[ साकेत सूर्येश ]: कुछ लोगों की समझ से युद्ध के बादल छंट गए हैं और शांति की बंसी की ध्वनि चहुंओर फैली हुई है। ऐसे लोगों की नजर में भारत का वातावरण ‘शांति के नए दूत’ इमरान की जयजयकार से गुंजायमान होने को आतुर है। समय बहुत कठिन है, चुनाव सिर पर हैं। मोदीजी अलादीन के जिन्न बने हुए हैं, यहां जनता ने चिराग घिसा, वहां जो हुक्म है मेरे आका का उद्घोष करती सत्ता प्रकट है। जिस निराशा की नाव पर बैठ विपक्ष चुनाव का भवसागर पार करना चाहता था उसमें उत्साह और विश्वास के छेद हुए जाते हैं। जिन्हें पद्म पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ है, वे पद्म की और जिन्हें प्राप्त हो चुके हैं वे और कुछ पाने के प्रयास में लगे हैं। उन्हें यह लगता है कि यह सरकार पत्रकार-विरोधी, व्यंग्यकार-प्रिय सरकार है। लोकतंत्र संकट में है।

पिछले कुछ दिनों में नैरेटिव ऐसे तेजी से बदले हैं जैसे हवा भरा ग़ुब्बारा अचानक हवा निकलने से यहां-वहां फुफकारता हुआ भागता हो। कुछ पकड़ ही नहीं आ रहा है। संवाद की लटाई थामने वाले, कन्नी और पेंच देने वाले स्वयं कटी पतंग हो गए हैं। पुलवामा के शहीदों पर असहिष्णुता की कहानी चेंपें, उससे पहले ही आतंकवादी का वीडियो वायरल हो जाता है जहां वह काफिरों से हिंदुस्तान को साफ करने का प्रण लेता है। भारतीय विचार को आघात करने वाली सोच से बिफरी जनता सड़क पर उतरती है तो बुद्धिजीवी वर्ग ‘कश्मीरी संकट में हैं’ की कथा लेकर आता है। कहानी दम पकड़ ही रही थी कि सऊदी अरब के राजकुमार आते हैं और प्रधानमंत्री गलबहियां डालकर आठ सौ भारतीयों को अरब की जेलों से मुक्त करने का वादा ले लेते हैं। 40 जवानों की शहादत के बाद भी पाकिस्तान से वार्ता के समर्थक सऊदी-मोदी को वैलेंटाइन कपल मानकर विरोध में ‘बजरंग दल’ से बन जाते हैं।

शांतिप्रिय लोग पाकिस्तान के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की मांग करते हैं। यह सदियों की भारतीय परंपरा रही है, आतंकी हमला झेलना और फिर कठोर कार्रवाई की मांग करना। निंदा और विरोध की परंपरा पर वर्तमान सरकार ने बड़ा आघात किया। कठोर कार्रवाई की मांग को दिल पर लेकर पाकिस्तानी आतंकवादियों पर हवाई हमला कर दिया। इस बार हवाई हमले के सुबूत नहीं मांगे गए, क्योंकि हमला झेलने वाले ने खुद ही मान लिया था कि हमला हुआ, लेकिन फिर इसके सुबूत माने जाने लगे कि कितने आतंकी मरे? समझ नहीं आया कि ऐसे लोग क्या जानने चाहते हैैं- आतंकी मरे या नहीं मरे?

ऐसा लगता है यह सरकार बुद्धिजीवी जीवन को ही कठिनाई में डालने को बनी है। हमारे बुद्धिजीवी शांति की बात करते हैं तो सरकार लड़ाकू जेट पाकिस्तान भेज देती है। उधर इमरान खान भी कम नहीं हैं। वह मसूद अजहर की रक्षा में-आतंकवाद का यह अपमान, नहीं सहेगा पाकिस्तान-के नारे के साथ पाकिस्तान वायुसेना भारत में भेज देते हैं। यहां भारतीय वीर लैम्ब्रेटा-नुमा मिग लेकर षोडषी एफ-16 के पीछे दौड़ता है और पाकिस्तान की गिरफ्त में पहुंच जाता है। पाकिस्तान की गिरफ्त में जाने से पहले वह एफ-16 को ठिकाने लगा देता है, लेकिन पाकिस्तानी सेना को लगता है कि जो गिरा है वह हमारा विमान नहीं और उधर पाकिस्तानी जनता को भी लगता है कि गिरते विमान से जो बाहर निकला है वह हमारा पायलट नहीं। वह उसे पीट-पीटकर अधमरा कर देती है।

पाकिस्तान सरकार यह बताना भी नहीं चाहती। खैर पाकिस्तान में एफ-16 के पतन का पता भारतीय जनता को चल जाता है। बुरा समय है, सबको सच बोलने का भूत सवार है। अफजल गुरु ब्रिगेड जो सैनिकों की नक्सलियों द्वारा हत्या पर पार्टी करना मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकार समझती थी, सहसा ही राष्ट्रभक्ति से भर जाती है, विंग कमांडर अभिनंदन की रिहाई के लिए मोमबत्तियां जमा की जाती हैं। मोमबत्ती प्रदर्शन की भूमिका बनी ही थी कि अभिनंदन की रिहाई हो गई। इस घोषणा के साथ ही इमरान की जय-जयकार करने वाले जाग उठते हैैं। वे उन्हें महान बताने के साथ ही उनसे शांति की सीख लेने की जरूरत बताने लगते हैं। नोबेल पुरस्कार वाले भी चौंक उठते हैैं कि आखिर यह क्या हो रहा है?

विडंबना है कि बदलते परिदृश्य में भारतीय बुद्धिजीवी बुझी हई मोमबत्तियां लिए कोरे कागज को तकता हुए हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है। जो समाज अपनी उन्नत ग्रीक नाकों को लेकर आम भारतीय नागरिकों का पथ प्रदर्शन करता था, आज स्कूल भेजे जा रहे नर्सरी के बच्चे की भांति दूसरों के तय किए नैरेटिव के पीछे घिसटने को अभिशप्त है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]