डॉ. एके वर्मा। लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की भूमिका हमेशा केंद्रीय रही है। सबसे ज्यादा 80 सांसद चुनने और आजादी के बाद पंद्रह में से नौ अर्थात 60 प्रतिशत प्रधानमंत्री देने वाले राज्य के रूप में इसकी ख्याति रही है। शायद इसीलिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने गुजरात से उत्तर प्रदेश आना पड़ा, लेकिन प्रियंका गांधी का वाराणसी से चुनाव न लड़ना और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का वायनाड का रुख करना कहीं कुछ और संदेश तो नहीं देता?

उत्तर प्रदेश की जनता ने 2007 में बसपा, 2012 में सपा और 2017 में भाजपा को बारी-बारी से प्रदेश की सत्ता सौंपी। उसने कांग्रेस के साथ भी न्याय किया और 2009 लोकसभा चुनावों में उसकी झोली में 21 सीटें डालीं, लेकिन कांग्रेस है कि यह मानती ही नहीं कि अभी भी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस समर्थक है जो योग्य, सशक्त नेतृत्व, प्रभावी संगठन, जमीनी कार्यकर्ताओं से न्यायपूर्ण व्यवहार और दलीय लोकतंत्र को तरस रहा है। कांग्रेस के लिए यह ठीक नहीं रहा कि प्रियंका चतुर्वेदी और टॉम वडक्कन जैसे परिपक्व नेता पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर हुए।

हाल के समय में कांग्रेस के तमाम अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भी पार्टी छोड़ी है। रायबरेली जैसे कांग्रेसी गढ़ में पार्टी के आधार स्तंभों एमएलसी दिनेश सिंह, विधायक राकेश सिंह और उनके पंचायत प्रधान भाई को कांग्रेस त्याग कर भाजपा में शामिल होना पड़ा। सच तो यह है कि यह एक लंबी परंपरा है जो बाबासाहब आंबेडकर, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण से शुरू होकर मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, शरद पवार, पीए संगमा आदि से होती हुई आज भी जारी है। समय ने एक से एक योग्य कांग्रेसियों को पार्टी छोड़ने को मजबूर किया।

लोकतंत्र में पार्टी छोड़ने और नई पार्टी में जाने कोई दिक्कत नहीं, लेकिन जब किसी पार्टी के बड़े नेताओं को लगे कि उनको पार्टी छोड़ने को इसलिए विवश होना पड़ रहा है, क्योंकि पार्टी में विचारधारा और योग्य नेतृत्व को दरकिनार कर किसी एक-वंश और एक-परिवार को आगे बढ़ाया जा रहा है तो यह ‘हाराकिरी’ अर्थात आत्मघाती होता है। फिर तो चाह कर भी मतदाता ऐसे किसी पार्टी को कैसे वोट दे सकता है?

लगता है कांग्रेस ने यह ठाना है कि किसी भी कीमत पर राहुल गांधी को ही प्रधानमंत्री बनाना है। पता नहीं राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, लेकिन यह दिख रहा है कि उन्हें अपनी छवि और प्रतिष्ठा की परवाह नहीं। लोकतंत्र में योग्यता से ज्यादा जनसमर्थन महत्वपूर्ण होता है। आज मोदी के मुकाबले राहुल की योग्यता का कोई पैमाना नहीं, लेकिन लोग शीर्ष पद के दावेदार से कुछ भाषाई सभ्यता और वैचारिक लक्ष्मणरेखा की उम्मीद जरूर करते हैं। लोग प्रधानमंत्री मोदी पर राहुल के बढ़ते व्यक्तिगत हमलों को लक्ष्मणरेखा के उल्लंघन के रूप में देख रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि चुनाव पूर्व इसका स्वरूप उतना गंभीर नहीं था, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे राहुल मोदी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं।

कांग्रेस को शायद इसका आभास नहीं कि राहुल गांधी जितनी जोर से ‘चोकीदार चोर है’ का नारा बुलंद करते हैं, जनता की नाराजगी उनके प्रति उतनी ही बढ़ती है। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर नाराजगी जता दी कि राहुल गांधी ने उसके हवाले से कैसे कहा कि चौकीदार चोर है, लेकिन इसके बाद भी वह इस नारे का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। मतदान के तीन चरणों के बाद यह दिख रहा है कि मोदी के पक्ष में एक ‘साइलेंट अंडर करंट’ विकसित हो गया है। यह करंट ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक दिख रहा है जहां मोदी सरकार की कुछ योजनाओं जैसे शौचालय, बिजली, किसानों के बैंक खाते में दो हजार रुपये आदि ने आकार ग्रहण कर लिया है। सबसे गंभीर प्रभाव मोदी के व्यक्तित्व का दिखाई देता है।

ग्रामीणों और गरीब तबके में यह भाव घर कर गया है कि मोदी ईमानदार हैं, मेहनतकश हैं, गरीबी का सामना करके आए हैं और गरीबों का दर्द समझते हैं। लोग उन्हें एक मौका और देना चाह रहे हैं। इसका भी असर दिख रहा है कि मोदी भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त हैं। मोदी के परिवार के लोगों का भी नाम कोई नहीं जानता। लोगों में यह भी भाव है कि मोदी ने विदेशों में देश का नाम रोशन किया है। इस मनोविज्ञान के कारण कहीं-कहीं मोदी के प्रति एक ‘सहानुभूति लहर’ भी देखी जा रही है।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि विपक्ष जितना ही मोदी के विरुद्ध गोलबंद हो रहा है, जनता उतना ही मोदी के पक्ष में लामबंद हो रही है। यह भारतीय जनता की विचित्र प्रवृत्ति है। वह उस व्यक्ति के साथ खड़ी होती है जिसके साथ उसे लगता है कि न्याय नहीं हो रहा है। यह स्थिति इंदिरा गांधी की याद दिलाती है। जिस जनता ने 1977 में इंदिरा को उखाड़ फेका उसी जनता ने जनता पार्टी सरकार द्वारा उनके विरुद्ध उठाए कदमों को अस्वीकार करते हुए उन्हें 1980 में पुन: प्रचंड बहुमत दिया, लेकिन कांग्रेस है कि मानती ही नहीं। कांग्रेस अध्यक्ष बार-बार और लगातार मोदी पर वैचारिक आक्रामकता को अपशब्दों में पिरो कर न केवल उसे निष्प्रभावी बना रहे हैं, वरन मतदाताओं को मोदी के पक्ष में लामबंद करने का भी काम कर रहे हैं।

दुर्भाग्य से कांग्रेस के अन्य वरिष्ठ नेताओं को भी या तो इस स्थिति से संतोष है या वे जानबूझकर राहुल और कांग्रेस को इस दलदल से निकालने का प्रयास नहीं करना चाहते। यह इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि कांग्रेस देश के कई राज्यों समेत सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में बीते 30 वर्षों से सत्ता से बाहर है। उत्तर प्रदेश में वह चौथे नंबर की पार्टी बन कर रह गई है। इस बार के लोकसभा चुनावों में अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस के वर्चस्व के मिथक टूटने के आसार से इन्कार नहीं किया जा सकता।

यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस में योग्य और प्रभावी नेतृत्व एवं आतंरिक लोकतंत्र का एक नया द्वार खुलेगा जो न केवल पार्टी को नवजीवन देगा वरन राष्ट्रीय राजनीति में उत्पन्न एक धु्रवीयता को भी समाप्त करने में समर्थ हो सकेगा। विश्व के महत्वपूर्ण लोकतंत्रों जैसे अमेरिका और इंग्लैंड में जनता के सामने राजनीतिक दलों के स्पष्ट विकल्प होते हैं, लेकिन हमारे यहां वह विकल्प समाप्त होता जा रहा है।

यदि कांग्रेस अपनी हठधर्मिता के चलते वंशवाद पर अड़ी रही और पार्टी को पारिवारिक नेतृत्व के ‘वेटिंग-रूम’ के रूप में बनाए रही तो जनता राष्ट्रीय राजनीति में विकल्पहीन हो जाएगी और तब संसदीय लोकतंत्र को कमजोर करने की जिम्मेदारी कांग्रेस की होगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से केवल दो सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने यदि अपनी गलतियों को नहीं सुधारा तो इस बार भी खराब प्रदर्शन करने से उसे कोई बचा नहीं सकता। कांग्रेस ने सतारूढ़ दल के रूप में तो जनता का दिल नहीं जीता और इसीलिए आज उसकी दयनीय दशा है, लेकिन यदि उसने एक सशक्त विपक्ष के रूप में भी व्यवहार करना नहीं सीखा तो कांग्रेस पार्टी, संसदीय लोकतंत्र और भारतीय राजनीति की अपूरणीय क्षति हो सकती है।

 (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं)