[राजीव सचान]। यदि राफेल विमान सौदे को लेकर छिड़ी राजनीतिक रार थमने का नाम नहीं ले रही है तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि आरोपों का जवाब आरोपों से ही दिया जा रहा है। जो यह दावा करने में लगे हुए हैं कि राफेल सौदे में घोटाला हुआ है वे आक्रामक तो खूब हैं, लेकिन उनके पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं जिससे यह साबित हो कि इस सौदे में वैसा कुछ हुआ है जैसा बोफोर्स तोप सौदे में हुआ था। अपने देश में रक्षा सौदों में घोटाला साबित

करना हमेशा एक टेढ़ी खीर रहा है।

यह एक तथ्य है कि बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के लेन-देन के प्रमाण और बिचौलियों के नाम सामने आने के बाद भी किसी को सजा नहीं दी जा सकी। इसी आधार पर कांग्रेस के नेता यह दावा करते हैं कि उस मामले में तो कुछ था ही नहीं। यह हैरानी की बात है कि बोफोर्स तोप सौदे में कोई गड़बड़ी न होने का दावा करने वाले लोग ही बिना किसी प्रमाण यह साबित करने की कोशिश में हैं कि राफेल सौदे में घोटाला हुआ है। अगर राहुल गांधी और उनके साथ ही यशंवत सिन्हा, अरुण शौरी, प्रशांत भूषण आदि को इसका पूरा यकीन है कि राफेल सौदे में गड़बड़ घोटाला हुआ है तो फिर उन्हें क्वात्रोची या विन चड्ढा सरीखे बिचौलियों के नाम और पैसे के लेन-देन वाले खातों के बारे में कुछ बताना चाहिए।

अगर यह समझा जा रहा है कि राफेल बनाने वाली कंपनी दासौ की ओर से अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को अपना साझीदार बनाने का बार-बार, लगातार उल्लेख करके घोटाला होना साबित किया जा सकता है तो यह संभव नहीं। यह संभव हो सकता था, अगर राहुल गांधी की विश्वसनीयता उन वीपी सिंह की आधी भी होती जिन्होंने बोफोर्स कांड के वक्त उसे भुनाया था। उस वक्त जब वह जेब से एक पर्ची निकाल कर यह कहते थे कि इसमें बोफोर्स तोप सौदे के दलालों के नाम हैं तो बहुत से लोग यही समझते थे कि सच में उनके पास कोई पुख्ता प्रमाण हैं। बाद में पता चला कि वह तो केवल बोफोर्स कांड को राजनीतिक तौर पर भुनाने में लगे हुए थे। वह इसमें इसलिए सफल हो सके, क्योंकि तब तक इसके प्रमाण सामने आ चुके थे कि बोफोर्स सौदे में दलाली का लेन-देन हुआ है और राजीव गांधी सरकार स्वीडन में इस मामले की कोई जांच नहीं चाहती।

इस आशय की चिट केंद्रीय मंत्री माधव सिंह सोलंकी ने स्वीडन के एक मंत्री को सौंपी थी। चूंकि बोफोर्स कांड में सच को छिपाने की कोशिश रह-रह कर की जाती रही इसलिए दलाली का प्रेत तब तक बार-बार सामने आता रहा जब तक क्वात्रोची का निधन नहीं हो गया। अगर उसे भारत लाने में सफलता मिली होती तो शायद बोफोर्स तोप सौदे का सारा कच्चा-चिट्ठा सामने आ गया होता। यह कहना तो कठिन है कि राहुल गांधी वीपी सिंह से प्रेरित हो रहे हैं, लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि राफेल सौदे में गड़बड़ी के प्रमाण सामने लाए बिना उनकी दाल गलने वाली नहीं। नि:संदेह ऐसे बयान देने से भी दाल नहीं गलने वाली कि हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री ने चोरी की है। चूंकि खुद राहुल गांधी ऐसी भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं इसलिए उन्हें भी इसी भाषा में जवाब मिल रहा है। वह कभी मसखरे राजकुमार से संबोधित किए जा रहे हैं तो कभी इस आरोप से घेरे जा रहे हैं कि वह वही चाहते हैं जो पाकिस्तान चाहता है।

यह समझ आता है कि राफेल सौदे में घोटाला देख रहे लोग इसके लिए अतिरिक्त परिश्रम कर रहे हैं कि आम जनता भी ऐसा ही देखने लगे, लेकिन यह काम छल-छद्म का सहारा लेकर नहीं हो सकता। यह दयनीय है कि राफेल सौदे में घोटाला साबित करने की कोशिश में फेक न्यूज के लिए बदनाम वेबसाइट्स की ऐसी खबरों को प्रचारित किया जा रहा है जिनमें यह लिखा होता है कि दासौ कंपनी के दो कथित इंजीनियरों ने फोन पर बातचीत में बताया कि एचएएल के साथ समझौता लगभग हो चुका था। अगर आरोप दमदार हैं तो फिर ऐसी फर्जी खबरों की शरण क्यों ली जा रही है? राफेल सौदे पर केवल कांग्रेस के नेता ही उलटे-सीधे बयान नहीं दे रहे हैं। कुछ यही काम भाजपा नेता भी कर रहे हैं। वे आरोपों का जवाब देने के बजाय प्रत्यारोप का सहारा ले रहे हैं।

साफ है कि दोनों ही पक्ष अति कर रहे हैं। राजनीति में ऐसी अति जब-तब देखने को मिलती ही रहती है। यह अति इसलिए होती है, क्योंकि राजनीतिक दल अपने विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए छल-कपट और झूठ का सहारा लेने में संकोच नहीं कर रहे हैं। भले ही विपक्ष की ओर से ऐसी बातें सुनने को मिलती रहती हों कि वह सत्तापक्ष को रचनात्मक सहयोग देने से पीछे नहीं हटेगा, लेकिन हकीकत यह है कि वह सरकार को हर मोर्चे पर विफल देखना चाहता है। सरकार की कोई योजना सफल हो जाए तो विपक्ष को कष्ट होता है। इतना ही नहीं विपक्ष इसके लिए जोर भी लगाता है कि सरकार का एजेंडा परवान न चढ़े। यही काम सत्ता में रहे राजनीतिक दल तब करते हैं जब वे विपक्ष में आ जाते हैं। यह कहने-सुनने में अच्छा लगता है कि पक्ष-विपक्ष लोकतंत्र रूपी रथ के दो पहिये हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे ऐसे पहिये अधिक बन गए हैं जो एक साथ एक दिशा में नहीं चलना चाहते।

एक समय और खासकर 1970-80 के दशक में पक्ष-विपक्ष के नेता एक-दूसरे पर यह आरोप मढ़ा करते थे कि वे विदेशी ताकतों या फिर पूंजीपतियों के हाथों खेल रहे हैं। अगर आज भी ऐसे आरोप सुनने को मिल रहे हैं तो इसका मतलब है कि राजनीति में कोई बुनियादी सुधार नहीं हो सका है और वह दशकों पीछे खड़ी है। राफेल सौदे को लेकर हो रही तकरार यही अधिक बता रही है कि भारतीय राजनीति समय के साथ और अधिक क्षुद्र हो गई है। पता नहीं इस मसले पर संयुक्त संसदीय समिति गठित होगी या नहीं, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि क्षुद्र राजनीति के कारण वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकेगी।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)