नई दिल्ली [प्रदीप सिंह]। भारतीय जनता पार्टी के लिए दक्षिण का द्वार खुलकर फिर बंद हो जाने जैसी स्थिति है। चूंकि कर्नाटक के मतदाताओं ने किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया इसलिए जोड़-तोड़ के लिए मैदान खुल गया है। कांग्रेस ने पहली चाल चल दी है। उसने जनता दल (एस) नेता एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया है, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया है। वह सरकार बनाने के लिए तैयार हैं, लेकिन भाजपा ने अभी हथियार नहीं डाले हैं। गेंद राज्यपाल के पाले में है। उनके सामने दुविधा होगी कि सबसे बड़े दल को बुलाएं या बहुमत का दावा करने वाले गठजोड़ को। उनका फैसला जो भी हो, यह एक बात तो साफ है कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए पिछले चार साल में 21वां दरवाजा मतदाताओं ने बंद कर दिया। कर्नाटक में कांग्रेस की हार केवल एक और राज्य हारने जैसा नहीं है। उत्तर प्रदेश की तरह कर्नाटक में भी राज्य सरकार का काम नहीं बोला। कांग्रेस के चुनाव प्रचार का मुख्य बिंदु था कि वह अपने काम के आधार पर वोट मांग रही है।

राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए मतदाताओं का एक और संदेश है-सुधरो। कर्नाटक एक ऐसा प्रदेश है जो सांगठनिक दृष्टि से भाजपा का मजबूत गढ़ कभी नहीं रहा। 2008 में सत्ता में आने के बाद पार्टी में तीन फाड़ हो गए। प्रदेश में उसके सबसे लोकप्रिय नेता बीएस येद्दियुरप्पा भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरकर पार्टी से बाहर हो गए। वह भाजपा में वापस आकर एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने की कोशिश कर रहे हैं। कर्नाटक की कामयाबी आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा का मनोबल बढ़ाएगी। चार राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं। इन चार राज्यों में से राजस्थान में भाजपा की स्थिति कमजोर है, लेकिन कर्नाटक की हार के बाद कांग्रेस के लिए भाजपा की कमजोरी का फायदा उठाना आसान नहीं होगा। कर्नाटक के चुनाव नतीजों से साफ है कि दक्षिण के इस राज्य में भाजपा का जनाधार अभी इतना पुख्ता नहीं हुआ कि वह कांग्रेस को पूरी तरह मात दे सके। दूसरा संदेश यह है कि जो लोग जनता दल (एस) को लड़ाई से बाहर मान रहे थे वे गलत साबित हुए। देवगौड़ा और उनके बेटे कुमारस्वामी जानते थे कि उन्हें बहुमत नहीं मिलने वाला। उनकी सारी कोशिश किंग मेकर बनने की थी। उनके भाग्य से छींका टूटा और जो परिस्थिति बनती दिख रही है उसमें वह किंग यानी मुख्यमंत्री भी बन जाएं तो हैरत नहीं। राज्य में पराजित कांग्रेस की हालत यह है कि वह अपने विरोधी की एक आंख फोड़ने के लिए अपनी दोनों आंखें फोड़ने को तैयार है।

कर्नाटक में जनता दल (एस) का लड़ाई में बने रहना और मजबूत होना भाजपा के बजाय कांग्रेस के भविष्य की दृष्टि से ज्यादा नुकसानदेह है, लेकिन कांग्रेस इस समय भविष्य की कीमत पर वर्तमान में जो कुछ मिल जाए उसकी कोशिश कर रही है। वह भाजपा को एक और राज्य और वह भी दक्षिण भारत में सरकार बनाने से रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार होगी। कांग्रेस का पूरा चुनाव अभियान नकारात्मक और विभाजनकारी मुद्दों पर केंद्रित रहा। कांग्रेस और मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने गुजरात की तर्ज पर पहले कन्नाडिगा अस्मिता का मुद्दा बनाने के लिए राज्य के अलग झंडे और गीत की बात की। फिर उत्तरदक्षिण और हिंदी-कन्नड़ भाषा का विवाद खड़ा किया। उसके बाद लिंगायत समाज को बांटने के लिए उन्हें अलग संप्रदाय का दर्जा देने का प्रस्ताव पास किया।

चुनाव दर चुनाव मतदाता कांग्रेस और भाजपा के दूसरे विरोधियों को संदेश दे रहा है कि हिंदू समाज को बांटने की किसी कोशिश का वह समर्थन नहीं करेगा। लिंगायत के जिस मुद्दे को वह ट्रंप कार्ड समझ रही थी वह उसे उलटा पड़ा। इस नतीजे से एक बात और साफ हो गई कि राहुल गांधी के भाजपा विरोधी किसी भी मोर्चे का नेता बनने की संभावना लगभग खत्म हो गई है। ऐसा नहीं है कि पहले इसकी बहुत ज्यादा संभावना थी। देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के बावजूद कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी बनने की स्थिति में नहीं रह गई है। कांग्रेस का राज इस समय देश की सिर्फ ढ़ाई फीसदी आबादी तक सिमट कर रह गया है। भाजपा विरोधी खेमे को कर्नाटक का नतीजा और कमजोर करेगा। राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी गठबंधन के लिए जरूरी होता है कि एक ऐसी पार्टी उसकी धुरी बने जो कई राज्यों में पार्टी हो और वह सहयोगी दलों के वोट में इजाफा कर सके। पूरे विपक्षी खेमे में इस समय ऐसी कोई पार्टी नहीं है। कांग्रेस केलिए वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में एक और कठिनाई है कि जिन राज्यों में इस साल के आखिर में चुनाव होना है वहां उसका मुकाबला सीधे भाजपा से है। वह चाहे भी तो किसी और दल से गठबंधन नहीं कर सकती, क्योंकि तीनों राज्यों में कोई तीसरा दल है ही नहीं।

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के नतीजे ने कांग्रेस को एक बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। पार्टी के सामने सवाल है कि वह अपने नेताऔर पार्टी अध्यक्ष का क्या करे? कांग्रेसियों का हाल यह है कि उनके बिना रहा भी न जाए और उन्हें सहा भी न जाए। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी और जो भी कर सकते हों, लेकिन वह कांग्रेस को चुनाव नहीं जिता सकते। कर्नाटक की आबादी में युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है। कांग्रेस को सोचना चाहिए कि उसके युवा नेता की बात पर देश के युवाओं को भरोसा क्यों नहीं है? क्यों युवा मतदाता 67 साल के मोदी को सुनने ही नहीं उन पर यकीन करने को भी तैयार है? नेहरू-गांधी परिवार लंबे समय तक पार्टी को वोट दिलाने की गारंटी रहा है, लेकिन 2013 के बाद से यह परिवार पार्टी के लिए असेट की बजाय लायबिलिटी बनता जा रहा है। चुनाव अभियान के दौरान राहुल गांधी ने दावा किया उन्हें नरेंद्र मोदी की आंख में दिख रहा है कि वह 2019 में प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। इसी के साथ उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी भी पेश कर दी।

राहुल गांधी के बयान किसी राष्ट्रीय नेता के लिहाज से बचकाना लगते हैं। अब कांग्रेस को तय करना है कि वह राहुल गांधी के नेतृत्व पर पुनर्विचार करेगी या नेहरू-गांधी परिवार के साथ सती होगी? कांग्रेस में बदलाव की नहीं आमूल- चूल परिवर्तन की जरूरत है। केवल संगठन में ही नहीं सोच, विचार और आचार-व्यवहार के स्तर पर भी। कर्नाटक के मतदाताओं ने कांग्रेस को केवल सत्ता से ही बाहर नहीं किया। उसके लिए कई और दरवाजे भी बंद कर दिए हैं। कर्नाटक में उसके लिए अब पीछे का दरवाजा ही एक उम्मीद है। जनता दल (एस) उसकी उम्मीद की एकमात्र किरण है। भाजपा को रोकने के लिए वह एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार तो है, लेकिन अभी यह कहना कठिन है कि यह गठबंधन बना तो कितने दिन चलेगा? त्रिशंकु विधानसभा ने कर्नाटक को राजनीतिक अस्थिरता के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है। उसका हित इसी में है कि उसे इस अस्थिरता से जल्द मुक्ति मिले।

[लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार है]