[ एनके सिंह ]: कई बातें जो एक आम इंसान को भी आसानी से समझ आ सकती हैैं, लेकिन सत्ताधारी वर्ग या तो उन्हें समझना नहीं चाहता या फिर कुछ राजनीतिक मजबूरियां उसे ऐसा करने से रोक देती हैं। खासतौर से चुनाव नजदीक हो तो ऐसा अक्सर देखने को मिलता है। इसके कुछ उदाहरणों पर गौर कीजिए। वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार का सबसे बड़ा एलान था कि, ‘2022 तक किसानों की आय दोगुनी करेंगे।’ भाजपा आज पूरे देश में और देश की आधी आबादी पर राज्य सरकारों के जरिये शासन कर रही है। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की विगत 11-12 जनवरी की बैठक में पारित कृषि प्रस्ताव कहता है, ‘हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र के लिए बजट आवंटन भी बढ़ाया गया है और यह सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने में तेजी से अग्रसर है।

यह राष्ट्रीय परिषद अपना विश्वास व्यक्त करती है कि जो मियाद निर्धारित की गई है उस समय सीमा में पार्टी अपने शासन में यह लक्ष्य पूरा कर लेगी।’ लेकिन सरकार के ही कंपनी मामलों और उद्योग मंत्रालय के ताजा और पूर्व के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कृषि उत्पादों के दाम गैर-कृषि उत्पादों के मुकाबले पिछले 18 सालों में जितने नहीं गिरे उतने पिछले छह माह में लगातार गिरे हैैं। अर्थात किसानों को उनकी पैदावार का तुलनात्मक मूल्य पिछले 18 सालों में उतना कम नहीं मिला जितना इस वर्ष। थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट का सीधा मतलब है कि किसानों को अपने उत्पाद बेहद कम मूल्य पर बेचने पड़ रहे हैैं, जबकि जीवन-यापन के लिए गैर-कृषि उत्पाद उन्हें महंगे खरीदने पड़ रहे हैं। यानी कृषि व्यवसाय लगातार नुकसानदेह होता जा रहा है। किसान के मुकाबले अन्य उत्पादक वर्ग अधिक खुशहाल हैैं।

सत्य और दावों में एक और विरोधाभास देखें। मोदी सरकार का दूसरा ड्रीम प्रोजेक्ट था ‘फसल बीमा योजना’। 2016 के मई महीने में शुरू की गई इस योजना के दो साल बीतने के बाद पता चला कि 2018 के अंत तक पिछले साल के मुकाबले किसानों में इस योजना की लोकप्रियता 17 प्रतिशत कम हुई है, जबकि दावा था कि 2018 तक इसके दायरे को बढ़ाकर 40 प्रतिशत किसानों की फसल को बीमित कराया जाएगा। सबसे चिंता वाली बात यह है कि जिन दस राज्यों में कम बीमा हुआ है उनमें से आठ भाजपा शासित हैं और जिन चार राज्यों में बढ़ा है उनमें से तीन गैर-भाजपा शासित।

तीसरा चौंकाने वाला तथ्य है-देश भर में कृषि बीमा संख्या में ऐसी गिरावट के बावजूद निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों को 3,000 करोड़ रुपये का लाभ हुआ है, जबकि सरकारी बीमा कंपनियों को 4,085 करोड़ रुपये का घाटा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 2014 में वाराणसी से चुनाव लड़ रहे थे तो गंगा आरती के दौरान उन्होंने कहा कि मैं यहां आया नहीं हूं। मुझे ‘गंगा मां’ ने बुलाया है।

पांच साल बाद प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों ने कागज पर गढ़मुक्तेश्वर से वाराणसी तक गंगा को निर्मल कर दिया। इसके लिए उन्हें कुछ खास नहीं करना पड़ा। बस पांच मानकों में से मात्र तीन का संज्ञान लिया गया और दो को छोड़ दिया गया, जबकि स्वायत्त संस्थाओं के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि इन तीन मानकों के आंकड़े भी फर्जी हैं। विभाग की ओर से रोजाना जारी बुलेटिन केवल घुलित ऑक्सीजन, पानी का पीएच (हाइड्रोजन-आयन की सांद्रता) और पानी का रंग बताकर इस गंगाजल को ‘आचमन’ करने के काबिल बता रही है, लेकिन यह नहीं पता चल रहा है कि पानी में कीटाणु की जानकारी देने वाला बायो-ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और फीकल कॉलिफोर्म (शौच आदि के विसर्जन से पैदा हुए कीटाणु) का स्तर क्या है?

