संजय गुप्त

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का दल जनता दल यू एक बार फिर राजग में शामिल हो गया। यह उल्लेखनीय घटनाक्रम है, क्योंकि नीतीश ने 2013 में भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की तैयारी के बीच राजग से अलग होने का फैसला किया था। इस फैसले की वजह बिहार में मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश माना गया था। तब नीतीश यह मानकर चल रहे थे कि मोदी का आक्रामक तरीके से विरोध करके वह मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाने में सफल हो सकते हैं। लोकसभा चुनाव में दयनीय प्रदर्शन से दो-चार होने के बाद नीतीश ने विधानसभा चुनाव के पहले एक बड़ा फैसला लिया और अपने धुर प्रतिद्वंद्वी लालू यादव से हाथ मिला लिया। जल्द ही जदयू और राजद ने कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाया और विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल की। नीतीश कुमार फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे, लेकिन बीते एक साल से यह दिख रहा था कि राजद की छवि उनकी अपनी छवि पर भारी पड़ रही है। लालू और उनके परिजनों पर जब भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो नीतीश असहज हो गए। अपनी छवि बचाने के लिए उन्होंने राजद से नाता तोड़ने का फैसला लिया और उन्होंने एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई।
नीतीश कुमार के फिर से भाजपा के साथ जाने के फैसले से असहमत पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद यादव धीरे-धीरे बगावत के रास्ते पर जा रहे हैैं। हाल के दिनों की उनकी गतिविधियों से यह साफ है कि वह नीतीश को चुनौती देने के लिए तैयार हैैं। वह दिल्ली से लेकर पटना तक अपनी ताकत का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैैं, लेकिन उनके पास जनसमर्थन का अभाव दिख रहा है। शरद यादव ने जदयू कार्यकर्ताओं का आह्वान किया है कि वे उनके साथ आ जाएं, लेकिन अभी तक उन्हें कुल मिलाकर निराशा ही हाथ लगी है। फिलहाल यह तय नहीं कि शरद यादव अपना अलग दल बनाएंगे या फिर किसी अन्य दल का हिस्सा बनेंगे, लेकिन वह कांग्रेस और अन्य दलों के साथ विपक्षी एकता की कोशिश करते दिख रहे हैैं। उन्होंने एक ऐसी ही कोशिश पिछले दिनों दिल्ली में साझी विरासत बचाने के नाम पर की। इस आयोजन में विपक्ष के कई बड़े नेताओं ने शिरकत की, लेकिन उनके पास कहने के लिए कुछ नया नहीं था। ऐसा लगता है कि विपक्षी नेता यह समझ नहीं पा रहे हैैं कि केवल केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी को कोसते रहने से जनता उनकी ओर आकर्षित नहीं होने वाली। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शरद यादव के मंच पर मौजूद रहकर भले ही यह दिखाने की कोशिश की हो कि वे विपक्षी एकता के प्रति गंभीर हैैं, लेकिन खुद कांग्रेसजनों को यह समझना मुश्किल हो रहा है कि आखिर कांग्रेस बिना जनाधार वाले नेताओं के साथ खड़े होकर क्या साबित करना चाहती है?
शरद यादव से पहले तमाम विपक्षी नेता सोनिया गांधी के नेतृत्व में एक मंच पर आए थे। उस दौरान भी वैसे ही भाषण हुए थे जैसे शरद यादव के मंच से हुए। अब सोनिया गांधी इस तैयारी में हैैं कि विपक्षी दलों के सहयोग से भाजपा शासित राज्यों में साझा रैलियों का आयोजन हो। यह रवैया पार्टी के तमाम बड़े नेताओं को रास नहीं आ रहा है और वे यह महसूस कर रहे हैं कि इस तरह पार्टी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इस हकीकत को समझ नहीं पा रहा है कि उसके पास अब उतनी शक्ति नहीं कि वह विपक्ष का नेतृत्व कर सके। अगर शरद यादव और अजित सिंह सरीखे नेता कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैैं तो भी आखिर वे उसे क्या दे पाएंगे? ये नेता तो खुद ही हाशिये पर हैं। इनका जनाधार भी दिखाई नहीं दे रहा है। दरअसल कांग्रेस समेत अन्य अनेक विपक्षी दल एक बड़ी भूल यह कर रहे हैं कि वे जनता के सामने देश निर्माण का कोई वैकल्पिक एजेंडा पेश नहीं कर पा रहे हैैं।
यह सही है कि आजादी के बाद लंबे समय तक देश निर्माण की बागडोर कांग्रेस के हाथ में रही, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि जैसे-जैसे वह वोट बैंक वाली तुष्टीकरण की राजनीति पर चली वैसे-वैसे उसका रुझान वामपंथी विचारधारा की तरफ होता गया। कांग्रेस से अपेक्षा थी कि वह मध्यमार्गी रास्ते पर चलते हुए एक राष्ट्रीय दल के रूप में व्यवहार करेगी, लेकिन उसने अपने आचरण में वामपंथी सोच की झलक अधिक दिखाई। अब यह झलक और साफ दिखने लगी है, जबकि वामपंथ का कोई भविष्य नहीं दिखता। बावजूद इसके राहुल गांधी एक वामपंथी नेता के रूप में अधिक नजर आते हैं। वह देश के सामने कोई ऐसा विचार नहीं रख पा रहे हैं जिससे लोगों को यह समझ आए कि आखिर मोदी सरकार किस तरह देश को रसातल में ले जा रही है? जबप्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी देश में राष्ट्रवाद की अलख जगाने में लगी हुई है तब कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल यह शोर मचा रहे हैैं कि देश संकट की ओर जा रहा है। मोदी और अमित शाह बूथ स्तर तक के कार्यकर्ताओं को यह जो समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि देश सबसे पहले है, बाकी सब चीजें बाद में वह वही सोच है जो देश को आगे ले जा सकती है। दूसरी ओर यह कोई छिपी बात नहीं कि ज्यादातर क्षेत्रीय दलों की सोच अपने-अपने राज्यों तक सीमित है और वे इसी आधार पर वोट बैंक की राजनीति करते हैैं। आज शायद ही कोई क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय सोच रखता हो और राष्ट्र निर्माण पर वैकल्पिक सोच से लैस हो। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्षेत्रीय दलों के साथ जुड़कर कांग्रेस किस तरह राष्ट्रीय दल के रूप में अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी?
कांग्रेस के तमाम नेता यह मानते हैं कि पार्टी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राजद के साथ गठबंधन कर अपना नुकसान ही अधिक किया है। इन गठबंधनों से स्थानीय स्तर पर पार्टी के कार्यकर्ता भी निराश हुए। कांग्रेस के नेतृत्व में क्षेत्रीय दलों के एकजुट होने की संभावना इसलिए दूर की कौड़ी प्रतीत होती है, क्योंकि कोई भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस के लिए अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं। उन्हें यह डर सताता है कि एक राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ने से कहीं उनका अपना वजूद खतरे में न पड़ जाए। कांग्रेस के सामने एक संकट और है और वह यह कि राहुल गांधी बेमन से राजनीति करते दिख रहे हैैं और शायद इसीलिए सोनिया गांधी को रह-रहकर सक्रियता दिखानी पड़ती है। यदि कांग्रेस को विपक्षी दलों का गठबंधन बनाना है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने सभी संभावित सहयोगी क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय मसलों पर मंथन करे और यह देखे कि जो दल उसके साथ आ रहे हैं वे इन मसलों पर क्या योगदान दे सकते हैं? यदि ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय दलों की एकता की कवायद मोदी विरोध का जरिया भर बनकर रह जाएगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]