Banks Privatization News: कुशल प्रबंधन के माध्यम से बैंकों के निजीकरण का सराहनीय प्रयास
Banks Privatization News भारत तीव्र विकास की राह पर अग्रसर है। अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्रों- कृषि उद्योग और सेवा में विगत वर्षो में जो विकास हुआ है उसमें निजी क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सरकारी हस्तक्षेप और स्वायत्तता की कमी है।
प्रो. लल्लन प्रसाद। बैंकिंग व्यवसाय के निजीकरण की प्रक्रिया पिछले कुछ वर्षो से तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 1970 के पहले यह व्यवसाय निजी हाथों में था। देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों के अपने अपने बैंक थे। वर्ष 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके पीछे तर्क था कि ये बैंक अमीरों के लिए हैं, गरीबों, किसानों, मजदूरों की पहुंच के बाहर हैं। न उनके खाते इन बैंकों में हैं, न उनको लोन मिलता है। इनकी जमाराशि का बड़ा हिस्सा उद्योगपति अपने व्यवसाय में लगाते हैं, विकास की योजनाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज कल्याण के लिए धन उपलब्ध नहीं कराया जाता।
समाजवादी अर्थव्यवस्था के लक्ष्य की पूíत के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण आवश्यक समझा गया। भारत की अर्थव्यवस्था उन दिनों बहुत कमजोर थी। वर्ष 1980 में छह और निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों का विस्तार हुआ, बड़ी संख्या में नई शाखाएं गांवों और छोटे शहरों में भी खोली गईं, ऋण की सुविधा किसानों और गरीबों के लिए खोल दी गई, यद्यपि उन्हें इसका उतना लाभ वर्षो नहीं मिला, जो अपेक्षित था। साहूकारों का शोषण जारी रहा, बैंक में गरीबों के खातों की संख्या बहुत कम रही।
लेकिन पिछले लगभग तीन दशकों में भारत में बैंकिंग कारोबार में व्यापक तेजी आई है। साथ ही यह भी देखने में आया है कि सरकारी बैंकों में होने वाले घाटे की पूर्ति सरकारी अनुदान से की जाती है जिसका बोझ आम आदमी पर पड़ता है। सार्वजनिक बैंकों का कुल अदेय ऋण यानी एनपीए वर्ष 2020 में 6.8 अरब था, जो स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।
सार्वजनिक बैंकों के एनपीए की समस्या पिछले कई दशकों से है जो सरकारी दबाव, भ्रष्टाचार एवं कुप्रबंध के कारण बढ़ता गया। इतनी बड़ी रकम यदि विकास परियोजनाओं के लिए उपलब्ध हो पाती तो अर्थव्यवस्था को कितना लाभ हो सकता था। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने 2016 में सार्वजनिक बैंकों के बैलेंसशीट के क्लीनिंग की बात कही थी। उनका मानना था कि ये बैंक उद्योगों और बुनियादी ढांचों के लिए धन उपलब्ध कराने की अपेक्षा पूरी नहीं कर रहे हैं। अक्टूबर 2017 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सार्वजनिक बैंकों के रीकैपिटलाइजेशन के लिए 2.11 लाख करोड़ रुपये देने की घोषणा की थी। यह रकम बांड, बजट और इन कंपनियों के शेयरों की बिक्री से जुटाई जानी थी। किसानों को सार्वजनिक बैंकों ने जो ऋण दिए हैं उनका अदेय लगभग 15.85 प्रतिशत है जिसकी भरपाई के लिए 70 हजार करोड़ रुपये के कार्पस तीन वर्षो के लिए बनाए जाने की बात कही जा रही है। इसके पूर्व भी कई बार इन बैंकों को सरकारी मदद दी गई थी जिसके अभाव में कुछ बैंक तो दिवालिया हो गए होते। सरकारी बैंकों में मात्र स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ही है जिसकी प्रबंध व्यवस्था विवादों के घेरे में नहीं रही।
