नई दिल्ली (उदय प्रकाश अरोड़ा)। आधुनिक जनतंत्र के जनक ब्रिटेन में एक समय नेताओं का भ्रष्टाचार अपने चरम पर था। लोग उनके भ्रष्टाचार से आजिज आ गए थे, लेकिन सौभाग्य से उस समय ब्रिटेन को जनता के आक्रोश को सही दिशा देने वाले राजनीतिज्ञ ओलिवर क्रामवेल मिल गए। क्रामवेल को भ्रष्ट सांसदों और राजतंत्रवादियों के प्रभाव को रोकने में सफलता प्राप्त हुई। अप्रैल 1653 को उन्होंने सांसदों को खरी-खोटी सुनाते हुए एक प्रभावी भाषण दिया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं क्यों आपको इस संसद में बैठने दूं? आप इस योग्य नहीं हैं कि इस स्थान की गरिमा को समझ सकें। अच्छे गुणों को त्यागने और अवगुणों को अपनाने के कारण आपने इस सभा को बदनाम कर दिया है। एक न्यायप्रिय शासन व्यवस्था के आप घोर शत्रु हैं। आप जनता के द्वारा उनके कष्टों के निवारण के लिए भेजे गए थे, किंतु आपको अपने स्वार्थो की पड़ी है। ईश्वर के लिए आप यहां से बाहर चले जाइए।’’। यह क्रामवेल का ही भाषण था जो ब्रिटेन को नई दिशा दे सका। पता नहीं भारतीय प्रजातंत्र को बचाने के लिए किसी क्रामवेल का अवतार होगा या नहीं, लेकिन जनता यह देख रही है कि हमारे विधानमंडलों की हालत क्या हो गई है। वे मुश्किल से ही चलते हैं। बीते करीब दस दिनों से संसद नहीं चल रही और उधर विधानसभाओं का हाल और बुरा है। विधायक हंगामा और नारेबाजी से आगे बढ़कर मार-पीट कर रहे हैं।

भारत के पास वह सब कुछ है जो देश को एक उन्नत राष्ट्र बना सकता है, फिर भी हमारी गणना एक निर्धन और पिछड़े मुल्क के रूप में की जाती है। दुनिया के करीब 200 देशों के मानवीय विकास में भारत का स्थान 131वां है। विश्व में प्रत्येक तीन में से एक कुपोषित बच्चा भारत का होता है। सरकारी स्कूलों की क्या दुर्दशा है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। उदारीकरण के बाद एक बड़ी संख्या में किसानों द्वारा आत्महत्या की गई है। यह सिलसिला अभी भी कायम है। मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देते हुए केंद्र सरकार ने बताया था कि 2013 से प्रति वर्ष औसतन 12,000 किसान आत्महत्या करते हैं। कृषि जो एक सकारात्मक पेशा था वह आज घाटे का सौदा बन गया है। आखिर क्या कारण है कि तमाम संसाधनों और क्षमता के बावजूद हम पिछड़ गए? इसकी सबसे बड़ी वजह यही जान पड़ती है कि हम आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से युक्त राजनीतिक नेतृत्व को जन्म नहीं दे सके। हमने ब्रिटेन से जो प्रजातंत्र ग्रहण किया वह बहुमत के सिद्धांत को मानता है और भारत में बहुमत बौद्धिक रूप से पिछड़ा है। वह शिक्षित नहीं है। उसका मस्तिष्क जातिवाद, धर्म और अंधविश्वास से प्रभावित है। इसी कारण भारत में वोट गुणों के आधार पर कम, धर्म और जातिवाद से प्रभावित होकर ज्यादा दिए जाते हैं और इसीलिए हम विधानमंडलों में दागी प्रतिनिधि देखते हैं। ऐसा लगता है कि हमने ब्रिटेन से प्रजातंत्र ले तो लिया, किंतु उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए जिस तरह के समाज की आवश्यकता थी वैसा समाज नहीं बना पाए। दुनिया के दूसरे देश में आमूल-चूल परिवर्तन तब हुए जब वहां क्रांति हुई, जैसे कि रूस और फ्रांस। इंग्लैण्ड और अमेरिका में जनता की पहल पर जनतंत्र की स्थापना हुई। भारत की स्थिति इन राष्ट्रों से कहीं अधिक बदतर रही, किंतु यहां वैसा नहीं हुआ जैसा फ्रांस, रूस, इंग्लैंड, अमेरिका आदि देशों में हुआ। भारतीय स्वतंत्रता 1857 से 1947 तक के 90 वर्षो में क्रमश: हुए आंदोलनों और परिवर्तनों का परिणाम थी। संभवत: इसी कारण हमने देश का नाम, राजभाषा, विधान संहिता, प्रशासनिक व्यवस्था, सेना संरचना, शिक्षा व्यवस्था, विश्वविद्यालय आदि सब कुछ करीब-करीब पहले की ही तरह बनाए रखा। हमारा संविधान गर्वमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 से प्रेरित है। इसी कारण यह कहा जाता है कि भारत की आजादी मात्र सत्ता हस्तांतरण थी, जो अंग्रेजो से भारतीय कुलीनों को हुई और इसी कारण न समाज में कोई मूलभूत परिवर्तन हुआ और न ही शासन व्यवस्था में।

स्वतंत्रता के बाद गोवध, हिंदी, भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन आदि मुद्दों पर आंदोलन हुए, पर यह कहना गलत होगा कि इनका उद्देश्य संवैधानिक व्यवस्था को पलटना भी था। चूंकि भारत की सामाजिक भिन्नताओं और असमानताओं ने जाति और धर्म के मामले में राजनीति से प्रेरित अनेक समूह बना दिए इसलिए इन समूह-संगठनों ने कभी समस्त समाज के कल्याण की बात नहीं की। वे केवल अपने वर्ग के लिए ही सुविधाओं, अधिकार और सुरक्षा की मांग करते रहे। अपने से जो भिन्न थे उनकी उपेक्षा की गई। लगता है कि भारत को रूसो, वाल्टेयर जैसे दार्शनिकों की जरूरत है जो जनता में बौद्धिक क्रांति को जन्म दे सके। उसमें तर्क और विवेक पैदा कर सके तथा सामंती सोच को खत्म कर सके। जहां हमारे कुछ बुद्धिजीवी भारत की गणना एक निर्धन और पिछड़े राष्ट्र के तौर पर करते हैं वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो देश को सही दिशा में जाता देख रहे हैं। ऐसे तर्को के बावजूद इसमें दोराय नहीं कि भारत में व्यवस्था परिवर्तन के लिए मौलिक लड़ाई लड़ी जानी और समाज का बौद्धिक रूप से सशक्त होना शेष है। इसमें संदेह है कि टुकड़ों-टुकड़ों में चलने वाले आंदोलनों से देश का काम चल जाएगा।

(लेखक जेएनयू में पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैं)