[ आशुतोष झा ]: पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव यह संकेत दे रहे हैैं कि साढ़े चार वर्ष बाद पहली बार कांग्रेस उत्साहित है। माना जा रहा है कि वह इन पांच में से कम से कम तीन राज्यों में सत्ता की लड़ाई में प्रमुखता से है। हालांकि नतीजा अगले महीने आएगा, लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कुछ समय पहले तक नि:शक्त दिख रही कांग्रेस में फिलहाल जोश का संचार होता हुआ दिख रहा है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए सेमीफाइनल साबित हों या नहीं, उनके नतीजे कांग्रेस के लिए मापदंड जरूर बनेंगे। यह भी तय है कि इन चुनाव नतीजों के बाद ही यह पता चलेगा कि महागठबंधन आखिर अपने स्वरूप में आएगा भी या नहीं और उसमें कांग्रेस कहां खड़ी होगी? सवाल यह खड़ा होता है कि कांग्रेस मुकाबला करने की स्थिति में पहुंची कैसे?

क्या कांग्रेस को कोई नीलम का पत्थर मिल गया जो रातों रात उसकी स्थिति बदलने लगी और भाजपा से सीधी टक्कर में भी हारने वाली पार्टी अब उसकी नींव हिलाने का दावा कर रही है? शायद कांग्रेस को इसका अहसास हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों में राजनीति और चुनावी कौशल को नया आयाम देने वाली भाजपा से मुकाबला तभी हो सकता है जब उसका ही अनुसरण किया जाए और उसकी पद्धति अपनाई जाए। खुद राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के 2017 विधानसभा चुनाव के बाद इसका संकेत भी दिया था।

कांग्रेस सार्वजनिक रूप से इसे भले न माने, लेकिन पिछले डेढ़ वर्षों से वह भाजपा का ही अनुसरण करती दिख रही है। संभव है कि आज कांग्रेस जहां खड़ी दिख रही है उसमें इसकी भी भूमिका हो। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का मंदिरों का दौरा तो लोग गुजरात चुनाव के वक्त से ही देख रहे हैैं। राहुल ने मंदिर भ्रमण को कर्नाटक में भी दोहराया। शिवभक्त होने का दावा, कुछ गर्व के साथ जनेऊधारी ब्राह्मण होने की घोषणा, कैलास मानसरोवर की यात्रा और उसका प्रचार-प्रसार किसी भी सूरत में बहुत सामान्य नहीं था। यह कांग्रेस के बदल रहे चेहरे को पेश करने के लिए था। अब तो राहुल गांधी के गोत्र का भी उल्लेख किया जा रहा है।

इन दिनों राम मंदिर का मसला गरमाया हुआ है और माना जा रहा है कि संघ परिवार इसके जरिये भाजपा को फायदा पहुंचाना चाहता है। भाजपा नेताओं की ओर से यह कहने में गुरेज नहीं हो रहा है कि राम मंदिर बनना ही चाहिए। इसी मसले पर कांग्रेस के एक बड़े नेता ने एक कदम आगे बढ़ते हुए सार्वजनिक रूप से बयान दिया कि राम मंदिर तो कांग्रेस का ही कोई प्रधानमंत्री बनवाएगा। उन्होंने राजीव गांधी के काल में विवादास्पद स्थल में ताला खुलवाने का श्रेय भी लिया। दिलचस्प यह है कि इस नेता के एक दूसरे बयान पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें लताड़ भी लगाई और माफी मांगने के लिए बाध्य भी किया।

यह भी उल्लेखनीय है कि अन्य कांग्रेसी नेता मंदिर मसले पर बोलने से बच रहे हैैं। कांग्रेस में आ रहे इस बदलाव को कुछ महीने पहले उभरे उस विवाद से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए जिसमें कथित तौर पर कहा गया था कि कांग्रेस तो मुसलमानों की पार्टी है। उस वक्त कांग्रेस ने राहुल गांधी के इस कथित बयान को नकारा था। ध्यान रहे कि संप्रग सरकार के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यह कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। कांग्रेस के इस बदलाव का यही कारण नजर आता है कि जिस तरह भाजपा को अहसास है कि मुस्लिम समुदाय का बहुत बड़ा वर्ग उसे वोट नहीं देता उसी तरह कांग्रेस को भी इस बात की इल्म हो गया है कि जहां कहीं भी क्षेत्रीय दल मजबूत हो चुके हैं वहां हिंदू समाज कांग्रेस से ज्यादा इन दलों पर भरोसा जताता है।

महगठबंधन की स्थिति में जनता का नजरिया शायद ही बदले, लेकिन लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के लिहाज से झांकें तो सभी अहम और बड़े राज्यों में क्षेत्रीय दलों का ही दबदबा है। वहां कांग्रेस को कुछ हासिल करना है तो साथियों को यह दिखाना होगा कि वह भाजपा के जनाधार में सेंध लगाने की सामथ्र्य रखती है। हाल के विधानसभा चुनावों और खासकर मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में गोरक्षा को लेकर कांग्रेस का उत्साह प्रदर्शन इसी रणनीति का हिस्सा जान पड़ता है।

अभी हाल में जम्मू कश्मीर में पीडीपी-कांग्रेस-एनसी की सरकार बनाने की कवायद हुई। हालांकि विधानसभा भंग होने के कारण यह मुहिम तत्काल ध्वस्त भी हो गई, लेकिन अंदरूनी हकीकत यह है कि इससे कांग्रेस ने राहत की सांस ली है। वह पीडीपी के साथ दिखना नहीं चाहती थी, लेकिन विरोध कर भाजपा को कदम बढ़ाने का मौका भी नहीं देना चाहती थी। अब सांप भी मर गया और लाठी भी नही टूटी। माना जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस नेशनल काफ्रेंस के साथ लोकसभा के लिए गठबंधन चाहती है। आखिर जब वह अन्य राज्यों में भाजपा के खिलाफ खड़े राजनीतिक दल को अपने से जोड़ना चाहती है तो कश्मीर में पीडीपी से दूरी क्यों? कहीं यह अपने राष्ट्रवादी चेहरे को किसी खरोंच से बचाने की कवायद तो नहीं? जो भी हो, मैदानी तौर-तरीकों में भी कांग्रेस भाजपा का अनुसरण करने में कोई हिचक नहीं दिखा रही।

इसका एक खास नजारा छत्तीसगढ़ में दिखा। संगठन और बूथ पर खिलाड़ी वैसे ही सजाए गए जैसे भाजपा उतारती रही है। कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की ईजाद है। चूंकि कांग्रेस में यह कभी हुआ नहीं इसीलिए जब एक सलाहकार ने पांच घंटे के प्रशिक्षण का सुझाव दिया तो वह प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल को रास नहीं आया। उन्होंने कहा, मैं 35 साल से कांग्रेस में हूं और दो घंटे भी प्रशिक्षण शिविर नहीं गया, लेकिन बूथ लेवल कार्यकर्ताओं के शिविर छत्तीसगढ़ के सभी इलाकों में हुए और खुद राहुल भी बस्तर के एक ऐसे शिविर में गए।

अमित शाह ने चुनाव से पहले हर बूथ पर पन्ना प्रमुख बनाने का सफल प्रयोग किया था जो मतदाताओं से सीधा संपर्क साध सके। निचले स्तर तक संगठनात्मक पहुंच और संवाद की यह प्रक्रिया अब कांग्रेस ने भी हर राज्य में शुरू कर दी है। एक राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस अपनी रणनीति बनाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन वह यह ध्यान रखे तो बेहतर कि नकल और मौलिकता में फर्क होता है। जब लड़ाई लंबी हो तो सांगठनिक विश्वसनीयता स्थापित करने के अपने तौर-तरीके ईजाद करने होते हैैं। औरों के अनुसरण की राजनीति कभी भी घातक हो सकती है।

[ लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैैं ]