[भूपेंद्र यादव]। संसद के शीतकालीन सत्र में संसद से पारित किए गए विधेयकों में सबसे महत्वपूर्ण नागरिकता संशोधन विधेयक था, जो अब कानून बन चुका है। किसी भी देश के लिए नागरिकता एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न होता है। जब सरकार किसी व्यक्ति को देश के नागरिक के रूप में मान्यता देती है तो वह नागरिक की सुरक्षा और उसके अधिकारों को सुनिश्चित करती है, ताकि वह देश के नागरिक के रूप में गरिमापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें। संसद से पारित इस कानून के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए अल्पसंख्यक समूहों-हिंदू, जैन, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है।

भारतीय संविधान के तहत दिए गए अधिकारों में से कुछ सभी को दिए गए हैं, जबकि कुछ केवल देश के नागरिकों को दिए गए हैं। यह केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर देश में है कि कुछ अधिकार सभी के लिए होते हैं और कुछ अधिकार केवल वहां के नागरिकों के लिए होते हैं। इस कानून से जुड़े तीन महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। पहला, सरकार को इस कानून को लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? दूसरा, क्या यह कानून लोगों को नागरिकता प्रदान करने में धर्म के आधार पर भेदभाव करता है? तीसरा, क्या सरकार द्वारा विधेयक लाने की पूरी प्रक्रिया में संवैधानिक वैधता है?

1947 में देश का विभाजन धार्मिक आधार पर

इन प्रश्नों का उत्तर जानने के पहले यह समझना होगा कि देश का विभाजन 1947 में धार्मिक आधार पर हुआ। 1950 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके पाकिस्तानी समकक्ष लियाकत अली खान के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह दोनों देशों में अल्पसंख्यक समुदाय को सुरक्षा प्रदान करने से संबंधित था। नेहरू-लियाकत समझौते पर पाकिस्तान ने कभी अमल नहीं किया। इस कारण बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक पाकिस्तान और बांग्लादेश (उस दौर के पूर्वी पाकिस्तान) से भारत आए। इनके भारत आने का मुख्य कारण धार्मिक उत्पीड़न और उनकी धार्मिक पहचान का खतरे में होना था। इस गंभीर समस्या पर सिर्फ वर्तमान सरकार का ध्यान गया।

2003 में मनमोहन सिंह ने भी उठाया था मुद्दा

2003 से 2014 के बीच संप्रग सरकार ने संसद में अनेक बार यह बात दोहराई कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जा रहा है और इसलिए वे भारत आ रहे हैं। इतना ही नहीं, 2003 में जब केंद्र में राजग सरकार थी तब मनमोहन सिंह ने इन पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का मुद्दा उठाया था। माकपा नेता प्रकाश करात ने 2003 में मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए बयान के आधार पर एक पत्र लिखा। कुल मिलाकर लंबे समय से चली आ रही इस समस्या की तरफ लगभग हर दल के नेताओं का ध्यान गया। सभी ने इस समस्या को एक गंभीर चिंता के रूप में जाहिर किया, किंतु दुर्भाग्य से समस्या को जानते और स्वीकारते हुए भी कांग्रेस ने ठोस समाधान निकालने की कभी कोशिश नहीं की। मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लाकर इस समस्या का समाधान किया है।

जहां तक इस विधेयक की संवैधानिक वैधता का प्रश्न है तो हमें यह याद रखना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास और पूजा पद्धति की स्वतंत्रता है। विपक्ष द्वारा इस विधेयक के संबंध में उठाया गया मुख्य मुद्दा संविधान के अनुच्छेद 14 के संदर्भ में है। वे तर्क दे रहे हैं कि पड़ोसी देशों के कुछ धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देकर सरकार भेदभाव की राजनीति कर रही है। सच्चाई आरोपों से परे है।

एक वर्ग को चिन्हित करने के समान 

यदि एक कल्याणकारी सरकार किसी उपयुक्त आधार पर लोगों को वर्गीकृत करती है और फिर समूह के सभी सदस्यों को समान अधिकार प्रदान करती है तो यह व्यवस्था अनुच्छेद 14 के तहत मान्य है। यह लोगों को आरक्षण का लाभ देने के लिए एक वर्ग को चिन्हित करने के समान है। यदि देश के दस प्रतिशत लोगों को गरीबी के आधार पर आरक्षण दिया गया है तो यह नीति देश के करदाताओं के खिलाफ नहीं है। इसी तरह ओबीसी मुस्लिमों को दिया जाने वाला आरक्षण उच्च जाति के हिंदुओं के खिलाफ नहीं है।

टीएमए पई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक और भाषाई आधार पर लोगों के वर्गीकरण को संविधानसम्मत स्वीकृत किया था। इसलिए विपक्ष द्वारा उठाए जा रहे ऐसे मुद्दे निराधार हैं। ये भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि यह कानून पूर्वोत्तर राज्यों के खिलाफ है। यह भी सच नहीं है। सरकार ने पूर्वोत्तर के सभी ‘इनर लाइन परमिट क्षेत्रों’ को कानून के दायरे से बाहर कर दिया है। साथ ही पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्रों को भी इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है।

2013 में संप्रग सरकार ने पाकिस्तान से आए हिंदुओं को दी थी नागरिकता 

सरकार ने इस कानून के तहत लोगों को नागरिकता देने के लिए 31 दिसंबर, 2014 की तिथि निर्धारित की है। यानी नागरिकता प्रदान करने के लिए नए प्रवासियों को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा। इस कानून के तहत केवल उन्हें नागरिकता दी जाएगी जो निर्धारित तिथि या उससे पहले प्रवेश कर चुके हैं। बाहर से आए लोगों को विशेष परिस्थिति में नागरिकता पहले भी दी जाती रही है। 2003 में राजग सरकार और यहां तक कि 2013 में संप्रग सरकार ने सर्क्युलर के माध्यम से पाकिस्तान से आए हिंदू प्रवासियों को नागरिकता प्रदान की थी। इसलिए धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर लोगों को नागरिकता देना संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं है। यह कानून लाकर तो सरकार ने लंबे समय से चली आ रही समस्या का स्थायी हल निकाला है।

बिना किसी अधिकार के अनिश्चितता और असुरक्षा का जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को नागरिकता प्रदान करके भारत सरकार ने मानव अधिकारों की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दलों द्वारा जिस ढंग से नागरिकता संशोधन कानून पर भ्रामक अप-प्रचार करके जनता में भ्रम की स्थिति पैदा करने की कोशिश की गई है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। यह बार-बार स्पष्ट किया जा चुका है कि नागरिकता संशोधन कानून 2019 से भारत के किसी भी धर्म के नागरिक को कोई खतरा नहीं है। इस कानून से किसी की नागरिकता पर कोई खतरा होने का सवाल ही नहीं है।

 

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव एवं राज्यसभा सदस्य हैं)