[संजय गुप्त] : पिछले दिनों तमिलनाडु विधानसभा ने इस आशय का प्रस्ताव पारित किया कि राज्य मेडिकल और डेंटल कालेजों में प्रवेश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाली परीक्षा नीट से बाहर हो जाएगा। तमिलनाडु सरकार ने यह कह कर नीट का विरोध किया कि इस परीक्षा में बैठने वाले अधिकतर छात्र शहरी क्षेत्रों से आते हैं और जब वे डाक्टर बनते हैं तो ग्रामीण क्षेत्रों में जाने में आनाकानी करते हैं। तमिलनाडु में नीट के असर का अध्ययन करने के लिए एक कमेटी भी बनी थी, जिसने यह इंगित किया कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में डाक्टरों की संख्या गिर रही है। इस कमेटी का यह भी कहना था कि अगर कुछ साल और नीट की व्यवस्था लागू रही तो राज्य में स्वास्थ्य ढांचा चरमरा जाएगा और ग्रामीण इलाकों के सरकारी अस्पतालों के लिए डाक्टर कम पड़ने लगेंगे।

नीट के मामले में यह भी सामने आया कि इस परीक्षा में बैठने वाले कुछ छात्रों की जगह कोई और परीक्षा दे रहे थे। ऐसे मामले अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में भी देखने को मिलते रहे हैं। जब ऐसा होता है तो परीक्षाओं की विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगी परीक्षाओं के आयोजित होने के पक्ष में तमाम तर्क हैं। सबसे बड़ा यह है कि एक ही परीक्षा के जरिये छात्रों को देश भर के कालेजों में दाखिला मिल जाता है और उन्हें अलग-अलग परीक्षा देकर समय और संसाधन नहीं जाया करना पड़ता, लेकिन इन परीक्षाओं में जिस तरह अनुचित साधनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है अथवा प्रश्न पत्र लीक कराए जा रहे हैं, वह ठीक नहीं।

अपने देश में इंजीनियरिंग हो या मेडिकल या फिर एमबीए, इनकी सीटें 10वीं-12वीं में पढ़ने वाले छात्रों की तुलना में बहुत कम हैं। यही स्थिति विश्वविद्यालयों की सीटों की भी है। दिल्ली सरीखे विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने के लिए कटआफ अंक 100 प्रतिशत तक पहुंच रहे हैं। यह एक बहुत बड़ी विडंबना है। उच्च शिक्षा के लिए बेहतर कालेजों में दाखिला पाने के लिए छात्र जी जान लगा देते हैं। वे अपने अभिभावकों के मार्गदर्शन में बचपन में ही यह ठान लेते हैं कि आगे चलकर उन्हें क्या बनना है। इनमें से जिन छात्रों को बेहतर कालेजों में दाखिला नहीं मिल पाता, उनमें से कई विदेश के विश्वविद्यालयों में दाखिला ले लेते हैं। इससे न केवल विदेशी मुद्रा की हानि होती है, बल्कि तमाम मेधावी छात्र वापस लौट कर नहीं आते। वे विदेश में ही नौकरियां या बिजनेस करने लगते हैं। यह स्थिति हाल-फिलहाल बदलती हुई नहीं दिखती।

विश्वविद्यालयों या फिर मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन के शिक्षण संस्थानों में दाखिला पाने की होड़ छात्रों के लिए तनाव का भी कारण बनती है। वे एक मशीन की तरह प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करने के लिए जी जान से जुटे रहते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने की जो होड़ है, वह छात्रों पर अत्यधिक मानसिक दबाव बना रही है। कई छात्र इस दबाव को सहन नहीं कर पाते और कुछ तो आत्महत्या तक कर लेते हैं। यह स्थिति भारत के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।

अपने देश में तमाम छात्र कोचिंग का सहारा लेते हैं। इसके चलते देश में एक कोचिंग उद्योग खड़ा हो गया है। यह उद्योग इसलिए भी खड़ा हो गया है, क्योंकि 10वीं-12वीं की पढ़ाई का स्तर ऐसा नहीं कि छात्र बिना कोचिंग का सहारा लिए प्रतियोगी परीक्षाएं पास कर सकें। आखिर 10वीं-12वीं की पढ़ाई का स्तर ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है कि छात्रों को कोचिंग का सहारा न लेना पड़े? हालांकि नई शिक्षा नीति में कोचिंग संस्कृति को हानिकारक बताते हुए उसे हतोत्साहित करने पर बल दिया गया है, लेकिन देखना है कि ऐसा हो पाता है या नहीं?

तकनीक के चलन के साथ देश में ट्यूशन या कोचिंग को और सुगम बनाने के लिए अब आनलाइन कोर्स का एक बड़ा बाजार तैयार हो गया है। इन आनलाइन एजुकेशन कंपनियों का मार्केट कैपिटलाइजेशन अरबों रुपये में है। हालांकि आनलाइन कोर्स ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थी भी पढ़ सकते हैं, पर वे सबकी पहुंच में नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पढ़ने के लिए इंटरनेट तथा ब्राडबैंड की आवश्यकता पड़ती है। स्पष्ट है कि समर्थ अभिभावक ही अपने बच्चों को आनलाइन कोर्स करवा पाते हैं। कोविड के इस दौर में यह बात सामने आई कि सरकारी स्कूलों और यूनिवर्सटिी की आनलाइन पढ़ाई में गरीब और ग्रामीण छात्र पिछड़ गए।

तमिलनाडु सरकार ने नीट के मामले में जो तर्क दिए, वे अन्य प्रदेश भी दे सकते हैं। भारत में निजी कालेजों में मेडिकल की पढ़ाई करने में करोड़ों रुपये लग जाते हैं। इतना पैसा व्यय करने के बाद डाक्टरों में समाज सेवा का भाव कम हो जाता है। वे पैसा कमाने की होड़ में लग जाते हैं। इन सबको देखते हुए कोचिंग और ट्यूशन संस्कृति पर लगाम लगनी चाहिए। आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि प्रत्येक बोर्ड के स्कूल पठन-पाठन के साथ परीक्षा की गुणवत्ता का स्तर बढ़ाएं, ताकि 12वीं के अंकों के आधार पर ही छात्रों को आगे की कक्षाओं में प्रवेश मिल सके। क्या नई शिक्षा नीति उस चलन पर रोक लगाने में सक्षम होगी, जिसके कारण 10वीं-12वीं में छात्र 100 में 98-99 अंक लाने में समर्थ हो जा रहे हैं? स्कूलों को यह भी देखना होगा कि वे हर छात्र की मेधा का सही आकलन करने में समर्थ रहें। शिक्षकों पर यह दारोमदार होना चाहिए कि वे हर छात्र की मेधा तराशें। नई शिक्षा नीति से ऐसा होने की उम्मीद तो है, लेकिन वह पूरी होगी या नहीं, यह कहना कठिन है।

सरकारों को इससे चिंतित होना चाहिए कि आनलाइन कोचिंग का बाजार न केवल बढ़ रहा है, बल्कि महंगा होता जा रहा है। यदि हर शिक्षा बोर्ड स्वयं के आनलाइन पोर्टल चलाएं और वे सहज सुलभ हों तो छात्रों को प्राइवेट ट्यूशन-कोचिंग की जरूरत ही न पड़े। शिक्षा बोर्डो यानी सरकारों के लिए ऐसे आनलाइन पोर्टल खड़ा करना कोई बड़ी बात नहीं। सरकारों को उन शिक्षकों पर पाबंदी भी लगानी चाहिए, जो प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन देते हैं। वास्तव में शिक्षकों पर ही यह दारोमदार डाला जाना चाहिए कि वे कमजोर छात्रों को स्कूलों में ही कोचिंग पढ़ाएं। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि शिक्षा संस्थानों में इंजीनिरिंग, मेडिकल और एमबीए की सीटें बढ़ाई जाएं, ताकि एक तो छात्र उच्च शिक्षा पाने के लिए विदेश जाने को मजबूर न हों और दूसरे आर्थिक रूप से कमजोर एवं ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों को बराबर अवसर मिल सके।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]