[ राजीव सचान ]: यह संभव है कि नए कृषि कानून कुछ किसानों और किसान संगठनों को रास न आ रहे हों। ऐसे किसानों और उनके संगठनों को इन कानूनों का विरोध करने और यहां तक कि उनके खिलाफ धरना-प्रदर्शन का भी अधिकार है। वे यह भी कह सकते हैं कि सरकार इन कानूनों को खत्म करे, लेकिन उन्हें या फिर किसी अन्य को यह अधिकार नहीं कि वह रास्ते रोककर इन कानूनों को खत्म करने की जिद पकड़ ले। करीब 40 किसान संगठन ठीक यही कर रहे हैं। वे न केवल दिल्ली के विभिन्न रास्तों को अवरुद्ध किए हुए हैं, बल्कि इस तरह की धमकियां भी दे रहे हैं कि यदि उनकी मांग नहीं मानी गई तो वे रास्तों को पूरी तरह जाम कर देंगे अथवा गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर परेड निकालेंगे। यह और कुछ नहीं, लोगों को तंग कर सरकार को झुकाने की प्रवृत्ति है। यह एक तरह से लोगों को बंधक बनाकर सरकार से कानूनों की वापसी के रूप में फिरौती मांगने की कोशिश है। यदि सरकार इस दबाव के समक्ष झुक जाती है तो कल को कोई भी संगठन दस-बीस हजार लोगों को दिल्ली लाकर और यहां के रास्ते जाम कर यह मांग कर सकता है कि फलां कानून खत्म किया जाए। इससे तो लोकतंत्र पर भीड़तंत्र ही हावी होगा।

किसान नेताओं की कृषि कानूनों को खत्म करने की जिद - न अपील, न दलील, केवल रिपील

किसान नेता केवल कृषि कानूनों को खत्म करने की जिद ही नहीं पकड़े हुए हैं, बल्कि वे सरकार से बातचीत के दौरान इस तरह की भाषा का भी इस्तेमाल कर रहे हैं- न अपील, न दलील, केवल रिपील। सातवें दौर की बातचीत में ठीक यही कहा गया। शुरुआती दौर में तो यह स्थिति थी कि केंद्रीय मंत्री जैसे ही अपनी बात कहना प्रारंभ करते थे, किसान नेता कुर्सियां घुमाकर उनकी ओर पीठ करके बैठ जाते थे। अब वे इस तरह की बातें कर रहे हैं कि यदि संसद नहीं चल रही है तो कोई बात नहीं, अध्यादेश के जरिये तीनों कानूनों को वापस लेने का काम किया जाए। देश में पांच सौ से अधिक किसान संगठन हैं, लेकिन महज 40 किसान संगठन यह जताने में लगे हुए हैं कि वे समस्त किसानों के प्रतिनिधि हैं। यह तब है जब इस आंदोलन में मुख्यत: पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही किसानों की भागीदारी है। इन किसान संगठनों के कुछ नेताओं को किसान नेता कहना भी कठिन है, जैसे कि योगेंद्र यादव। वह करीब साल भर पहले जेएनयू में फीस वृद्धि को लेकर आंदोलनरत थे। इसके बाद वह नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोगों को उकसाने में जुटे। अब वह यह बता रहे हैं कि देश के किसानों का नेतृत्व उनके हाथ में हैं।

सरकार कृषि कानूनों में संशोधन को तैयार, किसान नेताओं को कानूनों की वापसी से कम मंजूर नहीं

हालांकि सरकार तीनों कृषि कानूनों में संशोधन को तैयार है, लेकिन किसान नेताओं की जिद है कि इन कानूनों की वापसी से कम कुछ मंजूर नहीं। जोर-जबरदस्ती केवल यहीं तक सीमित नहीं, पंजाब में इस दुष्प्रचार का सहारा लेकर रिलायंस जियो के मोबाइल टावरों पर हमले शुरू कर दिए गए कि इन कानूनों से तो केवल अंबानी और अदाणी को लाभ मिलने वाला है। यह दुष्प्रचार इसके बावजूद किया जा रहा है कि न तो अंबानी और अदाणी की कंपनियां किसानों से अनाज की सीधी खरीदारी करती हैं और न ही उनका अनुबंध खेती से कोई लेना-देना है। पंजाब में किसान हित की लड़ाई लड़ने के नाम पर अब तक डेढ़ हजार से अधिक मोबाइल टावरों को या तो क्षतिग्रस्त किया जा चुका है अथवा उनकी बिजली काटी जा चुकी है। इस खुली अराजकता को रोकने के लिए पंजाब सरकार ने पहले अपील जारी की और फिर चेतावनी देकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली। राज्य सरकार के ऐसे ढुलमुल रवैये को देखकर रिलायंस जियो को हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। केवल इतना ही नहीं, पंजाब में भाजपा नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है। उनके घरों पर गोबर फेंका जा रहा है। एक ऐसे ही कृत्य के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ जब मुकदमा दर्ज किया गया तो उसे रद करने की मांग की गई और ऐसा न किए जाने की सूरत में सड़कों पर उतरने की चेतावनी दी गई। यानी चोरी और सीनाजोरी।

किसान नेताओं का इरादा सरकार को झुकाना है?

इससे इन्कार नहीं कि किसान अन्नदाता हैं और सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद उनकी समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं, लेकिन यदि इस तरह से कानूनों को वापस लेने के लिए जोर जबरदस्ती वाला रवैया अपनाया जाएगा तो फिर किसी भी कानून की खैर नहीं। हो सकता है नए कृषि कानूनों से किसानों की सभी समस्याओं का समुचित समाधान न हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संसद से पारित कानून सड़क पर खारिज करने की जिद की जाए। सड़क पर उतरे लोग वह काम अपने हाथ में नहीं ले सकते, जो संसद या सुप्रीम कोर्ट का है। कोई नहीं जानता कि कृषि कानूनों के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट का क्या फैसला होगा, लेकिन किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि जब सरकार इन कानूनों में संशोधन को तैयार है तब फिर उनमें फेरबदल कराने के अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाया जा रहा है? क्या इसलिए कि इरादा सरकार को झुकाना है?

दिल्ली आने-जाने के प्रमुख रास्तों पर किसानों के डेरा डालने से हजारों लोग प्रभावित हो रहे हैं

जो भी हो, यह वही रवैया है, जिसका परिचय दिल्ली-एनसीआर के लोगों की नाक में दम करने वालों ने शाहीन बाग में धरने पर बैठकर दिया था। दिल्ली आने-जाने के प्रमुख रास्तों पर किसानों के डेरा डालने से हर दिन हजारों लोग प्रभावित हो रहे हैं। किसान नेता दिल्ली-एनसीआर के लोगों को जानबूझकर परेशान करने का काम कर रहे और फिर भी खुद को अन्नदाता के तौर पर पेश कर हमदर्दी हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। किसान नेता इस बात को समझें तो बेहतर कि यह संभव नहीं कि वे लोगों को परेशान भी करें और उनकी हमदर्दी पाने की भी उम्मीद करें।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )