शंकर शरण : देश में शिक्षा और संस्कृति का स्तर निरंतर गिरावट की ओर है। बिहार के शिक्षा मंत्री द्वारा महाकवि तुलसीदास और स्मृतिकार मनु महाराज को लांछित करना इसका नवीनतम प्रमाण है। मंत्री महोदय पहले भी यह सब कहते रहे हैं। यदि उनके ऊपर के महानुभाव इसी को सुनीति मानते हैं तो हमारी दुर्गति स्पष्ट है। ब्रिटिश शासन में भी हमारी शिक्षा से महान भारतीय शास्त्र बाहर नहीं हुए थे। जबकि आज उन्हें शिक्षा से हटाकर उन पर कीचड़ उछाली जा रही है। रामचरितमानस या मनुस्मृति की निंदा इसी का उदाहरण है। ऐसा करने वाले केवल सुनी-सुनाई दोहराते हैं। तुलसीदास के ‘ढोल गवांर सूद्र पसु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी।।’ को लहराने वाले नेता इसका मनमाना अर्थ निकालते हैं। कभी इसे परखने का कष्ट नहीं करते। इस प्रसंग में समुद्र के घमंड से रुष्ट होकर श्रीराम द्वारा धनुष-बाण निकाल कर उसे सुखा देने का विचार है। तब भयभीत समुद्र श्रीराम से क्षमायाचना करते हुए विनती करता है। उसी में कैफियत देते अन्य बातों के साथ वह पंक्ति भी है।

इस प्रकार, पहले तो प्रसंग अनुसार वह पंक्ति एक खलनायक की है। दूसरे, उस दोहे से ठीक पहले समुद्र ने यह भी कहा, ‘गगन समीर अनल जल धरनी/ इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।’ अर्थात समुद्र ने अपनी मूर्खता स्वीकार करते हुए आकाश, वायु, अग्नि, जल, और धरती को ‘स्वभाव से ही जड़’ बताया। ऐसे जड़-प्रकृति पात्रों के प्रति कृपानिधान श्रीराम से क्षमाशील होने की विनती की। दोनों बातें एक सांस में कही गईं। यदि इसे कवि का संदेश ही मानने की जिद हो तब भी ‘सूद्र’ और ‘नारी’ को वायु और अग्नि के समकक्ष रखा गया है, परंतु प्रसंग छिपाकर, ‘सूद्र’ या नारी उठाकर मनमाना रंग देना राजनीतिक प्रपंच और शिक्षा के नाम पर कुशिक्षा देना है।

इसी तरह जब मनुस्मृति के निंदकों से पूछा जाता है कि क्या उन्होंने ‘मनुस्मृति’ पढ़ी है? तो अधिकांश का उत्तर ‘नहीं’ में होता है। वे केवल यही कहते हैं कि उसमें शूद्रों या स्त्रियों के बारे में कुछ आपत्तिजनक सुना है। जबकि यदि जिल्द और शीर्षक हटाकर ‘मनुस्मृति’ किन्हीं भी शिक्षित व्यक्तियों को पढ़ने को कहें तो लगभग सभी उसे महान ग्रंथ मानेंगे। ‘मनुस्मृति’ मानव इतिहास में समाजशास्त्र का पहला ग्रंथ है। मनुस्मृति में किसी को कुछ आपत्तिजनक लगे तो उसकी समीक्षा होनी चाहिए।

आज के नजरिये से हजारों वर्ष पुराने ग्रंथों में कोई अटपटी बात मिलने पर भी उसे लांछित करना या जलाना मूर्खता है। इसीलिए ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ या ‘कुरान’ जैसे प्रचीन ग्रंथों को सम्मान दिया जाता है। जबकि उनमें अनबिलीवर और काफिर यानी अन्य धर्म-विश्वासियों के लिए भयंकर अपमानजनक बातें लिखी हुई हैं। उनकी दृष्टि से आज विश्व में करीब तीन अरब लोग अनबिलीवर और काफिर आदि हैं। तो क्या किसी को उन पुस्तकों को जलाने का अधिकार है? बिल्कुल नहीं। तब ‘मनुस्मृति’ के लिए दुर्भाव रखना विशुद्ध राजनीति से प्रेरित है। यह हिंदू समाज को नीचा दिखाने और तोड़ने के उद्देश्य से किया जाता है।

मनुस्मृति की सामग्री में सृष्टि, दर्शन, धर्म-चिंतन, जीवन के विधि-विधान, गृहस्थ के नियम, स्त्री, विवाह, राज्यकार्य संबंधी परामर्श, विविध वर्णों के कर्तव्य, प्रायश्चित, कर्मफल विधान, मोक्ष और परमात्मा से संबंधित चिंतन है। कुछ प्रकाशनों में मनुस्मृति का कलेवर बड़ा दिखता है, किंतु इनमें कई प्रक्षिप्त अंश शामिल हैं, जो मूल श्लोकों से बेमेल लगते हैं। आधिकारिक विद्वान अनेक प्रकाशनों में दिए गए आधे से अधिक श्लोकों को मूल मनुस्मृति का नहीं मानते।

किसी ग्रंथ के मूल्यांकन में उसके अनुयायियों का व्यवहार भी एक प्रामाणिक सूचक है। स्मरण रहे कि स्वामी दयानंद या विवेकानंद की शिक्षाओं और जीवन कर्म का आधार वेद, उपनिषद और मनुस्मृति ही रहे। भारतीय समाज की जो सेवा इन महापुरुषों ने की, उसकी प्रेरणा उन्हें वेदांत और मनुस्मृति से ही मिली। ऐसे में सवाल यही है कि क्या इन मनीषियों ने मनुस्मृति को अधिक समझा या आज के वे एक्टिविस्ट उसे उनसे बेहतर समझते हैं, जो समाज को तोड़ने-लड़ाने के लिए हिंदू ग्रंथों पर कालिख पोतते हैं? यदि मनुस्मृति जातिवादी या स्त्री-विरोधी होती तो स्वामी दयानंद संपूर्ण भारत में इतना आधुनिक एवं प्रभावशाली आर्य समाज आंदोलन चलाने में कैसे सफल होते? यह मनुस्मृति में ही लिखा है कि ‘जहां नारियों का सम्मान होता है, वहीं देवता वास करते हैं।’ ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ जैसी अनमोल सीख भी उसी की है। हजारों वर्ष पहले के इस ग्रंथ में अधिकांश बातें आज भी मूल्यवान हैं। यूरोप तब जंगली अवस्था में था। भारत में हजारों वर्षों से विदेशी विद्वान और यात्री आते रहे हैं, जिन्होंने विभिन्न कालखंडों में भारत के अनुभवजन्य जीवंत वर्णन लिखे हैं। उनमें कहीं भी हिंदुओं में जाति-प्रथा का कोई संकेत तक नहीं मिलता। यदि कोई संकेत होता भी तो हिंदू-विरोधी लेखक एवं प्रचारक उसे बार-बार दोहराते।

स्पष्ट है कि सदियों की बाहरी पराधीनता में हिंदू समाज में बनी छुआछूत जैसी कुरीतियां हमारे शास्त्रों का निर्देश नहीं थीं। इसीलिए उसे खत्म करने का काम दयानंद, विवेकानंद और श्रद्धानंद जैसे हिंदू मनीषियों ने किया। चूंकि वैदिक धर्म में ऐसी छुआछूत का कोई स्थान नहीं, इसीलिए उन मनीषियों ने सहजता से अपना अभियान चलाया। अतः सुनी-सुनाई पर चलना, किसी वाक्य या शब्द को संदर्भ से काटकर, बिना जाने निंदा करना घोर नासमझी या धूर्तता है। हमें अपने ज्ञान-ग्रंथ शिक्षा में शामिल करने चाहिए। उन्हें पढ़कर प्रामाणिक रूप से समझना चाहिए। अन्यथा क्षति हमें ही पहुंचेगी।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)