सीधे संवाद से ही खुलेगी गांठ:

सैकड़ों वर्षों से

असल में यह संवादहीनता ही है जिसने सैकड़ों वर्षों से हिंदू-मुस्लिम संबंधों के तानेबाने को बिगाड़ने का काम किया है

[ शंकर शरण ]: दिल्ली के शाहीन बाग और देश भर में उससे मिलते-जुलते विरोध प्रदर्शनों ने हमारी राजनीति की एक पुरानी कमी को फिर से उजागर कर दिया। इससे यही आभास होता है कि देश के मुसलमानों को छोटी-मोटी बात पर भी बरगलाया जा सकता है। वैसे तो ये विरोध-प्रदर्शन नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में किए जा रहे हैं, लेकिन प्रदर्शनकारियों को विधि विशेषज्ञों या न्यायालय की भी परवाह नहीं। इससे एक बार फिर यही पुष्ट हुआ है कि मुस्लिम समुदाय के नेता अपने समुदाय को जैसे चाहें वैसे लामबंद कर सकते हैं।

मुस्लिम समुदाय के साथ संवादहीनता

हैरानी की बात यही है कि इस जकड़न को दूर करने के लिए हमारे राष्ट्रीय नेताओं और बुद्धिजीवियों ने कभी सोचा ही नहीं। इससे मुस्लिम समुदाय के साथ संवादहीनता ही बढ़ती गई। इस दिशा में जो कोशिशें भी हुईं, वे फलदायी नहीं रहीं। इसके लिए हिंदू पक्ष भी दोषी रहा। मुसलमानों द्वारा मजहबी दावे होने पर हिंदू नेता और बुद्धिजीवी उस पर अनमने या फिर मौन रहते हैं। वे सीधी बात नहीं करते। दूसरी बाधा पार्टीबंदी है। हरेक मुद्दे पर विभिन्न पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में ही लग जाती हैं। वे दलीय संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ पातीं।

सेक्युलर और अल्पसंख्यक हितों के नाम सियासत

इस परिपाटी के उलट होना तो यह चाहिए कि मुस्लिम मामलों पर अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया जाए। ऐसा न करने के कई नुकसान होते हैं। इसका लाभ उठाकर दलीय स्वार्थवश तमाम ऐसे कार्य हुए हैं जिन्होंने सामाजिक ढांचे और राष्ट्रीय हितों को क्षति पहुंचाई। इसी का छद्म नाम वोट बैंक की राजनीति है। इससे परिचित तो सभी हैं, परंतु इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते। परिणामस्वरूप सेक्युलर और अल्पसंख्यक हितों के नाम पर तमाम ऐसे काम होते हैं जो व्यापक रूप से नुकसान पहुंचाते हैं।

मुद्दों पर हो खुला विचार विमर्श

इस पर राष्ट्रहित की दृष्टि से कोई चिंता नहीं करता। यह स्थिति बदलनी चाहिए, वरना कश्मीर से केरल और गुजरात से असम तक एक ही बुराई नए-नए रूपों में सामने आती रहेगी। वह बुराई मूलत: अज्ञान जनित है। विश्व इतिहास और मौजूदा अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिंसा, विशेषाधिकार, अलगाववाद और दोहरी नैतिकता से किसी का भला नहीं हो सकता। अब सभी देशों और यहां तक कि मुस्लिम वर्ग में भी यह महसूस करने वालों की संख्या बढ़ी है कि मुस्लिम अशांति या पिछड़ेपन की वजह दूसरों को बताना आत्मप्रवंचना ही है। इसे देखते हुए हिंदू भी अपनी हिचक छोड़कर ऐसे स्वरों को और प्रोत्साहित करें। इसमें सबसे बेहतर यही होगा कि इन मुद्दों पर खुले विमर्श को बढ़ावा दिया जाए।

सामाजिक सामंजस्य के लिए जरूरी है हिंदू-मुस्लिम के बीच विश्वास पैदा हो

इसकी अनदेखी का ही परिणाम है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास, शिकायतें, गलतफहमियां और खुशफहमियां बढ़ती गई हैं। इसका लाभ केवल कट्टरपंथियों ने ही उठाया। ऐसे रुख से गलत संदेश जाता है। गलत करने वाले को, उसमें भागीदार और उससे लाभ उठाने वालों को उनके दोष बताने ही चाहिए। तभी वह नैतिक दबाव पड़ता है जो सामाजिक सामंजस्य के लिए जरूरी है।

सीएए को लेकर पूरा दोष विरोधी दलों पर मढ़ना उचित नहीं 

सच पूछें, तो नागरिकता संशोधन कानून की कैफियत में भी बचने और कतराने वाली प्रवृत्ति ही रही। इसीलिए सारी दुनिया में भारत सरकार और हिंदुओं के बारे में गलत छवि बनाने की मुहिम चल सकी, जबकि भारत में पिछले सौ सालों से धार्मिक दृष्टि से पीड़ितों की तुलनात्मक सच्चाई सामने रखने में कोताही की गई। इसका पूरा दोष केवल विरोधी दलों पर ही मढ़ना उचित नहीं होगा। इससे ये समस्याएं और बढ़ती हैं।

मुसलमान सदैव अपने मजहबी हितों को सर्वोपरि रखते हैं

वैसे भी भारत की किसी पार्टी में यह क्षमता नहीं कि वह मुसलमानों का मनचाहा इस्तेमाल करे। यह काम उनके अपने ही नेता करते हैं जो किसी पार्टी के बंधक नहीं। वे सदैव अपने मजहबी हितों को सर्वोपरि रखते हैं। किसी पार्टी से मिला कोई लाभ भी उन्हें नहीं डिगाता। इस कटिबद्धता की जड़ से उलझने के बदले दलबंदी खेल में मशगूल रहना राष्ट्रहित में नहीं। अनर्गल प्रलाप और तुष्टीकरण या दिखावटी उपाय मूल समस्या को जस का तस छोड़ देते हैं। इससे देश को नुकसान हुआ है। ये बातें हिंदुओं-मुसलमानों दोनों को समझानी होंगी ताकि दोनों समुदायों के समझदार लोग आगे आएं और समानता पर आधारित न्याय की बात करें।

सामाजिक असंतुलन को दर्शाने वाली गांठ को खोलने के प्रयास नहीं हुए

जहां तक भारत की तमाम समस्याओं की बात है तो उनके मूल में कहीं न कहीं हिंदू-मुस्लिम संबंध रहे हैं। खिलाफत आंदोलन, विभाजन के वक्त हुए दंगे, पाक प्रायोजित आतंकवाद, कश्मीर, समान नागरिक संहिता से लेकर हाल में नागरिकता संशोधन कानून इसके उदाहरण हैं। समस्या यही है कि यथास्थिति बनाए रखते हुए कई गतिविधियां चलती रहती हैं। वहीं वैचारिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक असंतुलन को दर्शाने वाली गांठ को खोलने के प्रयास नहीं हुए। इस गांठ को खोलना ही पक्का और स्थायी उपाय है।

हिंदू-मुस्लिम के उलझन की गांठ को पहचानकर उसे खोला जा सकता है

हमारे नेताओं और बुद्धिजीवियों ने तमाम नकली उपाय तो आजमाए, लेकिन वे अब एक वास्तविक-व्यावहारिक मार्ग पर भी गौर करें जिसकी राह हमारे मनीषी हजारों साल पहले दिखा गए। इसके लिए केवल इतना भर करना होगा कि हमारे इतिहास की उचित दृष्टि के साथ पठन-पाठन की व्यवस्था हो। इसके अलावा तमाम मुस्लिम और हिंदू नेताओं के बयानों और फैसलों को सामने रखें तो यह असंतुलन स्पष्ट दिखेगा। तब इसे संतुलित करने का उपाय विवेकशील हिंदू-मुस्लिम स्वयं तलाश लेंगे। अभी तो यह समस्या ही छिपाए रखी गई है, जिससे यह सुलझने के बजाय और उलझती रहती है। केवल सच्चे इतिहास से ही इस उलझन की गांठ को पहचानकर उसे खोला जा सकता है।

असंतुलन और संवादहीनता ने हिंदू-मुस्लिम के तानेबाने को बिगाड़ने का काम किया

इस गांठ में एक फंदा स्वयं के ताकतवर, विशिष्ट और स्वभाव से ही शासक होने की भावना है। यह अपने लिए दूसरों से अधिक, कुछ विशेष पाने का दावा रखती है। दूसरे धर्मों का अनादर करते हुए अपने लिए आदर की मांग करती है। वह समान मानवीय नैतिकता को स्वीकार नहीं करती। असल में यह वही असंतुलन और संवादहीनता ही है जिसने पिछले सैकड़ों वर्षों से हिंदू-मुस्लिम संबंधों के तानेबाने को बिगाड़ने का काम किया है। इसे खुले और सद्भावपूर्ण विमर्श से सुधारा जा सकता है। इतिहास और वर्तमान की समग्र सच्चाई सामने रखकर ही यह संभव हो सकता है। इससे दोनों पक्ष ठोस वस्तुस्थिति की समीक्षा कर विवेकपूर्ण निर्णय करने में सक्षम होंगे। यह चुटकी बजाते ही नहीं हो जाएगा, लेकिन इस दिशा में की गई पहल जरूर इसकी पूर्ति की राह खोल देगी।

हिंदू-मुस्लिम के बीच सीधा संवाद ही समाधान का रास्ता है

इसमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यह विमर्श दोनों समुदायों के बीच खुला और सीधा होना चाहिए। इसमें सेक्युलर, वामपंथी और गांधीवादी जैसे किसी पक्ष को तीसरा पंच बनने का अवसर न दिया जाए। असल में इन्होंने ही अभी तक की स्थिति को बिगाड़ा है। अब सीधा संवाद ही समाधान है।

( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं )