[ सुरेंद्र किशोर ]: संसद के मानसून सत्र में सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक को नए सिरे से लाने की तैयारी में है। देखना है कि इस बार विपक्ष इस विधेयक पर क्या रवैया अपनाता है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि कांग्रेस ने ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण के वर्गीकरण के विरोध में खड़े होने का संकेत दिया है। ऐसा करके वह एक राजनीतिक जुआ ही खेल रही है। इससे पहले 1990 में राजीव गांधी ने ओबीसी आरक्षण पर वीपी सिंह सरकार के फैसले का लोकसभा में विरोध करके कांग्रेस को पिछड़ों से दूर करने का काम किया था।

ध्यान रहे कि 1990 के बाद कांग्रेस को कभी लोकसभा में खुद बहुमत नहीं मिला। 1990 में कांग्रेस ने गैर-आरक्षित वर्ग के हितों को प्राथमिकता दी और आज वह पिछड़ों के संपन्न हिस्से के हितों की चिंता कर रही है। क्या ऐसा इसलिए है कि अपेक्षाकृत संपन्न पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करने वाली पर्टियां आज कांग्रेस की सहयोगी हैं? जो भी हो, यह आश्चर्यजनक है कि आज जब यह माना जा रहा है कि ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण सभी पिछड़े वर्गों के हित में है तब कांग्रेस और कुछ अन्य दल उसका विरोध करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी ही मार रहे हैैं।

मोदी सरकार 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटना चाहती है। वह इस काम को अगले आम चुनाव से पहले पूरा करना चाह रही है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2011 में ही इसकी सिफारिश की थी। आयोग की राय थी कि वर्गीकरण से लगभग सभी पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ समान रूप से मिलने की संभावना बढ़ जाएगी। अभी उसका लाभ संपन्न पिछड़ों को ही अधिक मिल रहा है। वर्गीकरण से यह प्रतिशत भी बढ़ सकता है।

मनमोहन सिंह सरकार ने इस सिफारिश को लागू नहीं किया था और हाल में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि 27 प्रतिशत आरक्षण का वर्गीकरण करके मोदी सरकार पिछड़ों की सौदेबाजी की ताकत को कम करने जा रही है। साफ है कि ऐसा कहते समय राहुल ने अति पिछड़ों के बजाय अपने सहयोगी दलों के नेताओं की राजनीति का अधिक ध्यान रखा।

वह शायद इस तथ्य को भूल गए कि करीब एक दर्जन राज्यों में अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण प्रतिशत तय करने से उन्हें समुचित लाभ मिलना शुरू हो गया। इन राज्यों में पहले आरक्षण का अधिकांश लाभ अपेक्षाकृत संपन्न और प्रभावशाली पिछड़े वर्ग ही उठा लेते थे। पिछड़े वर्गों में अति पिछड़ों की संख्या अधिक और संपन्न-समर्थ पिछड़ों की संख्या कम है। ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ नारे के प्रणेता राममनोहर लोहिया का कहना था कि आरक्षण का लाभ प्रारंभिक वर्षों में संपन्न पिछड़े ही उठाएंगे। ओबीसी आरक्षण लागू हुए 25 साल हो गए हैैं, परंतु केंद्रीय सेवाओं में इस कोटे की महज 11 फीसद सीटें ही भर पा रही हैं।

यह एक विडंबना ही है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद से ही पिछड़ों की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा। 1950 के दशक में संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत पिछड़ों की हालत पर विचार के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन जरूर किया गया, लेकिन जब इस आयोग ने पिछड़ों के लिए नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश की तो नेहरू सरकार ने यह कहते हुए उसे खारिज कर दिया कि खुद कालेलकर ने विपरीत टिप्पणियां की हैं।

इसके बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को यह चिट्ठी भी लिखी कि ‘मैं जाति के आधार पर आरक्षण के खिलाफ हूं।’ यह चिट्ठी संविधान के अनुच्छेद 340 की मंशा के खिलाफ थी। कांग्रेस के ओबीसी आरक्षण विरोधी रुख का पता इससे भी चलता है कि बिहार जैसे बड़े राज्य में उसे जब भी बहुमत मिला तब उसने पिछड़े वर्गों के अपने काबिल नेताओं को मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं सौंपी। उसने कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश में भी किया।

नतीजतन पिछड़ी आबादी का झुकाव क्षेत्रीय दलों की ओर होने लगा। यदि कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग के अपने नेताओं को आगे बढ़ाया होता तो इस वर्ग को बेहतर नेता उपलब्ध होते और आम पिछड़ों का अधिक कल्याण भी हुआ होता। कांग्रेस ने काका कालेलकर आयोग के बाद कोई आयोग भी नहीं बनाया। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित पहली गैर कांग्रेसी सरकार ने बीपी मंडल के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया। इस आयोग ने 1980 में अपनी सिफारिश सौंप दी, लेकिन कांग्रेस सरकार ने उसे लागू नहीं किया। मंडल आयोग पर कांग्रेस शासन में संसद में तीन बार चर्चा हुई, लेकिन हर बार यही कहा गया कि इस आयोग की रपट को लागू नहीं किया जा सकता।

1990 में वीपी सिंह की गैर-कांग्रेसी सरकार ने केंद्रीय सेवा की नौकरियों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू किया। इस पर देश भर में भारी हंगामा हुआ। तब राजीव गांधी इस आरक्षण के खिलाफ लोकसभा में करीब तीन घंटे तक बोले। उन्होंने समूची मंडल रपट को खारिज करने की कोशिश की। इसके बाद सितंबर 1990 में जब कांग्रेस कार्यसमिति और राजनीतिक मामलों की समिति की साझा बैठक हुई तो उसमें ओबीसी आरक्षण को लेकर भारी मतभेद सामने आया।

तब की एक खबर के अनुसार, ‘राजीव गांधी ने मणिशंकर अय्यर की ओर से तैयार वह प्रस्ताव पेश किया जिसमें मंडल आयोग की रपट को ठुकरा देने की बात कही गई थी, लेकिन पार्टी नेताओं की राय बंटी हुई दिखी। बसंत साठे ने वीपी सिंह पर हमला बोलते हुए कहा कि वह जाति व्यवस्था में फिर से जान फूंक रहे हैं। साठे के खिलाफ बोलने के लिए बी शंकरानंद, सीताराम केसरी, पी शिव शंकर, डीपी यादव और एम चंद्रशेखर जैसे पिछड़े वर्ग के नेता खड़े हुए। इन्होंने कहा कि कांग्रेस हमेशा दलितों के हक के लिए लड़ी है। ऐसे में अब हम मंडल रपट का विरोध कैसे कर सकते हैं? इसके बाद राजीव गांधी को बीच का रास्ता अपनाना पड़ा। पार्टी की राय यह रही कि मंडल आयोग की रपट को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया जा सकता।’

मुश्किल यह हुई कि राजीव गांधी की ओर से लोकसभा में दिए गए भाषण के कारण पिछड़ों में यह संदेश जा चुका था कि कांग्रेस उनके आरक्षण के खिलाफ है। इस धारणा को अन्य कांग्रेसी नेताओं के बयानों ने और मजबूत किया। इससे पहले 1978 में जब बिहार की कर्पूरी ठाकुर सरकार ने राज्य में पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया तो उसके प्रति भी कांग्रेस ने सकारात्मक राय नहीं रखी। कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले पर केंद्र में सत्तारूढ़ जनता पार्टी भी बंटी हुई थी।

इस फैसले के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन से जनसंघ के उन विधायकों को तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने समझा-बुझाकर अलग किया जो सड़कों पर उतरकर विरोध कर रहे थे। अगले साल यानी 1979 में कर्पूरी ठाकुर सरकार को हटाकर जो सरकार बनी उसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया। बिहार का यह आरक्षण जिस मुंगेरी लाल आयोग की रपट पर आधारित था उसका गठन 1971 में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने ही किया था। साफ है कि कांग्रेस की न तो मंडल आयोग के गठन में कोई भूमिका रही और न ही मुंगेरी लाल आयोग के गठन में।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]