[प्रो. निरंजन कुमार]। आजादी के बाद से ही बौद्धिक-अकादमिक और विश्वविद्यालयी विमर्शों में लेफ्ट-लिबरल यानी वामपंथियों-उदारवादी बुद्धिजीवियों का एकाधिकार रहा है जिन्होंने शिक्षा-ज्ञान, पाठ्यक्रमों और बौद्धिक विमर्शों में एक खास एजेंडा के तहत उसके स्वरूप को एक तरह से अ-भारतीय कर दिया। पिछले कुछ समय से वामपंथियों की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ी है, लेकिन तथाकथित उदारवादियों का कब्जा बरकरार है।

वामपंथियों- उदारवादियों के बरक्स एक वैकल्पिक भारतीय मॉडल स्थापित करने की कोशिश को ज्यादा कामयाबी नहीं मिल पाई। इसका एक बड़ा कारण है भारतीय मॉडल की वकालत करने वालों में विजन का अभाव। इसकी वजह से वे वामपंथियों-उदारवादियों के बनाए सैद्धांतिकी एवं पारिभाषिक शब्दावलियों के भ्रमजाल में ही फंस कर रह जाते हैं।

अभिव्यक्ति की आजादी और सहिष्णुता आदि की वकालत 
इसका एक अच्छा उदाहरण है उनकी वैचारिक शब्दावली लिबरल और लिबरलिज्म। यूरोप में उदारवाद की सैद्धांतिकी का उदय सामंतवाद के पतन के साथ हुआ जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और सहिष्णुता आदि की वकालत की गई। ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक उदारवाद के जनक माने जाते हैं। आगे चलकर जेएस मिल, टीएच ग्रीन आदि के प्रभाव से उदारवाद के अंतर्गत तर्कबुद्धि और विवेकशीलता, बहुलतावाद के साथ-साथ कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को भी शामिल किया गया।

लिबरलिज्म का मॉडल
पश्चिमी परिवेश में उपजे उदारवाद (Liberalism) के भारतीय प्रवक्ता अपनी मान्यताओं-सिद्धांतों का विरोध करने वालों को अनुदारवादी एवं संकीर्ण मानते हैं। विडंबना यह है कि उनकी इस मान्यता को भारतीय या राष्ट्रवादी मॉडल के विचारक भी स्वीकार कर बैठे हैं। एक तरफ तथाकथित लिबरलिज्म का मॉडल है जो कथित तौर पर श्रेष्ठ है, दूसरी तरफ भारतीय चिंतन-परंपरा है जो अनुदार एवं संकीर्णतावादी और इसलिए निम्नतर है। यह समझ न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि भारतीय चिंतन-परंपरा के लोगों में एक हीनभावना का संचार करती है। यहां सवाल पूछना चाहिए कि क्या तथाकथित भारतीय लिबरल सचमुच उदारवादी हैं? क्या भारतीय मॉडल के विचारक अनुदार एवं संकीर्णतावादी हैं?

स्वतंत्र अभिव्यक्ति उदारवाद का प्रमुख लक्षण है। इस चीज को पश्चिम से आक्रांत भारतीय लिबरल विचारक ऐसे गौरवान्वित करते हैं जैसे वे एक नई- अनोखी अवधारणा प्रस्तुत कर रहे हों। पश्चिम में यह जरूर अनोखा था, जहां सामंती और चर्च व्यवस्था ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

भारतीय समाज में अभिव्यक्ति की आजादी
प्राचीनकाल में जहां तरुणों को बिगाड़ने और नास्तिकता का आरोप लगाकर सुकरात को जहर दे दिया गया था, वहीं 1633 में वृद्ध गैलीलियो को उनकी मान्यताओं के कारण चर्च की ओर से कारावास दिया गया था, जबकि भारतीय समाज में अभिव्यक्ति की आजादी की सुदीर्घ प्राचीन परंपरा है। आदिग्रंथ ऋग्वेद में कहा गया है कि हम सब एक साथ आएं, आपस में बात करें, एकदूसरे को समझें। यही आचरण वंदनीय और श्रेष्ठ है। इसी तरह वैदिक ‘न्याय दर्शन’ में विचार-विमर्श के सूत्रों में ‘वाद’, ‘जल्प’ और ‘वितंडा’ का उल्लेख है जो संवाद-विवाद के विभिन्न रूप हैं। हमारे शास्त्रार्थ, खंडन- मंडन की परंपरा में स्त्रियों की भी सक्रिय भूमिका थी।

तसलीमा नसरीन के मुद्दे पर सभी मौन
याज्ञवल्क्य एवं गार्गी अथवा आदि शंकराचार्य एवं भारती के बीच हुए शास्त्रार्थ जगप्रसिद्ध हैं। ऐसे में भारतीय चिंतन परंपरा को क्या माना जाए उदारवादी अथवा अनुदारवादी? जहां पश्चिम और पश्चिम-परस्त तथाकथित भारतीय उदारवादियों के बहुत पहले प्राचीन काल से ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या वाद-संवाद की प्रतिष्ठा है। वहीं दूसरी तरफ तथाकथित भारतीय उदारवादियों और उनके वामपंथी सहचरों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दोहरे मानदंड की कलई तब खुल जाती है जब एमएफ हुसैन के प्रतिबंध पर तो वे हो-हल्ला मचाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ तसलीमा नसरीन के मुद्दे पर मौन साध लेते हैं। उदारवाद का अन्य लक्षण है व्यक्ति की स्वतंत्रता, जो व्यापक अर्थ में व्यक्ति की पूर्ण सत्ता की प्रतिष्ठा है।

दिलचस्प है कि यूरोप में व्यक्ति की स्वतंत्रता या प्रतिष्ठा के जो स्वर 17वीं-18वीं सदी में जाकर उठे, उसके बरक्स भारतीय परंपरा में व्यक्ति की प्रतिष्ठा या आजादी का उद्घोष प्राचीन काल से है। वृहदारण्यक उपनिषद का महावाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं, की व्याख्या व्यक्ति और व्यक्ति-स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा है, जहां व्यक्ति में ही ईश्वर का निवास मान लिया गया है। 

बहुलतावाद भी उदारवाद का एकमहत्वपूर्ण लक्षण
इसी तरह शास्त्रों में उल्लिखित वाक्य ‘यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’अर्थात जो ब्रह्मांड (संसार) में है वही पिंड (मनुष्य) में भी है। बहुलतावाद भी उदारवाद का एकमहत्वपूर्ण लक्षण है, लेकिन विसंगति यह है कि आजादी के बाद से शिक्षा- ज्ञान और पाठ्यक्रमों से लेकर बौद्धिक-सांस्कृतिक विमर्शों में इस बहुलतावाद को ढूंढा जाए तो एक निराशा होती है। इन सबमें भारतीय परिप्रेक्ष्य और भारतीय दृष्टिकोण शायद ही कहीं नजर आता हो। मिसाल के तौर पर पश्चिमी चश्मे के प्रभाव में हम कालिदास को भारत का शेक्सपीयर और समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहते हैं, जबकि कालक्रम, प्रतिभा और उपलब्धि में दोनों भारतीय ऊपर हैं।

बहुलतावाद का संदेश 
यहां तथाकथित भारतीय लिबरल अनुदारवादी दिखाई पड़ते हैं। एक विडंबना यह भी है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को बहुलतावाद का सबक पश्चिम में ही दिखाई पड़ता है, जबकि ऋग्वेद के ‘एकं सत् विप्रा: बहुधा वदंति’ अर्थात सत्य एक है, परंतु ज्ञानी उसे विभिन्न तरीकों से व्याख्या करते हैं, से बड़ा बहुलतावाद का संदेश और क्या होगा? वायु पुराण में उल्लिखित है ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ और ‘नवा वाणी मुखे मुखे’ अर्थात जितने मनुष्य हैं, उतने विचार हैं। एक ही घटना का बयान हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से करता है।

भारतीय चिंतन पद्धति पूर्ण उदारवादी
तर्कबुद्धि और विवेकशीलता उदारवाद का एक अन्य लक्षण है। उदारवादी किसी भी समस्या को अड़ियल या पूर्वाग्रह नजरिये से नहीं देखता। इस कसौटी पर तथाकथित भारतीय उदारवादी फिर बेनकाब हो जाते हैं। इसका उदाहरण तीन तलाक और फिर कश्मीर के मसले पर उनके कुतर्कों में देखा जा सकता है। पश्चिमी कसौटियों पर भी भारतीय चिंतन पद्धति पूर्ण उदारवादी है। हमारे तथाकथित लिबरल तो सही मायने में उदारवादी हैं ही नहीं, वे छद्म उदारवादी हैं। असली लिबरल तो भारतीय चिंतन है।


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)