पिछले कुछ वर्षो से बैंकिंग व्यवसाय में सार्वजनिक बैंकों का हिस्सा घटता जा रहा है और निजी क्षेत्र के बैंकों का बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010 में 75.1 प्रतिशत ऋण सरकारी बैंकों ने दिया जो 2020 में घटकर 57.3 प्रतिशत हो गया। इस बीच निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा दिया गया ऋण 17.4 से बढ़कर 35 प्रतिशत पर आ गया। बैंकों में डिपॉजिट की स्थिति भी यही रही। मार्च 2012 में सार्वजनिक बैंकों में 74.76 प्रतिशत डिपॉजिट था जो सितंबर 2020 में घटकर 62.1 प्रतिशत रह गया। इस बीच निजी क्षेत्र के बैंकों में डिपॉजिट 17.8 से बढ़कर 29 प्रतिशत हो गया। सार्वजनिक बैंकों की प्रबंध व्यवस्था और आíथक स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से अगस्त 2019 में केंद्र सरकार ने 12 बैंकों को मिलाकर चार बड़े बैंकों में परिवíतत करने का निर्णय लिया था। पंजाब नेशनल बैंक के साथ बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक के साथ इंडियन बैंक, सिंडिकेट बैंक के साथ केनरा बैंक एवं आंध्र बैंक के साथ यूनियन बैंक के विलय की मंज़ूरी दी गई।
रिजर्व बैंक की एक आंतरिक समिति ने यह सुझाव दिया है कि बड़ी कंपनियां और औद्योगिक घरानों को निजी बैंक खोलने के लाइसेंस दिए जाएं जिससे बैंकिंग व्यवसाय में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हो और इस क्षेत्र को उनकी प्रबंध क्षमता और कुशलता का लाभ मिले। इस बीच 2021-22 का बजट पेश करते समय वित्त मंत्री ने दो सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की घोषणा कर दी जिससे बैंकिंग क्षेत्र में भूचाल आ गया। इसी माह बैंक कर्मचारी यूनियनों ने हड़ताल किया। सरकार ने इस निजीकरण से 1.75 लाख करोड़ रुपये के विनियोग का लक्ष्य रखा है। सरकार के इस निर्णय से स्पष्ट है कि बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया देश में शुरू हो चुकी है जो अर्थव्यवस्था को गति देगी। अधिकांश विकसित देशों में बैंकों का आकार हमारे सार्वजनिक बैंकों से कई गुना ज्यादा है, उनके डिपॉजिट, ऋण देने की क्षमता, विभिन्न सेवाएं और बुनियादी ढांचा कहीं अधिक और उन्नत है। देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था को विश्व स्तर के बैंकों की आवश्यकता है जो निजी क्षेत्र ही दे सकता है। देश के निजी क्षेत्र के बड़े बैंकों आइसीआइसीआइ, एचडीएफसी, एक्सिस आदि का व्यापार पिछले कुछ वर्षो में उनकी कार्यक्षमता, कुशल प्रबंधन एवं ग्राहक सेवाओं के कारण तेजी से बढ़ा है जो निजी क्षेत्र में बढ़ते विश्वास का द्योतक है। जहां तक बैंकों में डिपॉजिट की सुरक्षा का प्रश्न है, निजी क्षेत्र के बैंक भी उन्हीं नियमों से अनुशासित हैं जिनसे सार्वजनिक बैंक, देश के सभी बैंक रिजर्व बैंक के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य हैं।
सरकार का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों के निजीकरण की कोई योजना नहीं है एवं जिन बैंकों का निजीकरण होगा उनके कर्मचारियों के वेतन पर असर नहीं होगा। लिहाजा इससे संबंधित तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है सरकार का बैंकों के निजीकरण का प्रयास सराहनीय है।
भारत तीव्र विकास की राह पर अग्रसर है। अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्रों- कृषि, उद्योग और सेवा में विगत वर्षो में जो विकास हुआ है उसमें निजी क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बड़ी संख्या में जहां सार्वजनिक उद्योग घाटे में जाते रहे, वहीं निजी क्षेत्र ने अपनी प्रबंध कुशलता से लाभ कमाया। सार्वजनिक क्षेत्रों में घाटे का कारण उनकी सामाजिक जिम्मेदारियां मानी जाती हैं जो कुछ हद तक सही है, किंतु मुख्य कारण लचर प्रबंध व्यवस्था, सरकारी हस्तक्षेप और स्वायत्तता की कमी है, जिन्हें निजीकरण के जरिये दूर किया जा सकता है।
[पूर्व विभागाध्यक्ष, बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय]