ए. सूर्यप्रकाश। राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद इसे लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार पर विराम लग जाना चाहिए। फ्रांसीसी कंपनी दासौ के साथ हुए 36 विमानों के इस सौदे में शीर्ष अदालत को कुछ गड़बड़ नहीं लगा और उसने इससे संबंधित सभी याचिकाएं खारिज कर दीं। उम्मीद है कि इससे देश के प्रबुद्ध लोग उस दुष्प्रचार को लेकर सावधान रहेंगे जो फिलहाल राफेल को लेकर किया जा रहा है। इसमें एक तबका तो इसकी तुलना बोफोर्स मामले से करने जैसी मूर्खतापूर्ण कोशिश भी कर रहा है। इन दोनों सौदों में सिर्फ एक पहलू को छोड़कर कोई और समानता नहीं है। वह यही कि ये दोनों ही रक्षा से जुड़े अनुबंध हैं जिनमें विदेशी कंपनियों के साथ सौदे किए गए। ये समानताएं बस यहीं खत्म हो जाती हैं।

बोफोर्स के मामले में आरोप एकदम स्पष्ट थे कि इस स्वीडिश कंपनी ने सौदे को हासिल करने के लिए रिश्वत खिलाई थी। इसमें ओत्तावियो क्वात्रोची जैसे लोगों और कई संगठनों के खाते में भुगतान भी किया गया। क्वात्रोची संप्रग की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और उनके स्वर्गीय पति राजीव गांधी के घनिष्ठ मित्र थे। वहीं राफेल के मामले में किसी तरह की रिश्वतखोरी का कोई मामला सामने नहीं आया। हालांकि इसमें ऑफसेट पार्टनर के मुद्दे को उठाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं को कई आधार पर खारिज कर दिया। इनमें आरोपों को लेकर अस्पष्टता भी एक आधार था। इसके उलट बोफोर्स में रिश्वत के साक्ष्यों पर गौर कीजिए। कुछ साक्ष्यों को आयकर अपीलीय प्राधिकरण (आइटीएटी) की दिल्ली शाखा ने बड़ी एहतियात से पेश भी किया था। टिब्यूनल ने इसकी तफ्तीश करके अपनी जांच का पूरा ब्यौरा सामने रखा था। राफेल मामले में सरकार के खिलाफ जिस तरह के अनाप-शनाप आरोप लगाए जा रहे हैं उसकी तुलना में बोफोर्स में दलाली के स्पष्ट साक्ष्य थे।

टिब्यूनल के अनुसार इतालवी मूल के क्वात्रोची 28 फरवरी, 1965 से 29 जुलाई, 1993 के बीच भारत में रहे। इसमें 4 मार्च, 1966 से 12 जून, 1968 के बीच के संक्षिप्त अंतराल में जरूर वह देश में सक्रिय नहीं रहे। वह पेशेवर चार्टर्ड अकाउंटेंट थे जो एक इतालवी बहुराष्ट्रीय कंपनी स्नामप्रोगेती में काम करते थे। मगर न तो क्वात्रोची को और न ही उनकी कंपनी को हथियारों या किसी अन्य किस्म के रक्षा उपकरणों के मामले में कोई अनुभव था। वहीं राजीव गांधी सरकार ने यह एलान भी किया था कि सौदे में किसी तरह के बिचौलिये शामिल नहीं होने चाहिए। फिर भी इस मामले में 15 नवंबर, 1985 को ब्रिटिश कंपनी एई सर्विसेज लिमिटेड के साथ परामर्श अनुबंध किया गया।

यह सब क्वात्रोची के कहने पर किया गया। इस अनुबंध में साठगांठ का सबसे बड़ा पहलू यही था कि बोफोर्स इस बात पर सहमत हो गई कि अगर उसे 31 मार्च, 1986 तक भारत में यह सौदा हासिल हुआ तो सौदे की रकम का तीन प्रतिशत कमीशन वह एई सर्विसेज को देगी। राजीव गांधी सरकार ने भी 24 मार्च, 1986 को इस सौदे पर मुहर लगा दी। यानी सरकार ने बोफोर्स द्वारा तय समय सीमा से छह दिन पहले ही इसे मंजूरी दे दी। अनुबंध होते ही भारत सरकार ने बोफोर्स के लिए 2 मई, 1986 को अनुबंध राशि की पहली किस्त भी जारी कर दी जो कुल राशि के 20 प्रतिशत के बराबर थी। बोफोर्स ने 3 सितंबर, 1986 को नॉर्डफाइनांज बैंक की ज्यूरिख शाखा में एई सर्विसेज के खाते में 73.43 लाख डॉलर की राशि जमा भी करा दी जो अग्रिम भुगतान की 20 प्रतिशत रकम थी। टिब्यूनल की जांच में सामने आया कि एई सर्विसेज ने यह रकम 29 सितंबर, 1986 को यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड, जेनेवा में कोलबार इन्वेस्टमेंट्स के खाते में भेज दी। 25 जुलाई, 1988 को उसी बैंक में यह रकम वेटलसेन ओवरसीज नाम की कंपनी के खाते में हस्तांतरित कर दी गई। इसके बाद 21 मई, 1990 को यह रकम चैनल आइलैंड की एक कंपनी इंटरनेशनल इन्वेस्टमेंट डेवलपमेंट कंपनी के खाते में भेज दी गई। इस पर आइटीएटी ने कहा, ‘कोलबार इन्वेस्टमेंट्स के साथ ही वेटलसेन ओवरसीज जैसी कंपनियों के खाते ओत्तावियो क्वात्रोची और उनकी पत्नी मारिया क्वात्रोची द्वारा संचालित किए जाते थे।’

इस पूरे घटनाक्रम में एक अप्रत्याशित मोड़ तब आया जब अप्रैल 1987 में बोफोर्स रिश्वत कांड के खुलासे के बाद एई सर्विसेज ने बोफोर्स से मिलने वाली कमीशन की शेष राशि लेने से इन्कार कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी बोफोर्स को किए गए संदिग्ध भुगतान का जवाब नहीं दे पा रहे थे। अपने अंतिम आकलन में आइटीएटी ने कहा कि क्वात्रोची और विन चड्ढा ने 24.3 लाख स्वीडिश क्रोनर के वारे-न्यारे कर लिए। क्वात्रोची और नेहरू-गांधी परिवार के बीच रिश्तों की कड़ी तब साफ तौर पर जाहिर हो गई जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ब्रिटिश सरकार से क्वात्रोची के खातों पर लगी रोक हटवाई। उसके खातों पर यह रोक वाजपेयी सरकार के प्रयासों से लगी थी। मनमोहन सरकार की इस कवायद से क्वात्रोची लूट की इस रकम को भुनाने में कामयाब रहा।

जहां इस मामले में कोई संदेह नहीं कि भारतीय सेना के लिए तोप खरीदने में गांधी-नेहरू परिवार के एक करीबी ने रिश्वत खाई तो इसके उलट राफेल के मामले में आरोप वास्तविकता के धरातल पर कहीं टिकते ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका की खामियों और मीडिया में आई रपटों पर भी टिप्पणी करना जरूरी समझा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘अदालत को ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि वह 36 लड़ाकू विमानों की खरीद के संवेदनशील मामले में कोई दखल दे। कुछ लोगों की धारणाओं के आधार पर अदालत विशेषकर ऐसे मामलों में जांच के आदेश नहीं दे सकती।’ वहीं ऑफसेट साङोदार के चयन पर भी अदालत ने यह टिप्पणी की, ‘मीडिया में आए कुछ साक्षात्कार या सुझाव अदालत द्वारा न्यायिक समीक्षा का आधार नहीं बन सकते। हमें नहीं लगा कि भारत सरकार ने इस मामले में किसी पक्ष विशेष के साथ वाणिज्यिक पक्षपात किया।’

रिट याचिका में राफेल की कीमत का महत्वपूर्ण मुद्दा भी उठाया गया। वायु सेना प्रमुख ने इसकी कीमत सार्वजनिक करने का विरोध किया था। फिर भी अदालत ने इस पर कहा, ‘अनिच्छा के बावजूद अदालत की संतुष्टि के लिए इसकी पड़ताल कर ली गई है।’ अदालत ने कहा कि उसने कीमतों का गहन विश्लेषण किया है और उसका मानना है कि ऐसे मामलों में गोपनीयता बरती जाए। अदालत ने पर्याप्त सैन्य क्षमताओं और देश की अखंडता एवं संप्रभुता की रक्षा को नि:संदेह देश के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना है। ऐसे में अत्याधुनिक तकनीक और अन्य सामग्रियों के दम पर सुरक्षा बलों का सशक्तीकरण बेहद अहम है। इस प्रकार अदालत को लगता है कि रक्षा खरीद के मामले में न्यायिक जांच का दायरा वैसा नहीं हो सकता जैसा अन्य निविदाओं और अनुबंधों के मामले में होता है।

जो लोग राफेल को लेकर अनर्गल आरोप लगाने में जुटे हैं उन्हें इससे सबक लेने चाहिए। यहां मैंने क्वात्रोची के मामले का जिक्र इसीलिए किया, क्योंकि उसमें जांच के बाद यह सब पुष्ट हुआ। ऐसे में प्रधानमंत्री के लिए राफेल को बोफोर्स जैसा मामला बताने वालों की दलील हास्यास्पद ही है। मिथ्या आरोप साक्ष्यों की जगह नहीं ले सकते।

(लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)