महामना इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी फॉर गंगा मैनेजमेंट के नदी विशेषज्ञ प्रोफेसर यूके चौधरी कह रहे हैं कि विभाग झूठ बोल रहा है। गंगा की ऑक्सीजन-वहन क्षमता शुद्धता के मानक के हिसाब से काफी कम है। खुले में शौच से मुक्ति (ओडीएफ) भी प्रधानमंत्री मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट था। चारों ओर इसकी बड़ी तारीफ हुई, अधिकारियों की जन-मंचों से सराहना हुई। मन की बात में भी प्रधानमंत्री ने गैर-सरकारी लोगों के कशीदे काढ़े। और अब एलान होने जा रहा है कि पूरा देश ओडीएफ हो गया है। जाहिर है चूंकि हर व्यक्ति को शौचालय ‘उपलब्ध’ है लिहाजा अब यह कार्यक्रम सफल मान कर रोक दिया जाएगा और चुनाव में जनता के समक्ष यह सफलता गिनाई जाएगी। वहीं भारत और अमेरिका की दो प्रमुख संस्थाओं ने एक संयुक्त सर्वे में पाया कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में जहां देश की एक-तिहाई से ज्यादा आबादी बसी है, वहां 44 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं।

नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च और अमेरिका के पेंसिल्वेनिया, टेक्सास और कैलिफोर्निया के विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं ने सर्वेक्षण में पाया है कि इन राज्यों में गरीब ग्रामीणों और आदिवासियों की मुश्किल यह है कि जो पैसे मिल रहे हैं उनमें यह शौचालय बन नहीं सकता और बकाया धन वे गरीब लगा नहीं सकते। लिहाजा राजनीतिक ‘आकाओं’ को खुश करने के लिए फर्जी आंकड़े दिए जा रहा हैं। केंद्र सरकार के अनुसार जहां ये राज्य अब पूरी तरह ‘ओडीएफ’ हो चुके हैं, वहीं इस सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में 60 प्रतिशत, राजस्थान में 53 प्रतिशत, यूपी में 39 प्रतिशत और एमपी में 25 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं। हालांकि इसमें सिर्फ इस अभियान के अमल की गलती नहीं है। सर्वे के अनुसार करीब 23 प्रतिशत लोग (20 प्रतिशत महिलाएं और 25 प्रतिशत पुरुष) शौचालय होते हुए भी खुले में शौच करते हैं। यह हमारे समाज की कुंठित सोच का नतीजा है। लोगों की खुले में शौच करने की आदत केकारण भारत में हर साल दो लाख बच्चे मरते हैं।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जुड़ी एक और तस्वीर पर गौर करते हैं। बीते चार साल में देश के मात्र 15 हजार प्राइमरी स्कूल ही एकल विद्यालय के अभिशाप से मुक्त हो पाए। जहां 2013 तक देश में 1,07,591 एकल स्कूल थे, उनमें आज भी 92,275 बदस्तूर मात्र एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। सोचिए एक शिक्षक और स्कूल में कक्षा एक से लेकर पांच तक की कक्षा के कम से कम करीब तीन करोड़ बच्चों के भविष्य के प्रति सरकार कैसा खिलवाड़ कर रही है। क्या इस शासन-काल में सब कुछ वैसा ही है जैसा 2014 के चुनाव के पहले सार्वजनिक भाषणों में मोदी कहते थे ‘अच्छे दिन’ तो श्रोता कहते थे ‘आएंगे’। क्या अब भी वित्त मंत्री अरुण जेटली कहेंगे कि सरकार में कमी निकालने वाले मनोविकार से पीड़ित हैं जो आदतन हर बात में नकारात्मक पहलू खोजते रहते हैंं?

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं ]