[ हृदयनारायण दीक्षित ]: मनुष्य प्रकृति का चिंतनशील प्राणी है। वह प्रतिपल सोचता है। सोच-विचार के नए क्षेत्रों में प्रवेश करता है। चिंतन विवेचन से अंत में प्राप्त निष्कर्ष को सिद्धांत कहा जाता है, लेकिन सिद्धांत निरपेक्ष नहीं होते। सिद्धांत या वाद के प्रतिवाद भी होते हैं। इनकी आलोचना भी होती है। आलोचना निंदा नहीं है। भारतीय चिंतन में आलोचना रचनात्मक गतिविधि है। लोकमंगल की साधना में आलोचना का भी सदुपयोग है। सोचने की भारतीय दृष्टि में कटु आलोचना का भी स्वागत रहा है। कबीर ने निंदक को भी अपने आंगन में आश्रय देने का उपदेश दिया है।

पीएम मोदी रचनात्मक आलोचना के पक्षधर

आलोचना पूरक और वैकल्पिक विचार भी होती है, लेकिन भारतीय राजनीति में रचनात्मक आलोचना नहीं है। यहां आलोचना का अर्थ व्यक्तिगत आरोप हैं। विपरीत विचार के प्रति आदरभाव नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक कार्यक्रम में ‘रचनात्मक आलोचना के स्वागत व आदर’ की बात कही है। भारतीय विवेक में विपरीत विचार का आदर रहा है। मोदी ने ठीक कहा है कि ‘सार्वजनिक जीवन में विभिन्न विचारधाराओं वाले व्यक्ति व संगठनों के बीच संवाद होना चाहिए। विपरीत विचारधाराओं को सुनने की सभ्यता शालीनता भी होनी चाहिए।’

भारत में प्रेमपूर्ण संवाद का अभाव

सत्य सार्वभौम और सर्वकालिक होता है। भारतीय चिंतन के अनुसार सत्य पर देशकाल का प्रभाव नहीं पड़ता इसलिए सबके अपने निजी सत्य नहीं हो सकते। सत्य लोकमंगल का अधिष्ठान भी है। वाद, प्रतिवाद, संदेह और संशय सत्य के अंग हैं। इसलिए प्रत्येक विचार आदर योग्य है। संसदीय राजनीति में अनेक मत होते हैं। उनके मध्य सतत संवाद होते रहना चाहिए, लेकिन भारत में प्रेमपूर्ण संवाद का अभाव है। बहस कम है, टकराव ज्यादा है। टकराव भी विचार पर कम है, व्यक्तिगत टकराव का अराजक माहौल है।

लोकतंत्र में भी विरोधी गुणों का सहअस्तित्व हो सकता है

ऋग्वेद के ऋषि संवाद विज्ञान के प्रथम संस्थापक हैं। कुछेक जल को आदि तत्व मानते थे और कुछ अग्नि को, लेकिन भिन्न विचार के बावजूद वे प्रकृति में विरोधी तत्वों का सहअस्तित्व देखते थे। प्रकाश के साथ अंधकार का सहअस्तित्व आश्चर्यजनक है, लेकिन सत्य यही है कि प्रकाश का घटते जाना अंतत: अंधकार है और अंधकार का घटते जाना अंतत: प्रकाश है। प्रकृति में विरोधी गुणों का सहअस्तित्व है तो लोकतंत्र में भिन्न विचार वाले सत्तापक्ष और विपक्ष का सहअस्तित्व क्यों नहीं हो सकता?

सहमति और असहमति भारतीय लोकतंत्र के दो पंख

सहमति और असहमति भारतीय लोकतंत्र के मन की उड़ान के दो पंख हैं। दोनों स्थाई भाव नहीं हैं। दोनों परिवर्तनशील हैं। सहमति को असहमति और असहमति को सहमति बनते देर नहीं लगती। सहमना संवाद जरूरी है। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में साथ-साथ चलने और प्रेमपूर्ण संवाद करने की स्तुति है। इसमें उल्लेख है, ‘पूर्वजों ने भी परस्पर संवाद करते हुए सत्कर्म किए थे।’ संवादरत रहना भारतीय संस्कृति का मुख्य तत्व है। विचारधाराओं का भिन्न रहना कोई अवगुण नहीं है।

मोदी को रचनात्मक आलोचना की प्रतीक्षा

मोदी ने ठीक ही कहा कि बहुत लोगों की सोचने की शैली मुझसे भिन्न हो सकती है, लेकिन चिंतनशील लोगों की रचनात्मक आलोचना की मुझे प्रतीक्षा रहती है।’ रचनात्मक आलोचना ही राष्ट्र की सिद्धि और समृद्धि में सहायक हो सकती है। रचनात्मक आलोचना राष्ट्र और समाज का ही आत्मोद्घाटन होती है। वह सुस्थापित तथ्यों को और मजबूत करने के नए तथ्य देती है। संदेहों का निवारण करती है और गलती सुधारने का अवसर भी देती है। ऐसी आलोचना वाली असहमति भी सौंदर्यपूर्ण होती है। लोकतंत्र में ऐसी असहमति की महत्वपूर्ण भूमिका है।

