नई दिल्ली [राजीव सचान]। आजकल सोशल मीडिया की गतिविधियां अक्सर ही खबर का रूप लेकर परंपरागत मीडिया में स्थान बना लेती हैं। पिछले दिनों जूते गांठने वाले एक शख्स की फोटो इसलिए सोशल मीडिया में वायरल होने के बाद खबर बनी, क्योंकि एक तो उसे जाने-माने उद्योगपति आनंद र्मंहद्रा ने ट्वीट किया था और दूसरे फोटो में दिखाई दे रहे एक बैनर में कुछ ऐसी दिलचस्प इबारत लिखी थी, ‘‘जख्मी जूतों का अस्पताल। ओपीडी सुबह नौ से दोपहर एक बजे। ...हमारे यहां सभी प्रकार के जूते जर्मन तकनीक से ठीक किए जाते हैं।’’ यह फोटो जूते-चप्पल ठीक करने वाले जींद, हरियाणा के नरसीराम का था। फुटपाथ किनारे की अपनी दुकान में लगे बैनर पर नरसीराम ने अपने नाम के आगे डॉ. भी दर्ज कर रखा था।

वाट्सएप के जरिये मिले इस फोटो को देखकर आनंद र्मंहद्रा को लगा कि नरसीराम को तो आइआइएम में मार्केंटिंग के गुर सिखाने चाहिए। इसके बाद उन्होंने नरसीराम की मदद करने की इच्छा जाहिर की और देखते ही देखते लोगों ने उनका पता-ठिकाना खोज निकाला। जल्द ही आनंद महिंद्रा के कर्मचारियों ने नरसीराम से मुलाकात कर उनसे पूछा कि उनकी मदद कैसे की जा सकती है? उन्होंने पैसे लेने के बजाय बस यह इच्छा प्रकट की कि उन्हें अपने काम-धंधे के लिए बेहतर जगह मिले। इस पर आनंद र्मंहद्रा ने अपनी डिजाइन स्टूडियो टीम से नरसीराम के लिए एक ऐसा खोखा तैयार करने को कहा जो सहूलियत भरा भी हो और देखने में भी सुघड़ लगे। लोगों की प्रशंसा भरी प्रतिक्रियाओं से परिचित होने के बाद आनंद र्मंहद्रा ने इस बारे में सुझाव मांगा कि सड़क किनारे अपना काम-धंधा चलाने वालों की दुकान का डिजाइन कैसा होना चाहिए?

उन्होंने डिजाइन के कुछ नमूने प्रस्तावित भी किए। आनंद र्मंहद्रा की इस नेक पहलसे नरसीराम और उनके जैसे कुछ और लोगों के दिन बहुर सकते हैं, लेकिन आखिर देश भर के उन लाखों नरसीरामों की सुध कौन लेगा जो सड़क किनारे छोटी-मोटी दुकान लगाकर अपनी रोजी-रोटी की प्रबंध करते हैं? आखिर जो विचार आनंद र्मंहद्रा के मन में कौंधा वह हमारे उन नीति-नियंताओं की प्राथमिकता का हिस्सा क्यों नहीं बना जो गरीबों के हित की बातें करते नहीं थकते?

समस्या केवल यह नहीं है कि रेहड़ी-पटरी वाले यानी सड़क किनारे के लाखों दुकानदार किसी के एजेंडे में नहीं, बल्कि यह भी है कि उन्हें रह-रह कर तंग किया जाता है-कभी पुलिस की ओर से और कभी किसी अन्य विभाग की ओर से। वे अक्सर खदेड़े जाते हैं या फिर उनसे जबरन उगाही होती है। इसके अतिरिक्त जब भी किसी शहर में अतिक्रमण के विरोध में कोई अभियान शुरू होता है तो सबसे पहला निशाना सड़क किनारे रोजी-रोटी कमाने वाले ही बनते हैं। कभी उनका सामान फेंक दिया जाता है और कभी उनका खोखा या ठेला ध्वस्त कर दिया जाता है।

ऐसे लाखों लोग सदैव इस आशंका से घिरे रहते हैं कि पता नहीं कब कोई अतिक्रमण विरोधी दस्ता आ धमके या फिर पुलिस उन्हें अपनी दुकान समेटने का हुक्म सुना दे या फिर हफ्ता बांध दे अथवा बढ़ा दे। चूंकि वे सदैव अनिश्चितता से घिरे रहते हैं इसलिए अपने रोजगार को अपनी पूरी सामथ्र्य भर आगे नहीं बढ़ा पाते। नि:संदेह बेरोजगारी दूर करने अथवा लोगों को रोजगार के मौके उपलब्ध कराने के नाम पर उन्हें फुटपाथ पर अतिक्रमण करने या सड़कों को तंग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन ऐसा कुछ तो किया ही जा सकता है जिससे वे बिना किसी भय और आशंका के अपनी रोजीरोटी भी चला सकें और यातायात में किसी तरह की बाधा भी न बनें।

आखिर सड़क किनारे चाय-पान की दुकान चलाने या अन्य कोई काम करने वालों को ऐसे ठिकाने क्यों नहीं उपलब्ध कराए जा सकते जहां वे बिना किसी बाधा के अपना काम कर सकें? इन लोगों को अपनी स्थाई-अस्थाई दुकान चलाने के लिए जगह उपलब्ध कराने के एवज में उनसे कुछ किराया भी लिया जा सकता है। इससे अच्छा-खासा राजस्व भी मिलेगा। ऐसे सुझावों से सरकारें अपरिचित नहीं, लेकिन वे उनके एजेंडे से बाहर ही बने हुए हैं।

पता नहीं आम आदमी के हितों की चिंता में दुबले होते रहने वाले नेताओं और नौकरशाहों को ये लाखों-लाख लोग क्यों नहीं दिखाई देते-और वह भी तब चाय, पकौड़ा बेचने या फिर पान की दुकान चलाने के सुझाव कुछ ज्यादा ही दिए जा रहे हैं? जिस तरह ऐसे लोग नजर आते हुए भी शासकों की प्राथमिकता सूची से गायब हैं वैसे ही वे लाखों कामगार भी ओझल से हैं जिनके बगैर न उद्योग-धंधों का काम चल सकता है और न ही घरों एवं कार्यालयों का।

नए मोहल्लों, शहरों, औद्योगिक, व्यावसायिक क्षेत्रों आदि का निर्माण करते समय शायद ही कभी इसकी परवाह की जाती हो कि आखिर रोजमर्रा के कामों के लिए जरूरी कामगार कहां से आएंगे और वे रहेंगे कहां? चूंकि इस सवाल को कभी हल ही नहीं किया गया इसलिए हमारे सभी नगर और महानगर झुग्गी बस्तियों से आबाद होते जा रहे हैं। इस तरह वे और बेतरतीब और बदसूरत होते जा रहे हैं।

पिछले साल सामने आए एक आंकड़े के अनुसार भारत में दुनिया भर में सबसे ज्यादा निजी सुरक्षा गार्ड हैं। जहां पुलिस कर्मियों की संख्या महज 14 लाख है वहीं निजी सुरक्षा गार्डों की संख्या 70 लाख है। निजी सुरक्षा गार्डों के संख्याबल के आगेपुलिस का संख्याबल करीब-करीब हर देश में कम है। अनुमान है कि आने वाले समय में भारत समेत दुनिया भर में निजी सुरक्षा गार्डों की संख्या और तेजी से बढ़ेगी। यह दिख भी रहा है। देश के सभी शहरों में अब हर जगह निजी सुरक्षा गार्ड नजर आते हैं, लेकिन उनकी सेवा शर्तें बेहतर बनाने के आश्वासन अभी तक ठंडे बस्ते में ही दुबके हुए हैं।

ज्यादातर निजी सुरक्षा गार्ड मुहैया कराने वाली कंपनियां उनसे लंबी ड्यूटी करवाती हैं, लेकिन एक अदद साप्ताहिक छुट्टी भी नहीं देतीं। तमाम कंपनियां तो ऐसी हैं जो वर्दी और जूते तक के पैसे भी उनके वेतन से काट लेती हैं। आखिर सरकारों को इन 70 लाख लोगों की कार्य दशाओं का नियमन करने में क्या परेशानी है? आखिर ऐसा भी नहीं है कि उसकी जेब से कुछ जाना है। हालांकि हर राजनीतिक दल असंगठित क्षेत्र के कामगारों के प्रति हमदर्दी जताने में आगे रहता है, लेकिन जब भी श्रम कानूनों में सुधार की बात आती है तो वे पीछे हट जाते हैं। श्रम सुधारों का विरोध करने वाले राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन वस्तुत: कामगारों के हितों की अनदेखी करने का ही काम कर रहे हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)