उमेश चतुर्वेदी। त्रिपुरा में जनादेश आते ही पच्चीस साल के वामपंथी शासन के प्रतीकों पर हमला शुरू हो गया। लेनिन की प्रतिमा तोड़ दी गई। इसे लेकर बौद्धिक वर्ग के एक तबके ने सवालों की बौछार शुरू कर दी। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप कोलकाता में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया गया तो मेरठ में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा से लेकर सुदूर दक्षिण तमिलनाडु में पेरियार की प्रतिमा को भी नुकसान पहुंचाया गया। यहां तक कि केरल के कन्नूर में गांधी की प्रतिमा को भी नहीं बख्शा गया। जाहिर है कि इस पर देश में बवाल मचा। इसे लेकर सवाल उठने भी चाहिए कि लोकतांत्रिक समाज में सत्ता का दर्शन और चेहरा बदलते ही उसके प्रतीकों को हमेशा के लिए आखिर क्यों उखाड़ फेंक देना चाहिए। हालांकि एक वर्ग को यह यह घटना इसलिए चिंतित नहीं करती कि सत्ता से बेदखल हो चुकी एक विचारधारा के प्रतीक की प्रतिमा तोड़ी गई, बल्कि उन्हें चिंता इस बात की है कि दुनिया में कथित बदलाव का सपना देखने-दिखाने वाले एक प्रतीक की प्रतिमा तोड़ी गई।

सोशल मीडिया पर इन दिनों लेनिन की प्रतिमा तोड़ने वालों की तालिबान के कृत्यों से तुलना की जा रही है। अफगानिस्तान की सत्ता हथियाने के बाद तालिबान ने बामियान की पहाड़ियों पर बनी भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ दिया था, जिसकी पूरी दुनिया ने कड़ी निंदा की थी। लेकिन भारतीय संसद में एक विचारधारा ऐसी थी जो तालिबान के प्रति सहानुभूति रखती थी। एक ही तरह की घटनाओं की व्याख्या अलग-अलग अंदाज में करना सोशल मीडिया के कुछ रणबांकुरों को भले ही स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन असल जिंदगी में लोग इसे दूसरे ही अर्थ में लेते हैं।

बामियान में भी मूर्तियां तोड़ी गई थीं

बामियान की मूर्तियां तोड़ने को लेकर भारतीय समाज में कहीं ज्यादा पीड़ा थी। इसे लेकर संसद में बहस भी हुई और तब प्रतिपक्ष में रही कांग्रेस और वामदलों ने इसे नृशंस कृत्य बताने के बजाय इतना कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की थी, तालिबान ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इसे अंजाम दिया है। उन दिनों शरीयत आधारित शासन व्यवस्था लागू करने वाले तालिबान ने अफगानिस्तान को मध्यकालीन अंधेरा युग वाली बर्बरता के दौर में पहुंचा दिया था। जब पूरी दुनिया तालिबान के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई की हिमायती बनी हुई थी, तब भारत के विपक्षी दल उसके प्रति सहानुभूति जताने की सोच रखते थे। इसलिए त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा गिराने की कार्रवाई को तालिबान की कार्रवाई से जोड़ना उचित प्रतीत नहीं होता।

रूस में भी लेनिन का नामलेवा नहीं बचा...

याद कीजिए, सोवियत संघ को और इराक को। जब सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन का खात्मा हुआ और सोवियत संघ का विघटन हुआ तो वहां भी लेनिन की प्रतिमाएं गिराई गईं। जिस लेनिन के नाम पर रूस के दूसरे बड़े प्राचीन शहर का नाम कम्युनिस्ट शासन ने लेनिनग्राद रखा था, उसका नाम फिर से सेंट पीटर्सबर्ग रख दिया गया। इराक में भी जब सद्दाम की सत्ता का अंत हुआ तो जनता सड़कों पर उतर आई और सद्दाम की प्रतिमाएं गिराने लगी। लीबिया में भी यही हुआ, कर्नल गद्दाफी के अंत के बाद वहां भी जनता ने गद्दाफी से जुड़े प्रतीकों को तहस-नहस करना शुरू कर दिया।

...तो माणिक सरकार से परेशान थी जनता

अफगानिस्तान में भी जब तालिबान की मध्ययुगीन बर्बर सत्ता का अंत हुआ तो लोगों ने उससे जुड़े प्रतीकों को तोड़ दिया। लेनिन की प्रतिमाएं तोड़े जाने को दूसरे अर्थों में भी लेना चाहिए। इसका एक मतलब तो यह भी हो सकता है कि लेनिन की विचारधारा को अपना आदर्श मानने वाली सरकार अपने ढाई दशकों के शासन काल में लोगों के उन सपनों को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाई है, जिन्हें दिखाकर उसने लोगों का समर्थन हासिल किया था। लेनिन की प्रतिमा तोड़ने का एक मतलब यह भी हो सकता है कि लोग माणिक सरकार से इतने परेशान हो चुके थे कि उन्हें अपने गुस्से के प्रतिकार का यह भी एक रास्ता नजर आया। दरअसल जनता ऐसे कदम तभी उठाती है, जब वह अतीतगामी होती सत्ताओं और विचारधाराओं के अतिवाद से पक चुकी होती हैं। तभी भीड़तंत्र भी अतिवादी कदम उठाता है।

जब प्रतिमा गिरी तब तो माणिक ही 'सरकार' थे

बेशक लोकतांत्रिक समाज में ऐसे कदम सही नहीं माने जाते। भाजपा पर लाख आरोप लगाए जा रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि जब लेनिन की प्रतिमा तोड़ी गई, तब त्रिपुरा में भाजपा की सरकार नहीं थी। तब माणिक सरकार की ही अगुआई में कार्यवाहक सरकार काम कर रही थी। कोई सवाल नहीं है कि इस सरकार का आदेश मानने से प्रशासन और पुलिस इन्कार कर देता। उन्हें इस बात का अंदाजा होना चाहिए था कि सत्ता बदलने के बाद कानून-व्यवस्था को लेकर ऐसे सवाल उठेंगे। वैसे भाजपा ने इसके पीछे अपना हाथ होने से साफ इनकार कर दिया है और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने भी इस पर अपनी नाखुशी जाहिर की है। वैसे जिन राज्यों में वाम विचारधारा वाली सरकारें रही हैं, वहां से छनकर आने वाली खबरें पार्टी तंत्र के वर्चस्व और प्रशासन के पंगु होने की कहानियों से भरी रही हैं।

पश्चिम बंगाल हो या त्रिपुरा, उनका चरित्र एक ही रहा है। इससे जनता त्रस्त रही है। ऐसे में तो माणिक सरकार की कार्यवाहक सत्ता को इसका अंदाजा होना चाहिए था कि उनकी असल सत्ता जाते ही त्रिपुरा के लोग बदले की भावना से भी सड़कों पर उतर सकते हैं। इसलिए उन्हें एहतियाती कार्रवाई करनी चाहिए थी।

प्रतिमाएं तोड़ने से विचारधारा नहीं मरती

लेनिन की प्रतिमा तोड़ने को लेकर भाजपा को संस्कारहीन कहा जा रहा है। दुर्भाग्यवश इसे तार्किक ढंग से स्वीकार भी किया जा रहा है, लेकिन लोग यह भूल रहे हैं कि त्रिपुरा की सत्ता पर काबिज होने से पहले मुख्यमंत्री विप्लब देब ने किस तरह माणिक सरकार के पैर छूकर आशीर्वाद लिया है। याद कीजिए, जब प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कोलकाता की यात्रा की थी तो उन्हें बर्बर विचारधारा का प्रतीक बताते हुए पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने प्रोटोकाल के तहत उनकी आगवानी करने से भी इन्कार कर दिया था। वैसे भी प्रतिमाएं तोड़ने भर से विचारधाराएं नहीं मर जातीं। प्रतिमाएं तो सिर्फ प्रतीक होती हैं और प्रतिमाएं तोड़ने का महत्व हवा में तलवार भांजने से ज्यादा नहीं है। लोकतांत्रिक समाज में विचारधाराओं को शिकस्त जमीनी स्तर पर बड़ी लकीर खींचकर ही दी जा सकती है उसका दायरा सिकोड़कर नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)