड़ाकर समाज नया होगा, पर पुराने मूल्य स्वीकार करके। गांधी ने 1909 में ही इस बात को साफ शब्दों में कहा था कि भारत को सच्चे स्वराज की स्थापना करनी होगी। भारत का सच्चा स्वराज केवल भारत के लिए जरूरी नहीं है, अपितु पूरी दुनिया के लिए जरूरी है। यह सही है कि 21वीं सदी का जो समाज है उसे 1909 में नहीं ले जाया जा सकता, लेकिन मानव सभ्यता का इतिहास हजारों वर्षों का है।

कोरोना महामारी ने स्टारवार की कल्पनावाली सभ्यता की चूलें हिला दी हैं 

हर आपदा और बड़े युद्ध के बाद दुनिया ने दिशा बदली है। लक्ष्य बदले हैं। इस महामारी ने स्टारवार की कल्पनावाली सभ्यता की चूलें हिला दी हैं। मंगोलिया, कंबोडिया, वियतनाम, भूटान और काफी हद तक भारत भी खड़ा है तो इसलिए कि यहां गांव जिंदा हैं, कृषि की संस्कृति जिंदा है। इन सब जगहों पर खेती व्यापार नहीं है। जीवन का आधार थी और है। कृषि का तात्पर्य है उगाना। बनाना नहीं। बनाते हैं तो कृत्रिम होता है, उगाते हैं तो सहज होता है। जब हम उगाने या उपजाने से विमुख होकर बनाने और उत्पादित करने की सभ्यता निर्मित करते हैं तो वह कृत्रिम होती है और सहज स्वाभाविक जीवन के विरुद्ध भी।

प्रकृति और परिवेश सहचर हों, ऐसी सभ्यता ही उत्तर कोरोना काल की मांग है

इसे फिर एक बार दुनिया को समझना होगा, अन्यथा कोई नया विषाणु किसी नए देश में पैदा होगा और फिर दुनिया में तहलका मचाएगा। भय और आशंका पर आधारित जीवन सभ्य नहीं हो सकता। सभ्यता तो वही है जो सब में निर्भयता पैदा करे। निर्भयता सब व्यक्तियों में, राज्यों में, राष्ट्रों में हो। मनुष्य और प्रकृति का आपस में कोई बैर नहीं हो। पारस्परिकता की सभ्यता हो। कोरोना के बाद का कालखंड ऐसी ही सभ्यता की मांग कर रहा है। प्रकृति और परिवेश सहचर हों, ऐसी सभ्यता ही उत्तर कोरोना काल की मांग है।

कोरोना ने दी सीख: कोरोना के बाद की सभ्यता जियो और जीने दो की सभ्यता होनी चाहिए

कोरोना ने कुछ सीख भी दी है। उसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि मनुष्य की जरूरतें बहुत सीमित हैं। दुनिया बिना तेल जलाए चल सकती है। दुनिया जल-थल और आकाश को गंदा किए बिना भी चल सकती है। जिस रास्ते दुनिया पांच महीने चल सकती है उस रास्ते चलने की सभ्यता दृष्टि या विश्व व्यवस्था निर्मित की जाए तो हम आने वाले कई सौ वर्षों के लिए स्वस्थ और आनंदमय विश्व र्नििमत कर सकते हैं। कोरोना के बाद की सभ्यता मनुष्य के लालच और लोलुपता की नहीं, जियो और जीने दो की सभ्यता होनी चाहिए। पराश्रितता और परजीविता की सभ्यता न होकर स्वाश्रितता और पारस्परिकता की सभ्यता होगी। मानव के स्वाभिमान और मानवता के कल्याण की सभ्यता होगी।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं )