[ प्रदीप सिंह ]: राजनीतिक हलकों में आजकल यह नया विमर्श चल रहा है कि भाजपा कांग्रेस के रास्ते पर जा रही है या फिर उसका कांग्रेसीकरण हो रहा है। पिछले दो महीने में जिस तरह देश के अलग अलग हिस्सों में दूसरे दलों से सांसद, विधायक और नेता भाजपा में शामिल हुए या कराए गए उससे यह विमर्श निकला है। केंद्र के साथ 16 राज्यों में सत्ता में होने के बावजूद भाजपा को ऐसा करना क्यों जरूरी लग रहा है और इसके जरिये पार्टी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को क्या संदेश दे रही है?

भाजपा की सरकार बनने का रास्ता साफ

कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल-एस की साझा सरकार गिरने के बाद भाजपा की 17वीं राज्य सरकार बनने का रास्ता साफ हो गया है। इसके पहले गोवा में कांग्रेस के दस विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे। अब चर्चा है कि अगला नंबर मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार का है। उसके बाद राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो सकती है। इन अटकलों के आधार पर सवाल उठने लगा है कि क्या भाजपा 1960-70 के दशक की कांग्रेस के रास्ते पर जा रही है? अपने वर्चस्व के दिनों में कांग्रेस ने भी अपनी विरोधी सरकारों के साथ यही किया था। एक समय गोविंदाचार्य ने भी कहा था कि भाजपा दरअसल गुलाबी छटा वाली कांग्रेस है।

भाजपा का विस्तारीकरण

भाजपा में इस समय दो धाराएं समानांतर रूप से चल रही हैं और यह ध्यान रहे कि समानांतर रेखाएं कभी मिलतीं नहीं। पहली धारा के तीन चरण हैं। पहला, ऐसे क्षेत्रों में जहां पार्टी का जनाधार नहीं है वहां दूसरे दलों से लोगों को पार्टी में शामिल करके पार्टी का यकायक विस्तार। इसकी शुरुआत 2014 में लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत के बाद हरियाणा से हो गई थी। जहां कांग्रेस के राज्य स्तर के कई नेता भाजपा में शामिल हो गए और राज्य में सरकार बन गई। इसके अलावा बंगाल, असम, केरल, तेलंगाना, आंध्र जैसे राज्यों में दूसरे दलों से लोगों को पार्टी में इसी रणनीति के तहत लाया गया।

नए सामाजिक समूहों से पार्टी को जोड़ना

दूसरा, नए सामाजिक समूहों से पार्टी को जोड़ना। इसके लिए पार्टी ने अति पिछड़ा वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देकर बड़े पैमाने पर इस वर्ग में अपनी पैठ बनाई। इसका नतीजा उत्तर प्रदेश के विधानसभा और हाल के लोकसभा चुनाव में दिखा।

विधायकों को तोड़कर सरकार बनाना

तीसरा, जहां कांटे की टक्कर है वहां कुछ विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बनाने का प्रयास। पार्टी की इसी नीति को लेकर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे हैं। गोवा में सरकार को स्थिर बनाने के लिए भाजपा ने विचारधारा और नैतिकता, दोनों स्तर पर समझौता किया। जिस नेता के बारे में पार्टी ने प्रचार किया कि वह दुराचारी है उसे पार्टी में शामिल किया और उसकी पत्नी को मंत्री बना दिया। गोवा में इस समय भाजपा के 27 विधायकों में से 15 ईसाई हैं यानी उनका बहुमत है। क्या गोवा भाजपा के लिए इतना बड़ा और अहम प्रदेश है कि उसके लिए पार्टी ऐसे समझौते करे? आंध्र के दागी नेता जिसे भाजपा राज्य का माल्या कहती थी, को इस आधार पर पार्टी में शामिल किया गया कि राज्यसभा में बहुमत जुटाने के लिए ऐसा करना मजबूरी थी।

भाजपा का मजबूत जनाधार

कर्नाटक का मामला थोड़ा अलग है। राज्य में भाजपा का मजबूत जनाधार है। राज्य की 28 में से 25 सीटों पर उसके सांसद हैं। कांग्रेस और जद-एस के बागी विधायकों में से ज्यादातर बिल्डर हैं। अगले कळ्छ दिन में ये भाजपा में शामिल होंगे ही। राज्य में अभी जो हालात हैं उनमें जब भी विधानसभा चुनाव होते तो पार्टी को बहुमत मिलने की प्रबल संभावना थी। फिर जोड़तोड़ की सरकार बनाने का फैसला क्यों किया गया? विपक्ष के जो बागी आएंगे उनकी कितनी मांगे पार्टी पूरी कर पाएगी? ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व इन सवालों को महत्वहीन मानता है।

नव नेकरवादियों को महत्वपूर्ण पद नहीं मिलता

आरएसएस में आजकल इन नवागंतुकों को नव नेकरवादी कहा जा रहा है। अभी तक कुछ अपवादों को छोड़कर नव नेकरवादियों को कोई महत्वपूर्ण पद नहीं मिला है। यही दूसरी धारा का संकेत है। दूसरी बार केंद्र में सरकार बनने के बाद मेनका गांधी, जयंत सिन्हा, चौधरी वीरेंद्र सिंह, सत्यपाल सिंह, केजे अल्फांस और राम कृपाल यादव जैसे कई नव नेकरवादियों की छुट्टी कर दी गई। जो बचे वे केवल अपनी कार्यकळ्शलता की वजह से। इसके जरिये पार्टी ने एक संदेश दिया है कि उसकी नजर में विचारधारा गौण नहीं है। बांग्लादेशी घुसपैठियों, एनआरसी, अनुच्छेद 370, 35 ए, समान नागरिक संहिता और तीन तलाक के मुद्दे पर पार्टी कायम है।

शाह का गृहमंत्री बनना सामान्य घटना नहीं

अमित शाह का गृहमंत्री बनना भाजपा की विचारधारा के लिहाज से सामान्य घटना नहीं है। जो काम पिछले पांच साल में नहीं हुआ वह अब होगा, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। अमित शाह की कश्मीर यात्रा के दौरान जो नजारा देखने को मिला वह आने वाले दिनों का संकेत है। इस मोर्चे पर मोदी-शाह की जोड़ी ने एक और बड़ा और शायद सबसे अहम काम किया है और वह है वाजपेयी सरकार के दौरान हुई गलतियों से सबक सीखकर आरएसएस, पार्टी और सरकार में सांगोपांग समन्वय। कर्नाटक के बीएल संतोष का संगठन महासचिव बनना इस रणनीति के अलावा एक और संदेश है कि वाजपेयी राज में जिस तरह संगठन की उपेक्षा हुई थी वैसा नहीं होगा। उस समय वाजपेयी, आडवाणी दोनों के सरकार में जाने के बाद ऐसा ही हुआ था। संगठन की दृष्टि से 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह सबसे अहम बदलाव है।

भाजपा और कांग्रेस में बुनियादी फर्क

भाजपा कांग्रेस तभी बन सकती है जब नव नेकरवादी दूध में पानी के बजाय पानी में दूध की तरह हो जाएं। इसकी संभावना फिलहाल तो नजर नहीं आती यानी दोनों धाराओं का मिलन मुश्किल है। भाजपा और कांग्रेस में एक बुनियादी फर्क है, जो शायद हमेशा रहेगा। भाजपा में विचारधारा के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की एक फौज हमेशा रहती है। ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं की सप्लाई लाइन संघ से सदा बनी रहती है। जब भाजपा विचारधारा से हटकर सत्ता के लिए ही सब कुछ करने की ओर बढ़ती है तो कार्यकर्ताओं की यह फौज घर बैठ जाती है। उसके बाद चुनाव में जो होता है उससे सत्ता का नशा उतर जाता है। कभी-कभी नेताओं को गलतफहमी हो जाती है कि कार्यकर्ताओं की निष्ठा विचारधारा से ज्यादा उनके प्रति है। बड़े-बड़े दिग्गज इसी मुगालते में हाशिये पर चले गए। कार्यकर्ताओं का यही निष्ठा भाव ही भाजपा को कांग्रेस नहीं बनने देगा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )