ए. सूर्यप्रकाश: कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने हालिया ब्रिटेन दौरे पर वही पुराना बेसुरा राग छेड़ा कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो रहा है। उन्होंने परोक्ष रूप से पश्चिमी देशों से भारत में लोकतंत्र की कथित बहाली को लेकर हस्तक्षेप करने तक का अनुरोध कर दिया। वह चाहते हैं विदेशी शक्तियां भारत के आंतरिक मामलों में दखल दें। उनके अनुसार चूंकि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो यहां लोकतंत्र पर आघात के खतरे का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा।
कितनी हैरानी की बात है कि जिस पार्टी ने औपनिवेशिक उत्पीड़न के विरुद्ध अभियान छेड़कर भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, उसी पार्टी के राजनीतिक वारिस अब अमेरिका और यूरोप से भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अनुनय-विनय कर रहे हैं। उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि यह सब स्वतंत्रता के अमृतकाल में हो रहा है। इस दौरे पर अकादमिक तबके, सांसदों और मीडिया से राहुल गांधी का झूठ बोलना भी उतना ही हैरान करने वाला रहा।
राहुल गांधी संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी के स्वाभाविक आलोचक बन गए हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री के प्रति उनकी घृणा उनके भाषणों में सामान्य रूप से ध्वनित होती है। इसमें अक्सर वह ऐसा कह जाते हैं, जिसका सच से कोसों नाता नहीं होता। उनके सिलसिलेवार झूठ के तमाम उदाहरण हैं। वह कहते हैं जीएसटी को बिना बहस के पारित कर दिया गया। शायद उन्हें पता ही नहीं कि जीएसटी का विचार सबसे पहले उनकी पार्टी की सरकार ने ही रखा था। संसद ने 101वें संविधान संशोधन के माध्यम से जीएसटी पर मुहर लगाई। जीएसटी परिषद में सभी राज्यों के वित्त मंत्री भी शामिल हैं। भारत के संघीय ढांचे में सुधार की दिशा में यह ऊंची छलांग है। ऐसे में जीएसटी पर राहुल के बयान में ईमानदारी का अभाव है। इसे खारिज करने के बजाय उन्हें इसे संघवाद एवं लोकतंत्र के अनुकरणीय उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए था।
राहुल के अनुसार आरएसएस एक गुप्त संगठन है जो लोकतंत्र के अवमूल्यन में लगा है। उन्हें स्मरण कराना आवश्यक है कि उनकी दादी इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल के रूप में जो फासीवादी शासन थोपा था, उसमें संघ के 3,254 लोग जेल गए थे। आंकड़ों के अनुसार सबसे अधिक 772 नेता जनसंघ के कैद किए गए थे। उन्हें उत्पीड़नकारी कानून मीसा के अंतर्गत कैद किया गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि देश में असली फासीवादी कौन है? राहुल का दावा है कि संसद में विपक्षी सांसदों की आवाज दबाई जा रही है और सरकार की आलोचना पर सांसदों के माइक बंद कर दिए जाते हैं। यह दावा नितांत निराधार है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार गत वर्ष शीत सत्र में राहुल की उपस्थिति नगण्य थी। इस बजट सत्र में उनकी उपस्थिति कुछ सुधरकर 40 प्रतिशत हुई है। पिछले साल वह संसद में केवल एक बार बोले। उनका एक दावा यह भी है कि मोदी सरकार उनके फोन टैप करा रही है और उनकी सरकार में ऐसा नहीं होता था। यह दावा ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है, जिनके परिवार के शासन में मलय कृष्ण धर सहित आइबी के तमाम अधिकारियों ने फोन टैपिंग और अन्य शरारतपूर्ण गतिविधियों के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं।
मोदी और सिखों को लेकर उनका प्रलाप इन सभी झूठों से भी बदतर है। कैंब्रिज में उन्होंने कहा कि मोदी ‘देश को बांट रहे हैं।’ उन्होंने कार्यक्रम में उपस्थित एक सिख की ओर संकेत करते हुए कहा कि मोदी की नजरों में अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक हैं। यह न केवल भ्रामक, बल्कि छल-कपट से भी ओतप्रोत है। यह विभिन्न वर्गों में विभाजनकारी प्रवृत्ति को भड़कने का प्रयास है, जिसकी कड़ी निंदा होनी चाहिए। राहुल भले ही लोकतंत्र के प्रति अपनी पार्टी की संदिग्ध प्रतिबद्धताओं को अनदेखा करने का प्रयास करें, लेकिन उनके पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं जिससे वह देश के करोड़ों लोगों को अतीत की बातें भुलाने में सफल हो जाएं।
स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक देश में कायम रहे कांग्रेस राज में नेहरू-गांधी परिवार की अलोकतांत्रिक गतिविधियों की लंबी सूची है। इसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के दौर से ही शुरू हो गई थी, जिन्होंने संविधान के प्रथम संशोधन के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ‘युक्तियुक्त निर्बंधन’ लागू किए। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के सुझाव पर नेहरू ने 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार को अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग से हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाया। इसमें दूसरे दलों के उभार से अप्रसन्नता का भाव निहित था। इंदिरा गांधी ने आपातकाल की तानाशाही में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को कैद कराया। संसद और न्यायपालिका को बंधक बनाया। जबरन नसबंदी का आक्रामक अभियान चलाया, जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया। जब राजीव गांधी का नाम बोफोर्स घोटाले में आया तो मीडिया की आवाज दबाने के लिए वह 1988 में एक दमनकारी कानून लेकर आए। ऐसे अलोकतांत्रिक कृत्यों की सूची अंतहीन है। ऐसे में कांग्रेस के किसी नेता विशेषकर गांधी परिवार के सदस्य को यह शोभा नहीं देता कि वह लोकतंत्र की विशेषताओं को लेकर कोई उपदेश दे।
भारत के आंतरिक मामलों में दखल से जुड़ी राहुल गांधी की विनती सुनकर डा. बीआर आंबेडकर की दूरदर्शिता याद आती है। आंबेडकर ने राष्ट्र और भावी पीढ़ियों को विश्वासघात के परिणामों को लेकर आगाह किया था। उन्होंने कहा था कि यह बात मुझे बहुत कचोटती है कि भारत ने पूर्व में न केवल अपनी स्वतंत्रता गंवाई, बल्कि यह स्वतंत्रता अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात और छल-कपट के कारण छिनी। राजा दाहिर के सेनापति ने आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम के लोगों से रिश्वत ली और राजा की ओर से युद्ध नहीं किया। इसी तरह पृथ्वीराज पर आक्रमण को केंद्र में रखकर भारत में युद्ध छेड़ने के लिए जयचंद ने मोहम्मद गोरी को बुलावा भेजा। ऐसे ही जब शिवाजी हिंदुओं की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे तो कुछ मराठा और राजपूत राजा मुगल तख्त की ओर से लड़ाई लड़ रहे थे। यदि कांग्रेस को वापस मतदाताओं का भरोसा जीतना है तो उसे भी आधुनिक दौर के जयचंद को शांत रखना होगा।
(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)