[ संजय गुप्त ]: कर्नाटक में सत्तारूढ़ गठबंधन का संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अब निगाहें सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर हैं जो उसे कांग्रेस और जद-एस विधायकों के इस्तीफे और कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष के रुख-रवैये को लेकर देना है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ भी हो, इसमें संदेह है कि कर्नाटक सरकार को कोई बड़ी राहत मिलने वाली है, क्योंकि इस्तीफा देने वाले जद-एस और कांग्रेस के बागी विधायक अपने फैसले पर अड़े हुए हैं। अभी तक जिन 16 विधायकों ने इस्तीफे दिए हैैं उनमें 13 कांग्रेस के हैैं। दो निर्दलीय विधायकों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया है।

कांग्रेस के विधायक पार्टी छोड़ने पर आमादा
कांग्रेस नेतृत्व को इससे चिंतित होना चाहिए कि इस्तीफा देने वाले अधिकांश विधायक उसके ही हैं। यह विचित्र है कि कांग्रेसी नेता कर्नाटक और गोवा के घटनाक्रम को लेकर भाजपा के खिलाफ संसद में धरना-प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं। कांग्रेस की भाजपा से शिकायत समझ में आती है, लेकिन आखिर इस सच की अनदेखी कैसे की जा सकती है कि उसके अपने ही विधायक पार्टी छोड़ने पर आमादा हैं? कांग्रेस के लिए यह किसी आघात से कम नहीं कि कर्नाटक का संकट सुलझता, उसके पहले ही गोवा में उसके विधायकों ने बगावत कर दी। गोवा के 15 में से 10 विधायक भाजपा से जा मिले। अब उनमें से कुछ सरकार में शामिल भी हो गए हैं।

गोवा घटनाक्रम कांग्रेस के लिए झटका
गोवा का घटनाक्रम कांग्रेस के लिए नया झटका है, लेकिन ऐसे झटके उसे लगते ही चले आ रहे हैं। अभी कुछ ही दिन पहले गुजरात में उसके दो विधायकों ने बगावत कर दी थी। बगावत का यह सिलसिला कहीं न कहीं कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी को ही बयान करता है। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस जिस तरह नेतृत्व के सवाल को लेकर उलझी हुई है उसका असर उसकी राज्यों की इकाइयों पर भी पड़ रहा है।

कांग्रेस में उठापटक जारी
कांग्रेस को यह समझना होगा कि नेतृत्व को लेकर असमंजस का जो दौर जारी है उससे आम कांग्रेसी नेता एवं कार्यकर्ता अपने भविष्य को लेकर निराशा से घिर रहे हैं। हैरत नहीं कि इसी कारण पहले कर्नाटक के कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी छोड़ना बेहतर समझा हो और फिर गोवा के कांग्रेसी विधायकों ने। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विभिन्न राज्यों में कांग्रेस में उठापटक जारी है। कुछ राज्यों में तो कांग्रेसी नेताओं की आपसी खींचतान पूरी तौर पर खुलकर बाहर आ गई है। कांग्रेस के पास अपनी राज्य इकाइयों की इस खींचतान को सुलझाने की फुरसत इसलिए नहीं, क्योंकि वह खुद ही नेतृत्व के मसले को लेकर खींचतान से ग्रस्त है।

कांग्रेस की बागडोर कौन संभालेगा?
लोकसभा चुनाव के बाद ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अध्यक्ष पद छोड़ना चाहते हैं, लेकिन पार्टी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। करीब एक माह बाद राहुल गांधी ने त्यागपत्र देकर अपना इरादा और स्पष्ट कर दिया, लेकिन अभी भी यह समझना कठिन है कि कांग्रेस की बागडोर कौन संभालेगा? पार्टी में नेतृत्व के मसले को लेकर कोई आम सहमति बनती नहीं दिख रही है। कांग्रेस के बुजुर्ग नेता कुछ और चाह रहे हैं एवं युवा नेता कुछ और।

कांग्रेस में असमंजस की स्थिति

यदि असमंजस का यह दौर और लंबा खिंचा तो कांग्रेस को और अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। उसकी कुछ और राज्य इकाइयों में टूट-फूट हो सकती है। कांग्रेसी नेता बेहतर भविष्य की आस में दूसरे दलों की ओर रुख कर सकते हैं। कांग्रेस में असमंजस की स्थिति के लिए कहीं न कहीं गांधी परिवार भी जिम्मेदार है। यह तो साफ है कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद पर नहीं रहना चाहते, लेकिन यह नहीं स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस में गांधी परिवार की क्या भूमिका होगी? भले ही राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रियंका गांधी वाड्रा महासचिव पद पर कायम हैं। उनका महासचिव पद पर कायम रहना इसलिए सवालों को जन्म दे रहा है, क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया महासचिव पद से इस्तीफा दे चुके हैं। उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार मिला था और प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का। दोनों ही नाकाम रहे, लेकिन इस्तीफा केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दिया।

कांग्रेस को अपनी दिशा तलाशनी होगी
कांग्रेस में एक ऐसे समय टूट-फूट जारी है जब इसकी जरूरत बार-बार दोहराई जा रही है कि देश को एक सशक्त विपक्ष की आवश्यकता है। नि:संदेह इस आवश्यकता की पूर्ति होनी चाहिए। मौजूदा समय इस आवश्यकता की पूर्ति केवल कांग्रेस ही कर सकती है, क्योंकि वही एक ऐसा राष्ट्रीय दल है जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद पूरे देश में व्यापक असर रखता है। आज देश में कोई भी ऐसा क्षेत्रीय दल नहीं जो राष्ट्रीय स्वरूप ले सके। इन स्थितियों में यह और आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस अपनी दिशा तलाशे और नेतृत्व के मसले को जितनी जल्दी हो सके, सुलझाए।

कर्नाटक की बेमेल गठजोड़ सरकार
यह कहने से कांग्रेस का काम चलने वाला नहीं है कि भाजपा अपनी राजनीतिक ताकत और पैसे के बल पर विपक्ष को खत्म करने पर तुली हुई है। देश को मजबूत विपक्ष देना विपक्षी दलों का काम है, न कि सत्ता पक्ष का। कर्नाटक के राजनीतिक संकट का समाधान चाहे जैसे हो, इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जनता दल-सेक्युलर के नेता कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के सहयोग से बनी गठबंधन सरकार बेमेल गठजोड़ का नतीजा थी। यह सरकार सिर्फ इसलिए बनाई गई ताकि भाजपा को सत्ता से दूर रखा जा सके।

कर्नाटक में विधायकों की बगावत
सरकार गठन के बाद जद-एस और कांग्रेस के बीच खटपट इसीलिए जारी रही, क्योंकि न तो कोई साझा एजेंडा तैयार किया जा सका और न ही अंतरविरोधों को दूर करने की कोई ठोस पहल हुई। इसी कारण लोकसभा चुनावों में इस गठबंधन को बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। यह पराजय इसका ही परिचायक थी कि राज्य की जनता गठबंधन सरकार से नाखुश है। कर्नाटक में अपने विधायकों की बगावत के लिए कांग्रेस नेतृत्व भले ही भाजपा को कठघरे में खड़ा करे, लेकिन वह इस हकीकत से अनजान नहीं हो सकती कि दक्षिण के राज्यों में अस्थिरता से घिरी सरकारों में टूट-फूट कोई नई बात नहीं। ऐसी सरकारों को सहारा देने वाले विधायक मौका मिलने पर दूसरे दलों की ओर रुख करते रहे हैं। निष्ठा बदलने का जैसा खेल इन दिनों कर्नाटक मे जारी है वैसा ही आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी देखने को मिल चुका है।

कांग्रेस अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करे
यह समय की मांग है कि कांग्रेस अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करे, क्योंकि उसके कारण ही पार्टी में निराशा का माहौल है। निराशा का यह माहौल इसलिए और अधिक गहरा गया है, क्योंकि बीते लगभग डेढ़ माह से कांग्रेस में नेतृत्व का सवाल सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा है। इस उलझन के लिए कांग्रेस नेतृत्व अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकता। यह कांग्रेस और साथ ही देश की राजनीति के हित में है कि वह अपनी कमजोरियों को स्वीकार कर उन्हें गंभीरता के साथ दूर करने का काम प्राथमिकता के आधार पर करे। यह ठीक नहीं कि कांग्रेस राष्ट्रीय विपक्षी दल के रूप में कमजोर होने के बाद राज्यों में भी अपनी ताकत खोती जा रही है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]