वाद-विवाद और संवाद की परंपरा बहुत पुरानी

भारत में वाद-विवाद और संवाद की परंपरा बहुत पुरानी है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ‘आन्वीक्षिकी त्रयी, वार्ता व दंडनीति का उल्लेख किया है। दर्शन आन्वीक्षिकी है। आन्वीक्षिकी लोक उपकार की विद्या है। त्रयी वेद है। वार्ता का विषय कृषि-पशुपालन है।’ बृहस्पति कौटिल्य से बहुत प्राचीन हैं। उनके अनुसार वार्ता और दंडनीति दो विद्याएं प्रमुख थीं। वार्ता का महत्व बताते हैं ‘यह विद्या धान्य, पशु, सोना, ताम्र आदि देने वाली उपकारिणी है। इस विद्या से उपार्जित कोष व सेना के बल पर राजा स्वपक्ष व विपक्ष को वश में करता है।’ आन्वीक्षिकी की तरह चरक संहिता में ‘युक्ति’ है। ज्ञान के आधार पर अज्ञात को जानने का प्रयत्न ‘युक्ति’ है।

दंडात्मक आलोचना, असत्य भाषण की कोई जगह नहीं

न्याय सूत्र में संशय संदेह आदि संवाद विषयों का विवेचन है। ‘प्रमाण’ पर जोर है। फिर विवाद के विषय का ज्ञान व ‘संशय’ हैं। प्रयोजन, उदाहरण, सिद्धांत और अनुमान के घटक मिलाकर संवाद और आलोचना के मुख्य आठ तत्व हैं। दंडात्मक आलोचना, असत्य भाषण, विषयांतर और आक्षेप आदि की कोई जगह नहीं है। न्याय दर्शन के साथ ही वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत में संवाद के सूत्र हैं। सबका उद्देश्य सत्य और आनंद की प्राप्ति है।

गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपशब्द नहीं प्रयोग किए

रचनात्मक आलोचना किसी विचार का वैकल्पिक पक्ष होती है। ऐसे आलोचक के मानस का निर्माण आधारभूत सत्यों से होता है। इतिहास बोध इसकी नींव होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण यथार्थवादी बनाता है। गांधी जी का उदाहरण पर्याप्त है। उन्होंने अंग्रेजी राज की कटु आलोचना की, लेकिन आलोचना में भी सत्यनिष्ठा थी। गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपशब्द नहीं प्रयोग किए। उन्होंने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए विलियम हंटर की पुस्तक ‘इंडियन एंपायर’, मैक्समूलर, एचएस मेन, सर टॉमस और पिनकाट आदि यूरोपीय विद्वानों के उद्धरण दिए। सिद्ध किया कि ऐसे महान भारत पर अंग्रेजी राज का कोई औचित्य नहीं। यह अंग्रेजी राज की रचनात्मक आलोचना थी।

गांधी जी ने आलोचना को रचनात्मक बनाया था

गांधी जी ने आलोचना और सत्याग्रही आंदोलनों को भी रचनात्मक बनाया था। आलोचना के ऐसे प्रतिमान दुनिया के अन्य देशों में नहीं हैं। आलोचना आक्रमण नहीं होती। आक्रमण में हिंसा होती है, लेकिन आलोचना में सुधार की मांग। निंदा और आलोचना एक नहीं हैं। रचनात्मकता का विकल्प रचनात्मकता ही है।

व्यक्तिगत आरोपों की लत से रचनात्मकता आहत

‘आलोचना की भारतीय दृष्टि’ रचनाधर्मी है। इसमें वाक् संयम का मधुरस है। बेशक दलतंत्र में सबकी विचारधारा है। असहमति भी स्वाभाविक है, लेकिन यहां विचारधाराओं में संवाद का अभाव है। व्यक्तिगत आरोपों की लत से रचनात्मकता आहत है। संसद और विधानमंडलों की बहस भी प्राय: रचनात्मक नहीं हैं। यहां विधायी कामकाज के निस्तारण की प्रशंसा को उत्पादक कहते हैं, लेकिन इस उत्पादकता में रचनात्मकता के सृजनरस का अभाव है।

भिन्न विचारों को सुनने की परंपरा घटी

दुनिया की सबसे प्राचीन संस्कृति वाले भारत में भिन्न विचारों को आदरपूर्वक सुनने की परंपरा घटी है। प्रधानमंत्री ने इसी ओर सबका ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने अपनी रचनात्मक आलोचना की प्रतीक्षा का भी उल्लेख किया है। आलोचना और असहमति के अभाव में लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं। रचनात्मकता से रहित आलोचना कोरा आरोप ही होती है। क्या सभी दल के नेता, कार्यकर्ता और सार्वजनिक जीवन के अन्य महानुभाव रचनात्मक आलोचना को बढ़ावा दे सकते हैं?

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )