[संजय गुप्त]। आखिरकार मध्य प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा का दामन थाम ही लिया। उनके इस कदम से कमलनाथ सरकार और साथ ही कांग्रेस को एक बड़ा झटका लगा। एक अर्से से यह लग रहा था कि ज्योतिरादित्य कमलनाथ सरकार के रवैये के साथ-साथ कांग्रेस नेतृत्व के रुख से नाराज हैं, लेकिन इसके आसार कम थे कि वह अपने समर्थक विधायकों के साथ बगावत कर भाजपा में चले जाएंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। शायद उन्होंने भाजपा में शामिल होने का फैसला तब लिया जब यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस की ओर से उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा जाएगा। भाजपा में सम्मिलित होते ही वह राज्यसभा के प्रत्याशी घोषित कर दिए गए।

बहुत समय नहीं हुआ जब वह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। कांग्रेस ने उन्हें ही आगे कर विधानसभा चुनाव लड़ा। उन्होंने इस चुनाव में एड़ी-चोटी का जोर लगाया और पार्टी को जीत दिलाने में एक बड़ी भूमिका निभाई। नतीजे आने के बाद कांग्रेस ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाना बेहतर समझा। कांग्रेस ने यह फैसला उस वक्त लिया जब पार्टी की कमान राहुल गांधी के हाथ थी। शायद राहुल ने कमलनाथ की वरिष्ठता और अनुभव को देखते हुए उन्हें मुख्यमंत्री बनाना उचित समझा।

अपने ही सहयोगी केपी यादव से हारे चुनाव

ज्योतिरादित्य की मुश्किलें तब और बढ़ीं जब वह गुना से लोकसभा चुनाव हार गए। वह यह चुनाव अपने ही सहयोगी केपी यादव से हारे जो एक समय उनके दाहिने हाथ माने जाते थे और किसी कारण उनसे रुष्ट होकर भाजपा में चले गए थे। चूंकि राहुल के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद ज्योतिरादित्य ने भी महासचिव पद छोड़ दिया था इसलिए उनके पास कोई पद नहीं रह गया था। वह मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहते थे और इसी सिलसिले में राहुल से मिलना चाह रहे थे, लेकिन वह उनसे मिले नहीं। शायद इन्हीं स्थितियों में उन्होंने भाजपा में सम्मिलित होने का फैसला किया।

दादी विजयराजे सिंधिया भी रहीं भाजपा की कद्दावर नेता

उनके इस कदम के साथ संपूर्ण सिंधिया परिवार भाजपा का हिस्सा बन गया। उनकी एक बुआ वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और दूसरी बुआ यशोधरा राजे भी भाजपा में सक्रिय हैं। उनकी दादी विजयाराजे सिंधिया भी भाजपा की कद्दावर नेता थीं। उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरू तो कांग्रेस से किया था, लेकिन बाद में वह जनसंघ में शामिल हुईं और फिर भाजपा की संस्थापक सदस्य बनीं।

ज्योतिरादित्य के पिता माधव राव सिंधिया ने अपना राजनीतिक जीवन जनसंघ से शुरू किया, लेकिन बाद में वह कांग्रेस में चले गए। ज्योतिरादित्य के भाजपा में शामिल होने के बाद कमलनाथ सरकार की उलटी गिनती तेज हो गई है। ज्योतिरादित्य समर्थक 22 विधायक बेंगलुरु में डेरा डालने के बाद भोपाल लौटकर विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफे सौंपेंगे।

भाजपा के विधायकों ने गुरुग्राम में डाला डेरा

मध्य प्रदेश का घटनाक्रम कर्नाटक की याद दिला रहा है। हालांकि कमलनाथ अपनी सरकार सुरक्षित होने का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनके दावे में दम नहीं दिखता। वैसे इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा भी अपने विधायकों को कांग्रेस से बचाने की कोशिश कर रही है। उसके विधायकों ने जिस तरह गुरुग्राम में डेरा डाला उससे तो यही पता चल रहा कि भाजपा को यह खतरा है कि कहीं कांग्रेस उसके विधायकों को तोड़ न ले।

यह भारतीय राजनीति का एक स्याह पक्ष है कि विधायक हों या सांसद, वे मौका मिलते ही अपनी विचारधारा को एक झटके में त्याग देते हैं और अक्सर धुर विरोधी दल में शामिल हो जाते हैं। फिलहाल स्पष्ट नहीं कि मध्य प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर कब और कैसे थमेगा, लेकिन यह पहली बार नहीं जब कोई सरकार अपने ही नेताओं की बगावत से अस्थिर हुई हो। शायद यह सिलसिला थमने वाला नहीं, फिर भी इस पर तो बहस होनी ही चाहिए कि क्या हमारे नेता बिना किसी पद के जनसेवा नहीं कर सकते?

राज्यसभा सीट मिलने के बाद पार्टी के अंदर उठ रहे सवाल

भाजपा में शामिल होते ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को जिस तरह राज्यसभा की सीट मिल गई उससे यह सवाल उठा है कि क्या दूसरे दलों के नेताओं को इस तरह महत्व देने से उसके अपने नेता उपेक्षा भाव से ग्रस्त नहीं होंगे? चूंकि फिलहाल भाजपा बढ़त पर है इसलिए उसके नेताओं के पार्टी छोड़ने के आसार कम हैं और यह भी किसी से छिपा नहीं कि उसके जिन नेताओं ने पार्टी छोड़कर कांग्रेस की राह पकड़ी जैसे कि शत्रुघ्न सिन्हा, नवजोत सिंह सिद्धू, कीर्ति आजाद वे वहां अपनी जमीन मजबूत नहीं कर पाए हैं। इसके बावजूद जब अपनी विचारधारा पर विशेष बल देने वाली भाजपा अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने में लगी हुई है तब उसे यह देखना होगा कि उसके अपने नेता खुद को उपेक्षित न महसूस करें और वह इस आक्षेप से बची रहे कि सत्ता के लिए हर तरह के समझौते कर रही है।

कांग्रेस अपनी नीतियों और विचारधारा को लेकर है भ्रमित

राहुल गांधी की मानें तो ज्योतिरादित्य अपनी विचारधारा जेब रखकर भाजपा में चले गए और वहां उन्हें सम्मान नहीं मिल पाएगा। यह समय ही बताएगा कि ज्योतिरादित्य भाजपा से कैसे तालमेल बैठाएंगे, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि खुद कांग्रेस अपनी विचारधारा-अपनी नीतियों को लेकर भी भ्रमित है और नेतृत्व के सवाल को लेकर भी। राहुल को अध्यक्ष पद छोड़े आठ माह बीते चुके हैं, लेकिन कांग्रेस के नए अध्यक्ष का पता नहीं। राहुल के उपाध्यक्ष और अध्यक्ष रहते कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरा ही है। यह परिवारवाद की पराकाष्ठा ही है कि गांधी परिवार पार्टी को अपना आधिपत्य बनाए रखने पर आमादा है।

कुछ ही समय में कई बड़े नेताओं ने छोड़ी कांग्रेस 

गांधी परिवार की ओर से कांग्रेस को अपनी निजी जागीर की तरह संचालित करने के कारण ही बीते कुछ समय में कई नेताओं ने पार्टी छोड़ी है। इनमें असम के कद्दावर नेता हेमंत विश्व सरमा भी हैं। उनकी भी यह शिकायत थी कि राहुल उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। राहुल ने यह तो माना कि ज्योतिरादित्य को कांग्रेस में अपना भविष्य नहीं दिख रहा था, लेकिन यह नहीं बताया कि ऐसा क्यों था? बिना अध्यक्ष पद संभाले पार्टी को संचालित कर रहे राहुल को यह बताना चाहिए था कि ज्योतिरादित्य सरीखे नेता को कांग्रेस में अपना भविष्य बेहतर क्यों नहीं दिखा? जो नेता कांग्रेस छोड़ रहे हैं वे यही कह रहे हैं कि गांधी परिवार समय रहते सही निर्णय नहीं ले पा रहा है। यह दिख भी रहा है। कांग्रेस के बुजुर्ग नेता तो अपने पदों पर जमे हुए हैं और युवा नेता कुंठित हो रहे हैं या फिर पार्टी छोड़ रहे हैं। इससे तो कांग्रेस दिन पर दिन कमजोर ही होगी। 

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)