कल (17 सितंबर) विश्वकर्मा जयंती है और एक दिन पहले ही इंजीनियर्स-डे (15 सितंबर) गया है। दोनों का ही संबंध- सरोकार निर्माण से है। आज यह संदर्भ इसलिए सामयिक है, क्योंकि मध्य प्रदेश में सरकारी महकमों के निर्माण कार्य की बखिया उधेड़ती एक खबर ने इन दिनों देशभर में हलचल मचा रखी है। प्रदेश को शर्मसार करता यह समाचार है- शिवपुरी में कुनो नदी पर आठ करोड़ रुपये की लागत से बने नए पुल का 100 दिन में ही बह जाना। मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के लिए राहत बस इतनी है कि पुल के इस ‘भ्रष्ट-बहाव’ में जान-माल का नुकसान सामने नहीं आया है, नहीं तो शवों पर शोक मनाने की रस्म में यह महकमा भी शामिल हो जाता। चार महीने पहले चंबल नदी (ग्वालियर- इटावा नेशनल हाइवे) पर बने पुल की बेयरिंग भी टूट गई थी। एक महीने से ज्यादा समय आवागमन बंद रहा। यदि दूर-देहात के सभी पुल-पुलियाओं की दरारें भी इसमें जोड़ लें, तो ‘सरकारी-समर्पण’ का सफेद सच आसानी से समझा-सामने लाया जा सकता है।

चिंता-चुनौती का विषय यह भी है कि ये घटनाएं तब हो रही हैं जब लोक निर्माण विभाग प्रदेशभर के पुल-पुलियाओं की क्षमता बड़े स्तर पर जांच रहा है। जागरूकता का प्रदर्शन भी ऐसा हो रहा है कि सुरक्षा-सावधानी को ध्यान में रखते हुए, कुछ स्थानों पर बेयरिंग तोड़-तोड़कर देखे जा रहे हैं। लेकिन, पुल हैं कि पानी हुए जा रहे हैं, गिर रहे हैं, टूट रहे हैं, बह रहे हैं। और, बार-बार बता रहे हैं कि निर्माण के दौरान निगरानी-तंत्र नादान बना रहा, इसलिए वे भी उतनी ही नादानी से जमीन छोड़ रहे हैं।

दरअसल, पुल-पुलियाओं के लिए निर्धारित सुरक्षा मापदंडों के अनुसार प्रत्येक निर्माण की साल में दो बार (मानसून से पहले और बाद) जांच होनी चाहिए, लेकिन शिवपुरी जैसे संकट से साफ है कि अत्याधुनिक तकनीक के इस युग में भी, अभी तक छोटे से लेकर बड़े-बड़े सरकारी निर्माणों की निगरानी का कोई ‘अचूक तरीका’ नहीं है। इसलिए दुनिया में हो रहे नए-नए शोध-अनुसंधानों के बावजूद करोड़ों लोगों की जान को चंद कर्मचारियों की सजगता-असजगता की भेंट चढ़ने के लिए छोड़ दिया गया है। यह सुनने में अविश्वसनीय असत्य लगता है, लेकिन सच सिर्फ यही है। केंद्रीय सड़क अनुसंधान केंद्र (सीआरआरआइ) दिल्ली में पदस्थ ब्रिज इंजीनियरिंग और स्ट्रक्चर्स डिवीजन के विभागाध्यक्ष और वरिष्ठ प्रधान वैज्ञानिक जीके साहू भी इस बात से पूरी तरह सहमत हैं।

कार्यकाल का काफी समय अविभाजित मध्य प्रदेश (मूलत: बिलासपुर निवासी) में बिता चुके साहू बताते हैं, ‘जिस तरह इंसानों में ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल, हार्टबीट पर लगातार नजर रखने के लिए हेल्थ मॉनिटरिंग सिस्टम आ गए हैं, उसी तरह ब्रिज-बिल्डिंग के लिए भी स्ट्रक्चरल्स हेल्थ मॉनिटरिंग सेंसर विकसित कर लिया गया है। जैसे नई-नई मशीनें मरीज की तबीयत बिगड़ने से पहले ही अलर्ट कर देती हैं, ठीक उसी तरह मशीनों का यह सचेत तंत्र समय रहते ही सतर्क कर देता है। इसके लिए निर्माणाधीन ढांचे में सिर्फ सेंसर लगाना है। सुविधा यह भी है कि देश-दुनिया में कहीं भी बैठकर, किसी भी निर्माण की ताजा स्थिति-गुणवत्ता जांची जा सकती है। डाटा (ब्रिज-बिल्डिंग आदि में होने वाली हलचल या कंपन) संबंधित कंप्यूटर-सर्वर में लगातार जमा होता रहता है और विश्लेषण कर निर्माण की क्षमता कभी भी जांची जा सकती है। विदेशों में इस पर वर्ष 2000 से शोध चल रहे हैं।

कई देशों ने सुरक्षा की दृष्टि से सभी बड़े प्रोजेक्ट्स (500 करोड़ से ऊपर) के लिए सेंसर अनिवार्य भी कर दिया है।’ स्वाभाविक है मध्य प्रदेश जैसी लापरवाह व्यवस्था में तो ऐसा कोई प्रयोग संभव ही नहीं है। साहू अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘हम लंबे समय से यह कोशिश कर रहे हैं कि रोड कांग्रेस द्वारा स्ट्रक्चरल हेल्थ मॉनिटरिंग को अनिवार्य कर दिया जाए और एक गाइडलाइन भी बना दी जाए। इससे सभी निर्माणों की निगरानी मुख्यालय से ही हो जाएगी। चूंकि अभी यह अनिवार्य नहीं है इसीलिए सरकारी एजेंसियां भी लापरवाही से किनारा कर लेती हैं, साफ-साफ बच भी निकलती हैं।’ हालांकि लोक निर्माण विभाग का ब्रिज सेक्शन परंपरागत पद्धति से अब तक 150 पुलों की जांच कर चुका है। निकट भविष्य में यह आंकड़ा 550 पुल तक जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि रिपोर्ट तथ्यात्मक आएगी और सुझाव-सुधार पर तत्परता से काम भी होगा।

बहरहाल, शिवपुरी में बही प्रतिष्ठा की सरकारी जांच जारी है! चुनाव करीब हैं, इसलिए आरोप-प्रत्यारोप के कई पुल रोज बनाए-तोड़े जा रहे हैं। इस मासूमियत से कि ऐसी लापरवाहियां कभी ‘चुनावी-मुद्दा’ नहीं बनतीं और, शायद यही सच भी है क्योंकि बिजली-पानी-सड़क-सफाई या खेत-किसान-कर्जा माफी से आगे हमारा चुनाव कभी जा ही नहीं पाता। ‘पुल किसने बनाया, क्या कार्रवाई हुई, आगे दोहराव नहीं होगा?’- हम वोट लेने आए भावी प्रतिनिधियों से ऐसा कुछ पूछते नहीं, उन्हें टोकते नहीं! इसीलिए, हमारे पुल टिकते नहीं! क्योंकि कड़वा सच यह भी है कि विश्वकर्मा को साक्षी मानकर, यदि आधी ईमानदारी से भी निर्माण किया जाएगा तो प्रदेश की जनता निश्चिंत होकर ‘भरोसे का पुल’ पार करती रहेगी।

ढाई लाख लोग किसी शहर में आ जाएं और शोर तक न हो

यदि हजार-दो हजार लोग जुलूस निकाल लें तो किसी भी शहर में अव्यवस्थाओं का बवंडर आ जाता है। इंदौर में बोहरा समाज के 53वें धर्मगुरु की वाअज (प्रवचन) सुनने ढाई लाख लोग देश-दुनिया से आ जुटे हैं। लेकिन कहीं रत्तीभर शोर-शराबा या अव्यवस्था नहीं है। समाज की अपने ही बुरहानी गार्ड और खुद के प्रशासनिक अधिकारियों ने इतने बड़े आयोजन का जिम्मा जिस योजनाबद्ध ढंग से संभाल रखा है, वह सीखने-समझने लायक है। भीड़ प्रबंधन भी ऐसा कि वाअज सुनने आए, बोहरा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को एक बार पांडाल में बैठकर सैयदना को रूबरू सुनने का मौका जरूर मिलेगा। प्रधानमंत्री ने भी बीते शुक्रवार इंदौर आकर समाज का सम्मान बढ़ाया। इसके बाद से पूरे देश की निगाह आयोजन पर टिक गई है।

राम-पथ के जरिये राज-पथ की तलाश में कांग्रेस

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दस साल पहले ‘राम वन-गमन पथ’ को मध्य प्रदेश के लिए गर्व-गौरव का अध्याय बताते हुए, इसे विकसित करने की घोषणा की थी। लेकिन सिर्फ घोषणा ही रह गई इस योजना पर अब कांग्रेस ने कब्जे की कोशिश की है। कांग्रेस 23 सितंबर से नौ अक्टूबर तक ‘राम वन-गमन पथ यात्रा’ निकाल रही है। इसके दो बड़े कारण सामने आ रहे हैं। पहला, हिंदू मतदाताओं का ध्यान खींचकर अपनी छवि बदलना और विंध्य के बड़े इलाके में अपनी पुरानी पैठ को फिर से कायम करना। दूसरा, कांग्रेस इस यात्रा के माध्यम से भाजपा पर राम-नाम का वादा पूरा नहीं करने का आरोप भी चर्चा में लाना चाहती है।