रसाल सिंह। कोरोना संकट से समाज का कोई हिस्सा अप्रभावित नहीं रहा है। इस विश्व व्यापी आपदा ने भारत में भी लगभग सभी वर्गो को बुरी तरह तरह प्रभावित किया है। लेकिन प्रवासी मजदूरों को सर्वाधिक कष्ट ङोलना पड़ा है। इस बार दिल्ली, मुंबई, पुणो, सूरत जैसे महानगरीय केंद्रों से पैदल पलायन करते इन प्रवासियों ने भारतवासियों की अंतर-आत्मा को झकझोर डाला है। मीडिया और सोशल मीडिया में इसके दृश्यों की भरमार से सरकारें चेतीं और इन श्रमिकों को सुरक्षित इनके गांव पहुंचाने के लिए सक्रिय हुईं।

अब यह स्पष्ट हो गया है कि कोरोना संकट अल्पकालिक आपदा नहीं, बल्कि दीर्घकालिक है। इसलिए इन सरकारों की दूसरी चिंता और चुनौती घर-वापसी किए हुए अपने नागरिकों के लिए रोटी और रोजगार का जुगाड़ करना है। इसलिए पूंजी निवेश कर सकने वाले पूंजीपतियों के लिए पलक-पांवड़े बिछाए जाने की कवायद की जा रही है। नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना और पुरानी बंद पड़ीं या बीमार इकाइयों के परिचालन के लिए भी जतन किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात और गोवा आदि राज्यों की सरकारों ने अपने श्रम-कानूनों में संशोधन किया है।

ये राज्य सरकारें चीन छोड़ने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और औद्योगिक इकाइयों को आकर्षति करने की आड़ में ऐसा कर रही हैं। इन संशोधनों के पक्ष में राज्य सरकारों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि लॉकडाउन से निर्जीव हो चुकी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने, बंद पड़ी आíथक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने के लिए और राज्य के सभी कामगारों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए श्रम कानूनों में संशोधन किया गया है। लेकिन यहां उल्लेखनीय यह है कि श्रम कानून श्रमिकों के अधिकार-पत्र हैं। वे उनके लिए सुरक्षित और गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने वाले दस्तावेज हैं। उन्हें संशोधित, स्थगित या निरस्त करना श्रमिक वर्ग की सुरक्षा, सम्मान और स्वास्थ्य के साथ समझौता करना है।

श्रम कानूनों की शुरुआत: उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में धीरे-धीरे आधुनिक उद्योग शुरू हो रहे थे। उनके साथ रेलवे, पोस्ट ऑफिस और टेलीग्राम जैसी उपयोगी सेवाओं का भी विकास हो रहा था। इसी समय भारत में आधुनिक श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। इस श्रमिक वर्ग को कम मजदूरी, लंबी कार्यावधि, असुरक्षित-असुविधाजनक और अस्वस्थ परिवेश आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। यह विडंबनापूर्ण किंतु रोचक तथ्य है कि भारत में उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की दुर्दशा में सुधार की मांग भारत में कार्यरत श्रमिक वर्ग के अंदर से नहीं, बल्कि ब्रिटेन के लंकाशायर में कपड़ा कारखानों के मालिकों की ओर से आई। इसके पीछे मूल कारण यह था कि सस्ते श्रम के कारण कहीं भारत के उद्योग उनके प्रतिस्पर्धी न बन जाएं। इस आशंका के वशीभूत उन्होंने एक श्रम आयोग की नियुक्ति की मांग की, जो भारतीय उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की परिस्थितियों का अध्ययन कर सके। ऐसा प्रथम आयोग 1875 में गठित किया गया और इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रथम फैक्टरी अधिनियम-1881 पारित किया गया। किंतु यह अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता से लेकर आज तक श्रमिक वर्ग की स्थिति में सुधार के लिए व्यापक स्तर पर श्रम कानूनों का सशक्तीकरण नहीं किया गया है, ताकि भारतीय श्रमिकों के आíथक स्तर और सामाजिक जीवन को बेहतर बनाया जा सके।

चेक एंड बैलेंस की नीति : भूमंडलीकरण तथा आíथक उदारीकरण की प्रक्रिया समकालीन विश्व-व्यवस्था पर अत्यंत व्यापक एवं गहरा प्रभाव डाल रही है। भारत भी इन प्रक्रियाओं से अछूता नहीं है और इन चुनौतियों का सामना कर रहा है। वर्ष 1991 से देश में काफी परिवर्तन हुए हैं। वर्ष 1991 के बाद अर्थव्यवस्था में कई संरचनात्मक परिवर्तनों के द्वारा उदारीकरण की प्रक्रिया का आरंभ हुआ। अधिकांश कार्यक्षेत्रों में राज्य का स्थान निजी उद्यम ले रहे हैं। तथाकथित नीतिगत सुधारों ने अर्थव्यवस्था को उदार बना दिया है। उदारीकरण की इस प्रक्रिया में अधिक निवेश आकर्षति करने की चाह में सरकारों द्वारा अपने कई कानूनों में सुधार किए गए जिनमें श्रम कानूनों में परिवर्तन प्रमुख है। इसके पीछे यह निजी उद्यमियों को अधिक जोखिम से बचाने और उन्हें पूंजी निवेश के लिए आकर्षति करने का तर्क दिया जाता है, लेकिन सरकारें प्रक्रियागत जटिल ढांचे और लालफीताशाही में सुधार न करके केवल श्रम कानूनों में बदलाव पर ही अधिक जोर डालती हैं जो कि गुड गवर्नेस और रिफॉर्म्स का सरलीकरण है।

यह सही समय है जब सरकारों को उद्योग-धंधे लगाने में आने वाली तमाम नीतिगत और प्रक्रियागत अड़चनों को दूर करने की दिशा में काम करना चाहिए, न कि श्रम कानूनों में संशोधन या स्थगन करना चाहिए। किसी भी देश के श्रम कानून कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच स्पष्ट और न्यायपूर्ण संबंधों को स्थापित करने पर जोर देते हैं। इन कानूनों द्वारा श्रमिकों और कारखाना मालिकों के संबंधों को चेक एंड बैलेंस करते हुए श्रमिक वर्ग का संरक्षण सुनिश्चित किया जाता है। श्रम कानूनों का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों के आíथक और सामाजिक हितों की रक्षा करना है, ताकि उन्हें जीवन निर्वाह हेतु उचित मजदूरी, काम के तय घंटे, जोखिमों से सुरक्षा, स्वस्थ एवं अनुकूल वातावरण, बोनस, भत्ते इत्यादि उपलब्ध कराए जा सकें। सरप्लस उत्पादन से प्राप्त लाभ पर सिर्फ पूंजीपति का अधिकार नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें श्रमिक की भी आनुपातिक हिस्सेदारी होनी चाहिए। इस लाभ के न्यायपूर्ण वितरण का उत्तरदायित्व राज्य का है। राज्य इस उत्तरदायित्व से आंखें चुराता रहा है, इसीलिए समाज में इतनी असमानता है और साधन, संसाधन व सुविधाओं पर मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार है।

कामगारों के हित में उचित एवं उपयोगी नीति : भारतीय संविधान द्वारा लोकतंत्रत्मक शासन प्रणाली के रूप में संसदीय व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। प्रत्येक लोकतंत्रीय शासन का मुख्य उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य वर्ग विशेष का हितसाधन नहीं, बल्कि राजनीतिक, आíथक व सामाजिक विषमताओं को दूर करना होता है। हालिया श्रम कानूनों में बदलाव राज्य सरकारों की पूंजीपतियों के प्रति सहानुभूति या उनके दबाव में काम करने की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करते हैं। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि औद्योगिक इकाइयां सरकारी उपक्रमों की तुलना में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने में अधिक सक्षम और सहायक सिद्ध होती हैं और इन औद्योगिक इकाइयों को सुचारू रूप से चलायमान रखने के लिए शासन द्वारा इनके अनुरूप उचित नियम-कानून बनाए जाने चाहिए, परंतु इसके लिए श्रमिकों के मानवीय हितों एवं गरिमापूर्ण जीवन के साथ समझौता नहीं किया जाना चाहिए। अत: विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पूंजीपतियों के दबाव में आकर श्रम कानूनों को कमजोर करना उचित नहीं जान पड़ता है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक व्यक्ति को न केवल जीवन जीने का अधिकार प्रदान किया गया है, बल्कि इसमें गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार भी शामिल है। इसीलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि इन लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उचित एवं उपयोगी नीति का निर्माण करे।

