संजय गुप्त। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के लिए अपना जो घोषणापत्र जारी किया उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी अपनी पुरानी सोच से पीछा नहीं छुड़ा पा रही है। घोषणापत्र यह तो बताता है कि कांग्रेस देश की विभिन्न समस्याओं से अच्छी तरह परिचित है और वह उनके समाधान का इरादा भी रखती है, लेकिन इसी के साथ यह भी प्रकट होता है कि वह समाधान के कोई नए और कारगर तौर-तरीके अपनाने के लिए तैयार नहीं। शायद यही कारण है कि इस घोषणापत्र के कुछ वादों पर व्यापक बहस हो रही है। बहस केवल मीडिया में ही नहीं, बल्कि जनता के बीच भी हो रही है। इसके चलते कांग्रेस यह श्रेय अवश्य ले सकती है कि उसने एक ऐसा घोषणापत्र बनाया जो जनता के बीच चर्चा का विषय बन गया है। इसके बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कांग्रेस अपना घोषणापत्र तभी लागू कर पाएगी जब वह अकेले दम पर सत्ता में आएगी। 

कांग्रेस का घोषणापत्र सहयोगी दलों के साथ मिलकर तैयार किया गया न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं है। कांग्रेस के वादों में सबसे अहम है न्याय नामक योजना। चूंकि राहुल गांधी ने इस योजना का एलान घोषणापत्र जारी होने के पूर्व ही कर दिया था इसलिए उस पर पहले से ही बहस हो रही थी। घोषणापत्र सामने आने के बाद यह बहस और तेज हो गई है। शायद इसलिए और भी, क्योंकि कांग्रेस के नेता यह नहीं स्पष्ट कर पा रहे हैं कि आखिर इस योजना के लिए सालाना तीन लाख साठ हजार करोड़ रुपये का प्रबंध कहां से होगा? 

जहां कांग्रेस के कुछ नेता यह कह रहे हैं कि इसके लिए अमीरों पर टैक्स लगाया जाएगा वहीं कुछ कह रहे हैं कि कोई नया टैक्स लगाए बिना सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये देने के लिए आवश्यक धन का प्रबंध आसानी से कर लिया जाएगा। चूंकि इसी के साथ यह भी कहा जा रहा है कि राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखा जाएगा और शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत भी खर्च किया जाएगा इसलिए अर्थशास्त्रियों को और हैरानी हो रही है कि आखिर यह काम किया कैसे जाएगा?

समस्या केवल इतनी ही नहीं है कि कांग्रेस का घोषणापत्र तमाम विरोधाभासी बातों से भरा दिख रहा है, बल्कि यह भी है कि जिस कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नेतृत्व में नए आर्थिक सुधारों को शुरू किया वह उस समाजवादी सोच से ग्रस्त दिख रही है जिसने लोगों को गरीब बनाए रखा और देश के आर्थिक विकास को बांधे रखा। ऐसी सोच वाले घोषणापत्र पर उन मनमोहन सिंह की भी मुहर है जिन्होंने पहले वित्तमंत्री और फिर प्रधानमंत्री के रूप में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया। कम से कम वह तो इससे परिचित होंगे ही कि अगर सब्सिडी और रियायतों पर जोर दिया जाएगा तो राजकोषीय घाटा बढ़ेगा और इसके नतीजे में मुद्रास्फीति बढ़ेगी। मुद्रास्फीति बढ़ने का मतलब है रुपये की कीमत कम होना। 

कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में रोजगार के सवाल को हल करने के लिए सरकारी नौकरियों पर जोर दिया है। उसका कहना है कि अगर वह सत्ता में आई तो केंद्र सरकार के सभी खाली पदों को भरने के साथ राज्य सरकारों को भी इसके लिए राजी किया जाएगा कि वे भी अपने खाली पद भरें। हैरानी यह है कि करीब 22 लाख सरकारी नौकरियों का वादा करते समय प्रशासनिक तंत्र में सुधार की कोई बात नहीं की गई है। पहला सवाल तो यही है कि आखिर केंद्र सरकार राज्य सरकारों को इसके लिए कैसे निर्देशित कर सकती है कि वे अपने सभी रिक्त पदों को भरें? ऐसा कोई निर्देश दिया जाएगा तो क्या राज्य केंद्र से अतिरिक्त धन की मांग नहीं करेंगे? क्या केंद्र सरकार इस मांग को पूरी करने में समर्थ होगी? लगता है कांग्रेस इस तथ्य से अनजान बने रहने चाहती है कि मौजूदा व्यवस्था में सरकारी नौकरियों के अधिक अवसर पैदा नहीं किए जा सकते। नौकरियों के अधिक अवसर तो उद्योगीकरण को गति देकर निजी क्षेत्र में ही पैदा किए जा सकते हैं।

सरकारी नौकरियों पर जोर देने के कांग्रेस के वादे से यह भी लगता है कि वह अभी भी बीती सदी वाली उस मानसिकता में है जब नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी होता था। क्या कांग्रेस इससे परिचित नहीं कि सरकारी तंत्र किस तरह अकर्मण्यता से ग्रस्त है? उसे यह भी पता होना चाहिए कि अगर सब कुछ खुद सरकार करेगी तो उद्योगीकरण के साथ निजीकरण की गति थमेगी और ऐसा होने का मतलब है विदेशी निवेश की संभावनाएं कम होना। राज्यों में रिक्त पदों को भरने के वादे के साथ कांग्रेस की अन्य अनेक लोक-लुभावन घोषणाएं यही बयान करती हैं कि वह सब कुछ अपने जरिये संचालित करना चाह रही है। आज जब दुनिया भर में और यहां तक कि खुद भारत में व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की जरूरत पर बल दिया जा रहा है तब कांग्रेस उसका केंद्रीकरण करने की सोच से ग्रस्त नजर आती है।

यह सुनने में तो अच्छा लगता है कि कृषि के लिए अलग से बजट लाया जाएगा, लेकिन यह समझना कठिन है कि आखिर कृषि के लिए अलग बजट लाने भर से किसानों की हालत कैसे सुधर जाएगी? लगता है कि कांग्रेस ने इस तथ्य को ओझल करना ही उचित समझा कि कृषि मूलत: राज्यों के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है। लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस को कम से कम अब तो इस सोच का परित्याग करना चाहिए कि केंद्र सरकार सब कुछ कर सकती है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि यह समय व्यवस्था के विकेंद्रीकरण का है। 

मोदी सरकार ने इसी पर जोर दिया है और शायद इसी कारण उन्होंने योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग का गठन किया। राहुल गांधी कह रहे हैं कि वह नीति आयोग खत्म कर योजना आयोग बनाएंगे। कांग्रेस का घोषणापत्र सब्सिडी और रियायतों की घोषणाओं से तो भरा पड़ा है, लेकिन इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं कि किस मद में सब्सिडी में कटौती की जाएगी। उलटे जीएसटी का सरलीकरण करने का वादा इस तरह किया जा रहा है, मानो टैक्स और कम कर दिए जाएंगे। सत्ता में आने पर सब कुछ करने का सब्जबाग दिखाना तो ठीक है, लेकिन आखिर लोक-लुभावन वादों को पूरा करने के लिए जो धन चाहिए होगा वह कहां से आएगा? चूंकि ऐसे सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं है इसीलिए कांग्रेस को स्पष्टीकरण देना पड़ रहा है।

यह भविष्य बताएगा कि कांग्रेस अपने घोषणापत्र को लागू करने की स्थिति में आ पाएगी या नहीं, लेकिन उसके वादों को भाजपा जिस तरह खारिज करने में लगी हुई है उससे यह तो कहा ही जा सकता है कि आखिरकार राहुल गांधी एक मंङो हुए राजनेता के रूप में उभरने लगे हैं। एक समय उनकी यह छवि थी कि वह राजनीति में अनमने होकर सक्रिय हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में तैयार कांग्रेस के घोषणापत्र पर जैसी व्यापक चर्चा हो रही है उससे वह अपने राजनीतिक विरोधियों को चुनौती देने में समर्थ दिखने लगे हैं। एक तरह से इस घोषणा पत्र के बाद राहुल गांधी का कद बढ़ा हुआ दिखने लगा है, लेकिन यह कहना कठिन है कि यह बढ़ा हुआ कद उन्हें और साथ ही कांग्रेस को चुनावी लाभ भी देगा।

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[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]