संजय गुप्त : कांग्रेस गुजरात विधानसभा चुनाव में जिस तरह निष्क्रिय सी दिखी, वह आम लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि कई कांग्रेसी नेताओं के लिए भी आश्चर्यजनक है। ध्यान रहे पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने आक्रामक रवैया अपनाया था और भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी। उसने 77 सीटें जीतकर भाजपा को 99 पर सीमित कर दिया था। इसी को देखते हुए यह कहा जा रहा था कि यदि इस बार कांग्रेस सही रणनीति अपनाए तो वह लंबे समय से गुजरात की सत्ता में काबिज भाजपा के लिए चुनौती बन सकती है।

कांग्रेस के मुकाबले भाजपा मजबूत स्थिति में अवश्य दिखती रही, लेकिन लंबे समय से शासन में होने के नाते उसके खिलाफ एंटी इनकंबेंसी बनी। इसी से बचने के लिए भाजपा ने कुछ समय पहले मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्रियों को बदल दिया था। इसके बाद उसने चुनाव करीब आते ही जोरशोर से अपना अभियान छेड़ दिया। इस अभियान के प्रति गृह मंत्री के साथ प्रधानमंत्री ने भी गंभीरता दिखाई। नतीजा यह है कि आज भाजपा गुजरात में कहीं अधिक सशक्त दिख रही है। माना जा रहा है कि वह फिर से सत्ता में आ सकती है।

भले ही कांग्रेस यह दावा कर रही हो कि वह गुजरात में सरकार बनाएगी, लेकिन ऐसा होने के आसार कम हैं। इसके लिए कांग्रेस स्वयं ही जिम्मेदार है। गांधी परिवार कांग्रेस का स्टार प्रचारक रहा है, लेकिन गुजरात चुनाव में उसकी और खासकर राहुल गांधी की सक्रियता बहुत कम दिखी। राहुल ने चुनाव घोषित होने के पूर्व एक-दो सभाएं कीं और फिर अपनी भारत जोड़ो यात्रा से समय निकाल कर केवल दो चुनावी सभाओं को ही संबोधित किया। यदि 2017 के चुनावों का स्मरण करें तो तब राहुल गांधी ने करीब 30 रैलियां की थीं। गुजरात के पहले हिमाचल प्रदेश में मतदान हुआ, लेकिन वहां के चुनाव प्रचार में राहुल गांधी ने जाने की जरूरत ही नहीं समझी। गुजरात के प्रभारी अशोक गहलोत ने भी पिछली बार की तुलना में इस बार कहीं कम सक्रियता दिखाई। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि वह मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचाने में लगे हैं। उन्होंने जब से गांधी परिवार को चुनौती दी और उसके एवज में कांग्रेस अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर हुए, तब से वह इसी कोशिश में लगे हैं कि सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के दावेदार न बनने पाएं।

कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खरगे गुजरात अवश्य गए, पर उनकी सभाओं का कोई विशेष असर नहीं दिखा। वैसे भी वह भीड़ खींचने वाले नेता नहीं हैं। खरगे उसी रणनीति पर अमल करते दिखे, जो राहुल गांधी की रही है। उन्होंने यह साबित किया कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में वह कांग्रेस को कोई नई दिशा देने के बजाय राहुल गांधी के बताए रास्ते पर ही चलेंगे। इसका प्रमाण तब मिला, जब उन्होंने गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी की तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर व्यक्तिगत हमला बोला। उन्होंने प्रधानमंत्री को सौ मुख वाला रावण करार दिया। इससे कांग्रेस को कोई लाभ मिलने से रहा, क्योंकि भाजपा और स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने इसे मुद्दा बना लिया। एक तरह से खरगे ने भाजपा के हाथों में एक ऐसा मुद्दा थमा दिया, जो उसके लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। नरेन्द्र मोदी को लेकर खरगे के अन्य बयान भी यही बताते हैं कि वह विमर्श के स्तर पर राहुल गांधी की राह पर ही चल रहे हैं।

समझना कठिन है कि कांग्रेस अपनी पुरानी भूलों से कोई सबक सीखने के लिए क्यों नहीं तैयार है? खरगे के पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मधुसूदन मिस्त्री ने प्रधानमंत्री मोदी की औकात बताने वाले अपने बयान से पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी। प्रधानमंत्री और भाजपा ने उनके इस बयान को भी भुनाया। आखिर कांग्रेस यह कैसे भूल जाती है कि अतीत में नरेन्द्र मोदी के प्रति अपशब्द कहने से उसे कितना नुकसान उठाना पड़ा? एक बार सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर बता दिया था। इससे कांग्रेस को अच्छा-खासा राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा था। इसी तरह एक बार मणिशंकर की अभद्र टिप्पणी भी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी थी।

क्या कांग्रेस यह नहीं जानती कि नरेन्द्र मोदी के प्रति अभद्र टिप्पणियों को भाजपा गुजरातियों के अपमान से जोड़ देती है? उसे यह स्वीकार करना ही चाहिए कि फिलहाल प्रधानमंत्री की छवि कहीं अधिक मजबूत है। उनकी लोकप्रियता के आगे अन्य कोई नेता दूर-दूर तक नहीं ठहरता। ऐसा लगता है कि कांग्रेस इससे परिचित नहीं होना चाहती कि प्रधानमंत्री मोदी पर व्यक्तिगत हमला कर उनकी छवि को कमजोर नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी के लिए बार-बार आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल यही बताता है कि कांग्रेस और विशेष रूप से गांधी परिवार एवं उसके समर्थक उन्हें राजनीतिक विरोधी मानने के बजाय उनसे नफरत करते हैं। हालांकि यह साफ है कि नफरत की यह राजनीति कांग्रेस का बेड़ा गर्क रही है, लेकिन वह कोई सबक सीखने को तैयार नहीं दिख रही है।

राहुल गांधी और कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा से भले ही उत्साहित हों, लेकिन इसमें संदेह है कि इस यात्रा से कांग्रेस को कोई ठोस लाभ मिल रहा है। यह यात्रा कुल मिलाकर राहुल गांधी की छवि निर्माण पर केंद्रित है। इस यात्रा के जरिये राहुल न तो कोई राजनीतिक विमर्श खड़ा कर पा रहे हैं और न ही वैकल्पिक एजेंडा पेश कर पा रहे हैं। इस यात्रा के दौरान उन्होंने जो भी बयान दिए हैं, उनमें कोई नई बात मुश्किल से ही देखने को मिली है। इस यात्रा के समापन के बाद राहुल की छवि भल ही निखर जाए और उनकी कुछ लोकप्रियता भी बढ़ जाए, लेकिन इससे कांग्रेस को कोई जमीनी ताकत नहीं मिलने वाली।

यदि हिमाचल और गुजरात के नतीजे अनुकूल नहीं रहते तो कांग्रेस और कमजोर तो होगी ही, उसके नेताओं एवं कार्यकर्ताओं का मनोबल भी गिरेगा। इसका लाभ दूसरे दलों को मिलेगा। दिशाहीनता से ग्रस्त कांग्रेस को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि जहां वह भाजपा के खिलाफ कोई विमर्श खड़ा करने में नाकाम है, वहीं आम आदमी पार्टी न केवल उसका स्थान लेने की कोशिश कर रही है, बल्कि उसके लिए चुनौती भी बन रही है। वह आगामी कुछ समय में कांग्रेस को और कमजोर कर राष्ट्रीय दल बन जाए तो हैरानी नहीं। कांग्रेस को यह समझना होगा कि यदि भारत जोड़ो यात्रा से राहुल की लोकप्रियता बढ़ भी जाती है, लेकिन इससे पार्टी को चुनावी लाभ नहीं मिलता तो फिर उसका कोई मूल्य-महत्व नहीं।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]