कैप्टन आर विक्रम सिंह। लोककसभा चुनाव परिणाम हमारे अल्पसंख्यक समाज के लिए आत्मचिंतन का एक अवसर हैं। इस पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर इस जनादेश में अल्पसंख्यक समाज की क्या भूमिका रही? हमें इस प्रश्न पर अपने यहां की सांप्रदायिक पृष्ठभूमि को देखते हुए विचार करना होगा। इस क्रम में यह भी देखना होगा कि विश्व में वे कौन से देश हैं जिन्होंने अपनी सांप्रदायिक समस्या का समाधान कर लिया है?

जब अरब सेनाओं ने संपूर्ण अरब क्षेत्र पर विजय के बाद ईरान का रुख किया तो वहां का प्राचीन धर्म ही समाप्त हो गया। इसी के साथ वहां कोई सांप्रदायिक समस्या बची ही नहीं। पाकिस्तान में आजादी के समय 22 प्रतिशत हिंदू थे। आज 1.5 प्रतिशत ही बचे हैं। बांग्लादेश में 1947 में 28 प्रतिशत हिंदू थे। आज 8 प्रतिशत रह गए हैं। इंडोनेशिया में 87 प्रतिशत, मलेशिया में 62 प्रतिशत मुस्लिम हैं। शेष समाज बौद्ध हिंदू, ईसाई आदि इतनी अल्पसंख्या में है कि इन देशों में भी कोई सांप्रदायिक समस्या नहीं है।

स्पष्ट है कि आज जिन देशों में यह समस्या नहीं है तो वहां इसका मुख्य कारण जनसांख्यिकी के अनुपात का पूरी तरह से एक धर्म के पक्ष में होना है। जहां समस्या है, उनमें प्रमुख है चीन के उइगर मुस्लिमों वाला इलाका और म्यांमार का र्रोंहग्या क्षेत्र। चीन ने समाधान के लिए प्रशिक्षण कैंपों का सहारा लिया है। 1933 में उइगर और चीनी आबादी का अनुपात जो क्रमश: 77 और 5.5 प्रतिशत था, वह 2015 में 45 और 42 प्रतिशत हो गया है। स्पष्ट है कि चीनी शासक जनसांख्यिकी में परिवर्तन के माध्यम से समस्या का समाधान करते मालूम पड़ रहे हैं। म्यांमार में र्रोंहग्या मुसलमानों की संख्या 10 लाख थी। 2015 से वहां उत्पीड़न का क्रम प्रारंभ हुआ और 9 लाख र्रोंहग्यों ने भागकर बांग्लादेश, फिर चोरी छिपे भारत में भी शरण ली है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर म्यांमार की बड़ी आलोचनाएं हो रही हैं, किंतु उन्होंने अपनी समस्या का, जैसा उनकी समझ में आया, समाधान कर लिया।

भारतीय राजनीति की आज की मजहबपरस्ती के बहुत पहले इतिहास के लंबे दौर में अन्य देशों के समान अपनी सांप्रदायिक समस्या के समाधान के अवसर आए थे, लेकिन सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण समाधान के रास्ते नहीं बने। समाधान की जो सूरतें बनीं वे स्थगित होती गईं। मुगल साम्राज्य के पराभव के बाद यदि दिल्ली में मराठा साम्राज्य स्थापित हुआ होता तो आज भारत में बहुत-सी अन्य समस्याएं तो होतीं, लेकिन कोई हिंदू-मुसलमान समस्या न होती। पानीपत की तीसरी जंग में मराठों की हार और फिर भारत में बढ़ते ब्रिटिश वर्चस्व ने समाधान को स्थगित कर दिया।

यदि 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों की पराजय हो जाती तो फिर आंतरिक सत्ता संघर्ष इस सांप्रदायिक समस्या का भी समाधान कर देता, लेकिन ब्रिटिश विजयी हुए और समाधान की स्थितियां नहीं बनीं। फिर बदलते हुए घटनाक्रम में सांस्कृतिक पुनर्जागरण, आधुनिकता के रुझान, अंग्रेजों की सांप्रदायिक संतुलन की नीति आदि ने इस सांप्रदायिक विवाद को तब तक के लिए स्थगित कर दिया

जब तक ब्रिटिश खुद इसमें भागीदार नहीं हो गए। अंग्रेजों की सक्रिय भागीदारी 1905 में बंगाल के सांप्रदायिक विभाजन से सामने आती है। यहां से आगे हिंदू-मुस्लिम हित बड़े स्पष्ट रूप से एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े दिखते हैं। वह समस्या जिसे 1707 में औरंगजेब की मौत के बाद से ही समाधान की दरकार थी, स्थगित होते-होते 1940-47 में भारत विभाजन के मुहाने पर लाकर खड़ी कर दी गई। ‘दो राष्ट्रों के सिद्धांत’ के तहत एक नकली देश की सरहदें बनाकर सांप्रदायिक समस्या का समाधान पुन: स्थगित कर दिया गया।

अविभाजित भारत में मुस्लिम आबादी 33 प्रतिशत थी। आजादी के आंदोलन में आखिरकार यह तय हुआ कि हिंदू मुसलमान साथ नहीं रह पाएंगे। पाकिस्तान निर्माण के मूल में भारतीय राष्ट्रीयता का अस्वीकार है। पाकिस्तान बनने के बाद भारत की 15 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को सहअस्तित्व का दर्शन विकसित करना चाहिए था, लेकिन देश विभाजन के बाद भारत में पाकिस्तानी सोच का विकास हुआ। जब कहीं धर्मपरिवर्तित समाज को उसके इतिहास, संस्कृति से काट दिया जाता है तो फिर वहां का इतिहास उसका नहीं रहता। इतिहास के नायक आपके शत्रु हो जाते हैं। संस्कृति का अस्वीकार हो जाता है। गैरमुल्की सोच के प्रभाव से अपना ही देश दारुल हरब हो जाता है।

भारत के मुख्य भाग से विभाजन के बाद मात्र 16 प्रतिशत लोग ही पाकिस्तान को रुखसत हुए। पाकिस्तान बनवाने के बाद अधिकांश अल्पसंख्यक समाज एक मजहबी खुमार के साथ भारत में रह गया, जबकि इस अल्पसंख्यक समाज को अपने को पाकिस्तानी सोच से पूरी तरह से बाहर लाने का काम करना था। यह काम इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि हमारी राजनीति उसे वोट बैंक के रास्ते पर ले आई, जिसके कारण अलग पहचान बनाए रखना फायदे का सौदा हो गया।

भारत के बड़े नेताओं खासकर गांधी और नेहरू ने आजादी के आंदोलन में अल्पसंख्यक समाज की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए तुर्की के खलीफा को हटाए जाने को अपना मुद्दा बना लिया। भारत के विचार के साथ अल्पसंख्यक वर्ग का सामंजस्य बैठाना आसान काम नहीं था, पर हिंदुओं की भीड़ में पहचान गुम न हो जाए इसलिए मजहब को और मजबूती से पकड़ लिया गया। वंदे मातरम का विरोध करना, राष्ट्रीय प्रतीकों का असम्मान करना, अपने असल इतिहास एवं संस्कृति को भूले रहना, विभाजन के बाद फिर से अलगाव की भावना को हवा देना यह तो फर्ज नहीं था। राष्ट्रीयता की भावना मजहब विरोधी नहीं है। अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा राष्ट्रवाद को सम्यक महत्व न दे पाना, देश के विभाजन को अर्थहीन कर देता है।

पाकिस्तान से अब तक हुए चार युद्ध इसी विभाजित मानसिकता की उपज हैं। हर युद्ध आमंत्रण था समस्या के समाधान का, लेकिन हमें ऐसा नेतृत्व नहीं मिला जो कश्मीर जैसी सांप्रदायिक समस्या को अंतिम समाधान तक ले जाता। दोष नेतृत्व का भी नहीं है, क्योंकि जैसा समाज होता है उसे वैसा ही नेतृत्व भी मिलता है। हम उन्हें नेता मानते रहे जिसकी सोच कभी समाधान की रही ही नहीं। समस्या के स्थगन को वे समाधान मानते रहे। ये हम ही हैं जो आजादी की जंग में कभी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ नहीं खड़े हुए। हमने उन्हें फांसी चढ़ने दिया। जेल तोड़ कर आजाद नहीं कराया। फिर आंसू बहाते रहे। गुलामी की संस्कृति का भार हमारी आत्मा पर बहुत भारी रहा है। इसी गुलाम मानसिकता से पैदा समझौतापरस्ती देश की सांप्रदायिक समस्या की जिम्मेदार है।

पाकिस्तान ने इस मनोवैज्ञानिक- सांप्रदायिक समस्या को जीवित रखा है। राष्ट्रवाद का कोई मध्य मार्ग नहीं होता। यदि आप राष्ट्रवादी नहीं हैं तो फिर आप राष्ट्रविरोधी हैं। प्रधानमंत्री मोदी की निर्णायक विजय के बाद राष्ट्रनिरपेक्षखंडित सोच वाले कैंपों में खलबली है। समाधान का समय कभी भी घोषणा करके नहीं आता। राष्ट्र ने तो अपना निर्णय सुना दिया। अब मुश्किल फैसलों का-समाधान का कालखंड प्रारंभ होने को है।

 

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक है)

 

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