कोरोना संकट के बीच ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने देश को सही रास्ता दिखाया है। योगी आदित्यनाथ ने बड़ी पहल करते हुए विभिन्न राज्यों और महानगरों से अपने गृह राज्य वापस लौट रहे उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूरों की स्किल मैपिंग का महत्वाकांक्षी अभियान शुरू किया है। उत्तर प्रदेश में घर वापसी कर रहे लाखों श्रमिकों के दुख-दर्द निवारण और रोटी-रोजगार के प्रबंध के लिए प्रवासी आयोग का भी गठन किया जा रहा है। इन श्रमिकों का पुनर्वास और सेवायोजन करने वाले इस आयोग का नाम कामगार श्रमिक (सेवायोजन एवं रोजगार) कल्याण आयोग होगा। यह आयोग श्रमिकों की स्किल मैपिंग, कौशल विकास, रोजगार और सेवायोजन आदि आवश्यकताओं की चिंता एवं व्यवस्था करेगा। यह आयोग उत्तर प्रदेश की समग्र श्रम शक्ति की सामाजिक और आíथक सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। यह नवगठित आयोग उत्तर प्रदेश की संपूर्ण श्रम शक्ति का कौशल आधारित डाटाबेस तैयार करेगा।

साथ ही अकुशल या अर्धकुशल श्रमिकों के लिए अल्पकालिक प्रशिक्षण का प्रबंधन करते हुए उन्हें न सिर्फ रोजगार सक्षम बनाएगा, बल्कि विभिन्न औद्योगिक इकाइयों में सेवायोजित भी कराएगा। उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बाहर भी उनकी सामाजिक सुरक्षा और गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी सुनिश्चित की जाएगी। अब श्रमिक स्वयं विभिन्न औद्योगिक इकाइयों के स्वामियों और पूंजीपतियों के सामने रोजगार के लिए नहीं गिड़गिड़ाएंगे, बल्कि उनकी ओर से राज्य सरकार सशर्त सेवायोजन करेगी, ताकि उन्हें अमानवीय हालात में काम करने के लिए विवश न होना पड़े।

इन्हीं प्रयासों की सुखद परिणति है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तमाम औद्योगिक संगठनों के साथ समझौता पत्र हस्ताक्षरित किया है। इससे साढ़े ग्यारह लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों को रोजगार मिलेगा और उनका पुनर्वास हो सकेगा। उल्लेखनीय है कि प्रवासी श्रमिकों के दुखों से द्रवित होकर और उत्तर प्रदेश सरकार की उपरोक्त पहल से प्रभावित होकर केंद्रीय श्रम मंत्रलय ने भी असंगठित क्षेत्र के सभी कामगारों को सामाजिक सुरक्षा कवच प्रदान करने का संकल्प व्यक्त किया है। घरेलू सहायकों आदि को भी इसमें शामिल किया जाएगा। इनका मुफ्त बीमा कराने के साथ न्यूनतम वेतन और साल में एक बार घर जाने का यात्र-व्यय भी प्रदान किया जाएगा।

असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे सभी कामगारों को अनऑर्गनाइज्ड वर्कर आइडेंटिफिकेशन नंबर देकर पंजीकृत किया जाएगा। उन्हें राज्य के बीमा निगम में रजिस्टर किया जाएगा तथा ईएसआइसी की भी सुविधा दी जाएगी। सरकार को एक सुविचारित, संवेदनशील और प्रभावी प्रवासन नीति भी बनानी चाहिए। अगर यह सब धरातल पर हो पाता है तो श्रमिकों की जीवन-स्थिति के गुणात्मक सुधार में कोरोना संकट की निर्णायक भूमिका मानी जाएगी।

[प्रोफेसर, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]