अपनी किसी और से तथा किसी और की किसी से तुलना इंसानी व्यवहार का सामान्य लक्षण है। इसे लेकर दो विचार हैं, पहला तुलना करने को ठीक मानता है जबकि दूसरा किसी भी प्रकार की तुलना को उचित नहीं मानता है। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। यूं तो तुलना करना खराब आदत नहीं है। यह जीवन में प्रतिस्पर्धा बढ़ाती है जो प्रगति के लिए जरूरी है। तुलना प्रेरणा का स्नोत भी है। अपने से बेहतर चीजों को देखकर लोग स्वयं में सुधार करने लग जाते हैं। पढ़ाई और खेल में अपने प्रतिद्वंद्वी से तुलना प्रतिस्पर्धा की भावना को जगाती है। नौकरी और व्यवसाय में भी इर्द-गिर्द लोगों को देखकर इंसान तरक्की की ओर उन्मुख होता है। कभी-कभी अपने स्वास्थ्य को लेकर की गई तुलना इरादों को मजबूत ही बनाती है और बेहतर स्वास्थ्य वाले लोगों को देखकर इंसान स्वयं को ठीक करने मे लग जाता है। किसी बीमारी से उबरने के लिए भी ऐसे लोगों के उदाहरण उपयोगी होते हैं जिन्होंने किसी बीमारी से लड़ने में कामयाबी पाई हो। कुछ लोग तो तुलना करके वजन तक घटाने का चमत्कार कर डालते हैं।

तुलना का उद्देश्य सुधार है तो तुलना करने मे कोई हर्ज नहीं है

किसी खराब आदत को छोड़ने के लिए भी हम ऐसे लोगों से प्रेरित हो जाते हैं जिन्होंने मिसाल कायम की होती है। फर्क इस बात से पड़ता है कि तुलना का उद्देश्य क्या है? यदि उद्देश्य सुधार है तो तुलना मे कोई हर्ज नहीं है। तुलना से हानि का संबंध इंसान के हौसले को लेकर है। कमजोर हौसला रखने वाले तुलना से हतोत्साहित भी हो सकते हैं। अपने से बेहतर स्थितियां किसी को ऊर्जा प्रदान करती हैं तो किसी को हीनता। जरूरी नहीं कि हर इंसान प्रतियोगिता के माहौल में सहज ही महसूस करे। कोई व्यक्ति अपने से बेहतर लोगो के बीच रहकर उनसे कुछ सीखता है तो कोई अपने से निम्नतर के बीच रहकर खुश रहता है। इसलिए तुलना का असर व्यक्ति पर निर्भर करता है।

तुलना उन्हीं के लिए ठीक है जो इससे प्रेरित होते हैं

तुलना केवल उन्हीं के लिए ठीक है जो उससे प्रेरित होते हैं। जिनके जीवन की शांति इससे भंग होती है उन्हें इधर-उधर की तुलना से बचना ही चाहिए, क्योंकि तुलना बेचैनी का भाव तो लाती ही है जिससे निपटना प्रत्येक के बस की बात नहीं है। शायद इसीलिए तुलना को आमतौर पर ठीक नहीं मानते। वैसे तो जीवन में संतोष के लिए एक स्तर और उम्र के बाद तुलना बंद कर देनी चाहिए।

[ डॉ. महेश भारद्वाज ]