भोपाल [संजय मिश्र]। श्रीराम की माया अपरंपार है। जो कभी न होता वह श्रीराम कराते हैं। सबल हो या निर्बल, सबके तारनहार श्रीराम ही हैं। शायद यह उक्ति कांग्रेस के नेता समझने लगे हैं।

खासकर मध्य प्रदेश में कांग्रेस को समझ में आने लगा है कि राम के बिना बेड़ा पार होने वाला नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेस राममय होने लगी है। अपने पारंपरिक आग्रहों को छोड़कर पहली बार कांग्रेस श्रीराम का जाप करने में खुद को आगे दिखाने का उपक्रम कर रही है।

कांग्रेस में यह बदलाव अनायास नहीं आया है। सामाजिक व्यवस्था के साथ सियासत में भी कांग्रेस राम के प्रयोग और उनके विरोध का फल देख चुकी है। शायद उसके नेता समझने लगे हैं कि जो श्रीराम समतामूलक व्यवस्था के आदर्श हैं उनकी शरण में गए बिना बेड़ा पार होने वाला नहीं है।

अयोध्या में श्रीराम मंदिर के भूमिपूजन को लेकर जनमानस में आए भावनाओं के उफान ने कांग्रेस को इस तरह बेचैन किया कि उन्हें श्रीराम याद आने लगे। उसके नेताओं को श्रीराम से दूरी बनाए रखना अब नागवार लगने लगा है। पार्टी में इस धारणा को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ सबसे पहले सामने आए हैं।

उन्होंने श्रीराम को अपनाने के नाम पर सारे जतन शुरू किए। कमल नाथ ने ट्वीट करके घोषणा की कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस के कार्यकर्ता श्रीराम मंदिर भूमिपूजन की पूर्व संध्या पर हनुमान चालीस का पाठ करेंगे। उन्होंने अपने घर पर हनुमान चालीसा के पाठ का आयोजन किया जिसमें अनेक विधायक एवं पदाधिकारी भी शामिल हुए।

परंपरा के अनुसार अयोध्या में राम जन्मभूमि का दर्शन करने से पहले भक्त हनुमान का दर्शन-पूजन करते हैं। कमल नाथ ने भी श्रीराम से पहले हनुमान की आराधना की चली आ रही परंपरा से खुद को जोड़कर यह दिखाने का प्रयास किया कि वह भी बड़े रामभक्त हैं।

कांग्रेसियों ने कमल नाथ का अनुसरण करते हुए इस आयोजन के जरिये खुद को रामभक्त साबित करने की कोशिश की। कमल नाथ के हनुमान चालीसा पाठ के साथ ही प्रियंका गांधी सहित अनेक नेताओं ने श्रीराम को लेकर अपना मत जाहिर किया। श्रीराम के बारे में प्रियंका के बाद राहुल गांधी के बयान ने एक तरह से मध्य प्रदेश कांग्रेस को नई उम्मीद दे दी। 

अपने विवादित बयानों को लेकर सुर्खियों में रहने वाले दिग्विजय सिंह भी राम के गुणगान में कमी नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन वह तय नहीं कर पा रहे कि उन्हें राम वालों के साथ रहना है तो कैसे। इसी वजह से उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर के कार्यारंभ में शुभमुहूर्त न होने की एक अलग ही राग छेड़ दी, जिसे कोई तवज्जो नहीं मिली। इससे दिग्विजय को लेकर एक चर्चा जरूर छिड़ गई कि वह हमेशा की तरह अपना राजनीतिक चश्मा नहीं बदल पा रहे हैं।

सवाल यह भी है कि आखिर लंबे समय बाद कांग्रेस को राम की याद आई तो कैसे। दरअसल मध्य प्रदेश के राजनीतिक हालात ने कांग्रेस नेताओं के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। 27 विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले उपचुनाव के मद्देनजर वह अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर हुए हैं। कई क्षेत्रों के समीकरण ऐसे हैं कि राम के बिना कोई सुनवाई नहीं होने वाली।

इसीलिए जो कांग्रेस नेता कभी मंचों पर राम का नाम लेने से कतराते थे, उन्होंने भी श्रीराम मंदिर निर्माण की पूर्व संध्या पर हनुमान चालीसा का पाठ किया। मध्य प्रदेश में हाल के दिनों तक कांग्रेस मंदिर मुद्दे को लेकर ही धर्म और राजनीति के मेल को खतरनाक बताती रही है। दिग्विजय सिंह, कमल नाथ हों या कांग्रेस के अन्य नेता, समय समय पर सबने धर्म के प्रति अपनी आस्था के प्रतीकात्मक आयोजन किए, लेकिन सार्वजनिक रूप से उसे छुपाने की भी कोशिश की।

चुनावी वादों में जरूर राम वनगमन पथ जैसे आस्था के प्रतीक मुद्दों को शामिल किया, लेकिन नर्मदा परिक्रमा हो या छिंदवाड़ा में कमल नाथ द्वारा 100 फीट की हनुमान प्रतिमा की स्थापना, सभी को व्यक्तिगत आस्था का मामला बताकर पार्टी को दूर रखा। पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव जब 2014 में प्रदेश अध्यक्ष बनकर आए तो उन्होंने प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में गणेशोत्सव और दुर्गोत्सव के आयोजन किए।

तब उनके खिलाफ हाईकमान तक शिकायतें की गई थीं। ऐसे में कांग्रेस नेताओं का हृदय परिवर्तन अनायास नहीं है। कांग्रेस को वैचारिक स्तर पर बदलने की यह कोशिश कितनी कारगर होगी, यह तो समय बताएगा, लेकिन पार्टी में इसका विरोध भी शुरू हो गया है।

श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर कमल नाथ और दिग्विजय के बयानों को आधार बनाकर केरल के कांग्रेस सांसद टीएन प्रथापन ने इन दोनों के बयानों को कांग्रेस की नीति के खिलाफ बताया है। यह भी कहा है कि यह अति र्धािमक राष्ट्रवाद के पीछे भागने की कोशिश है, जो कांग्रेस के सिद्धांत से मेल नहीं खाती।

फिलहाल विधानसभा उप चुनाव को देखते हुए लग रहा है कि कांग्रेस अकेले भाजपा को हिंदू कार्ड खेलने का मौका नहीं देना चाहती। इसीलिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ ने भी भगवा ओढ़ लिया है। इसका सीधा लाभ भले न मिले, लेकिन प्रतिक्रिया में कटने वाले वोट से राहत मिल सकती है। (स्थानीय संपादक,नवदुनिया)