[ राजीव सचान ]: अमेरिकी शहर ह्यूस्टन में प्रधानमंत्री मोदी की जनसभा को लेकर देश-दुनिया में उत्सुकता तब और बढ़ गई थी जब यह सूचना आई कि उसमें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी शामिल होंगे। इसी के साथ भारत से लेकर अमेरिका तक वे लोग भी सक्रिय हो गए थे जिन्हें इस तरह के आयोजन रास नहीं आते। ऐसे लोग इस नतीजे पर भी पहुंच चुके हैैं कि विदेश में बसे भारतीयों की सभाओं को संबोधित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति करते हैैं। यह बात और है कि ये लोग अभी तक यह नहीं स्पष्ट कर सके हैैं कि ऐसा कैसे संभव है?

ह्यूस्टन रैली की विपक्ष ने की आलोचना

विदेश में भारतीयों की इस तरह की जनसभाओं को लेकर पहले यह माहौल बनाने की कोशिश की गई थी कि इस तरह के आयोजनों में भारी भीड़ दिखाने के लिए भारत से लोग ले जाए जाते हैैं और अनाप-शनाप पैसा खर्च किया जाता है। ह्यूस्टन की रैली के पहले राहुल गांधी ने यही कहने की कोशिश की। उन्होंने इसे दुनिया का सबसे महंगा आयोजन करार देते हुए यह भी इंगित करने की कोशिश की कि इस रैली की खातिर ही कॉरपोरेट टैक्स में कटौती का फैसला किया गया। वह इस नतीजे पर चाहे जैसे पहुंचे हों, लेकिन यह हैरान करता है कि ह्यूस्टन की जनसभा से जले-भुने लोग अप्रवासी भारतीयों को भला-बुरा कहने में जुट गए। कोई यह कहने लगा कि अगर अप्रवासी भारतीयों को भारत से इतना ही प्यार है तो वे अपना काम-धंधा छोड़कर देश क्यों नहीं लौट आते तो कोई उन पर यह तोहमत मढ़ने लगा कि ये वे लोग हैैं जो भारत को उसके हाल पर छोड़कर विदेश जा बसे। यह और कुछ नहीं विरोध के अंध विरोध तक पहुंच जाने का ही नतीजा है। इसका कोई मतलब नहीं कि अप्रवासी भारतीयों पर खीझ निकाली जाए।

मोदी का नारी, अबकी बार ट्रंप सरकार

इसमें संदेह नहीं कि ह्यूस्टन की रैली में नरेंद्र मोदी ने अबकी बार ट्रंप सरकार नारे का जिक्र किया, लेकिन वह यह नहीं कर रहे थे कि अमेरिकी जनता को अगले साल राष्ट्रपति के चुनावों में एक बार फिर ट्रंप को ही चुनना चाहिए, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा ही समझा। कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा ने प्रधानमंत्री मोदी को तत्काल याद दिलाया कि आप अमेरिकी चुनाव में स्टार प्रचारक की तरह नहीं, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर अमेरिका गए हैं। उनके अनुसार, मोदी ने दूसरे देशों के आंतरिक चुनावों में दखल न देने के भारतीय विदेश नीति के स्थापित सिद्धांत का उल्लंघन किया और इससे भारत के दीर्घकालिक कूटनीतिक हितों को बहुत बड़ा झटका लगा है। कोई भी समझ सकता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है।

ह्यूस्टन में मोदी और ट्रंप ने की एक-दूसरे की तारीफ

ह्यूस्टन में मोदी और ट्रंप ने तो बस एक-दूसरे की तारीफ अपनी-अपनी तरह से की। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकालने का कोई मतलब नहीं कि मोदी ने ट्रंप का चुनाव प्रचार किया। क्या यह अजीब नहीं कि अमेरिका के विपक्षी नेताओं को तो भारतीय प्रधानमंत्री के कथन में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा, लेकिन भारत का प्रमुख विपक्षी दल इस नतीजे पर पहुंच गया कि मोदी के बयान से कूटनीतिक हितों को बहुत बड़ा आघात लगा? ऐसा लगता है कि महज विरोध के लिए विरोध जताने का काम किया गया।

मोदी की जनसभा में ट्रंप का शामिल होना वोट बैंक की राजनीति नहीं

इससे इन्कार नहीं कि ट्रंप के ह्यूस्टन की जनसभा में शामिल होने का एक उद्देश्य अमेरिका में रह रहे भारतीयों को अपनी ओर आकर्षित करना रहा होगा, लेकिन यह मान लेना सही नहीं होगा कि वह केवल इसी वजह से वह इस रैली में आए होंगे। वैसे भी अमेरिका में रह रहे 30-40 लाख भारतीयों में से करीब दस लाख भारतीय ही ऐसे हैैं जो वहां के मतदाता हैैं। इसके बावजूद कुछ लोग न केवल यही मान रहे, बल्कि यह भी बता रहे कि भारतीय प्रधानमंत्री की इस तरह की रैलियों में शिरकत करने अथवा उनके साथ खड़े होने वाले ब्रिटेन के डेविड कैमरन और ऑस्ट्रेलिया के टोनी एबॉट चुनाव हार चुके हैैं।

मोदी ने कहा था भारत में सब अच्छा है

इसे बेपर की उड़ान के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसी ही उड़ान मोदी के उस वक्तव्य को लेकर भरी गई जिसमें उन्होंने अलग-अलग भाषाओं में कहा था कि भारत में सब अच्छा है। उन्होंने यह भारत की विविधता का उल्लेख करने के इरादे से कहा था और शायद इस दुष्प्रचार की हवा निकालने के लिए भी कि अन्य भाषा-भाषियों पर हिंदी थोपने की तैयारी हो रही है, लेकिन इसका यह अर्थ निकाला गया कि वह कह रहे हैैं कि भारत में कहीं कोई समस्या नहीं। इस दौर में कोई भी इस तरह की उड़ान भरने को स्वतंत्र है, लेकिन यह साफ है कि इसके जरिये ह्यूस्टन रैली से जो कुछ हासिल हुआ उससे ध्यान बंटाने की कोशिश हो रही है।

ह्यूस्टन की जनसभा में उमड़ी भारी भीड़ को देखकर याद आए नेहरू जी

ह्यूस्टन की जनसभा में भारी भीड़ उमड़ने के बाद पता नहीं क्यों कुछ लोगों और खासकर कांग्रेसी नेताओं को नेहरू जी याद आ गए? उन्होंने यह बताना शुरू कर दिया कि कैसे नेहरू जब अमेरिका जाते थे तो अनायास भारी भीड़ उमड़ आती थी। यह भी बताने की कोशिश की गई कि कैसे अमेरिकी नेता नेहरू जी का स्वागत करने हवाई अड्डे तक आते थे। नेहरू जी की लोकप्रियता का ऐसा ही बखान करने की कोशिश में कई कांग्रेसी नेताओं ने सोशल मीडिया में उनकी उस फोटो को अमेरिका का बता दिया जो वास्तव में तत्कालीन सोवियत संघ की थी। यही काम कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने भी किया।

विदेश में जब हमारे प्रधानमंत्री का सम्मान होता है तो देश का सम्मान होता है

वस्तुस्थिति का भान होने पर उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि विदेश में जब हमारे प्रधानमंत्री का सम्मान होता है तो देश का सम्मान होता है। उन्होंने सही कहा, लेकिन यह समझना कठिन है कि आखिर 2019 में ह्यूस्टन में मोदी की जनसभा को लेकर नेहरू की 1950 के दशक की विदेश यात्राओं का जिक्र करने की क्या जरूरत थी? ऐसी कोई जरूरत इसलिए नहीं थी, क्योंकि किसी ने भी नहीं कहा कि ह्यूस्टन में मोदी ने जैसी जनसभा की वैसी नेहरू या इंदिरा अथवा राजीव गांधी कभी नहीं कर सके।

विदेशों में नेहरू की लोकप्रियता का उल्लेख करना गलत था

ह्यूस्टन रैली के सिलसिले में विदेशों में नेहरू की लोकप्रियता का उल्लेख करने की जरूरत इसलिए और भी नहीं थी, क्योंकि तबके मुकाबले आज दुनिया बहुत बदल चुकी है। तब न तो सोशल मीडिया था और न ही अप्रवासी भारतीयों की उतनी संख्या जितनी कि आज है। तब अंतरराष्ट्रीय समीकरण भी भिन्न थे और दुनिया में भारत की स्थिति भी आज से बहुत अलग थी।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )